सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदोन्नति के विवादों के मद्देनजर मैं कॉलेजियम की वर्तमान सिफारिशों का विश्लेषण कर रहा हूं और शीर्ष अदालत की खंडपीठों में सभी उच्च न्यायालयों का उचित प्रतिनिधित्व और हाशिए पर रही जातियों के न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने में इसकी असमर्थता को दिखा रहा हूं.
उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 है, लेकिन वर्तमान में केवल 29 न्यायाधीश ही मुकदमों के बोझ उठा रहे हैं. ख़बरों के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यू.यू. ललित ने तीन न्यायाधीशों – पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रविशंकर झा, पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और मणिपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.वी. संजय कुमार के साथ-साथ वरिष्ठ अधिवक्ता के.वी. विश्वनाथन की पदोन्नति की प्रकिया शुरू की है.
उनकी पदोन्नति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया एक नए विवाद में फंस गई है, जिसके तहत कॉलेजियम के दो सदस्यों ने इन चार नामों पर किसी औपचारिक बैठक में विचार किये जाने के बजाय इन प्रस्तावित नामों के लिए लिखित सहमति पाने की सीजेआई की कोशिश पर आपत्ति जताई है. हालांकि, विचार किए गए नामों का विश्लेषण सुप्रीम कोर्ट में सभी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में कॉलेजियम प्रणाली की अन्य सीमाओं पर ध्यान केंद्रित करता है.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का मानदंड
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मानदंड संविधान के अनुच्छेद 124 में निहित है. इसे लागू करने के लिए, भारत सरकार एक मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर (प्रक्रिया ज्ञापन) का पालन करती है. इसके अलावा, कुछ अनौपचारिक मानदंड भी अपनाए जाते हैं. न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, जो इस कॉलेजियम का हिस्सा रही थीं, ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद हाल ही में दिए गए एक साक्षात्कार में कहा था, ‘जब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है, तो कुछ फैक्टर्स को ध्यान में रखा जाता है. उनमें से एक क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व है; वे (कॉलेजियम के सदस्य) यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि विभिन्न उच्च न्यायालयों को प्रतिनिधित्व दिया जाए.’
दूसरी कसौटी है, ‘वरिष्ठता, कानून का ज्ञान, योग्यता और निश्चित रूप से, न्यायाधीश ने अपने काम के वर्षों में जो प्रतिष्ठा अर्जित की है.’ कई अन्य न्यायाधीशों ने भी बार-बार इसी तरह के बिंदुओं को दोहराया है. जिन न्यायाधीशों की सिफारिश की गई है उनके कानून के ज्ञान, उनकी योग्यता और प्रतिष्ठा की परख करना मुश्किल है, लेकिन क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के साथ-साथ वरिष्ठता के मापदंडों पर उनकी परख करना अब आसान हो गया है क्योंकि केंद्र सरकार का न्याय विभाग शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर मासिक रूप से डेटा जारी करता है. मैं नीचे दिए गए डेटा का उपयोग इस तथ्य को जांचने के लिए करता हूं कि क्या हाल ही में अनुशंसित न्यायाधीश इन दो मानदंडों को पूरा करते हैं?
SC की पीठों में विभिन्न HC’s का प्रतिनिधित्व
सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान 29 जजों में से 27 जजों को हाई कोर्ट से प्रोन्नत किया गया है. शेष दो – सीजेआई ललित और न्यायमूर्ति पी. श्री नरसिम्हा – को सीधे शीर्ष अदालत के बार से प्रोन्नत किया गया था. 1 अक्टूबर को जारी किये गए आंकड़ों (जिनका तालिका 1 में विश्लेषण किया गया है) के अनुसार, 25 उच्च न्यायालयों में से केवल 13 ही सर्वोच्च न्यायालय की पीठों में प्रतिनिधित्व पाते हैं.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में देश में न्यायाधीशों की उच्चतम स्वीकृत संख्या (160) है, लेकिन उच्चतम न्यायालय की पीठों में इसका प्रतिनिधित्व केवल दो न्यायाधीशों द्वारा किया जाता है. दिल्ली, मुंबई, गुजरात और कर्नाटक के उच्च न्यायालयों से प्रतिनिधित्व अधिक है. यहां प्रतिनिधित्व का अर्थ मुख्य रूप से न्यायाधीश के मूल उच्च न्यायालय से है, जिसे उनकी प्रारंभिक नियुक्ति के आधार पर परिभाषित किया गया है.
उच्चतम न्यायालय में बिना किसी प्रतिनिधित्व वाले सभी उच्च न्यायालय- पटना, तेलंगाना, ओडिशा और आंध्र प्रदेश – न्यायाधीशों की संख्या के मामले में काफी बड़े हैं. शीर्ष पीठ में उनके प्रतिनिधित्व को आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
कॉलेजियम की सिफारिशों का परीक्षण
सीजेआई ललित के अन्तर्गत कार्य करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सबसे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता को शीर्ष अदालत में पदोन्नत करने की सिफारिश की थी. न्यायमूर्ति दत्ता का मूल उच्च न्यायालय कलकत्ता उच्च न्यायालय है और शीर्ष अदालत में इसका प्रतिनिधित्व करने वाला एक न्यायाधीश, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, पहले से ही मौजूद हैं. इसलिए, इस सिफारिश को करते हुए, कॉलेजियम ने पटना, तेलंगाना, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालयों के प्रतिनिधित्व की कमी को नजरअंदाज कर दिया था. कॉलेजियम ने चार जजों के नामों के लिए अपनी दूसरी सिफारिश में जस्टिस पी.वी. संजय कुमार का नाम शामिल किया जिनका मूल उच्च न्यायालय तेलंगाना उच्च न्यायालय है, लेकिन इसने बाकी तीन अन्य उच्च न्यायालयों की उपेक्षा कर दी.
इन उच्च न्यायालयों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के बजाय, सीजेआई ने न्यायमूर्ति रविशंकर झा और न्यायमूर्ति संजय करोल को पदोन्नत करने का प्रस्ताव दिया है, जिनके मूल उच्च न्यायालय क्रमशः मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश हैं. पहले वाले उच्च न्यायालय का पहले से ही सर्वोच्च न्यायालय में एक प्रतिनिधित्व है; हालांकि बाद वाले का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, लेकिन यह अपेक्षाकृत छोटा उच्च न्यायालय है. सभी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में, न्यायमूर्ति रविशंकर झा सबसे वरिष्ठ हैं क्योंकि उन्हें शुरू में साल 2005 में नियुक्त किया गया था. इसलिए, उनकी सिफारिश उनकी वरिष्ठता का इनाम प्रतीत होती है. हालांकि, न्यायमूर्ति संजय करोल के नाम की सिफारिश प्रतिनिधित्व मानदंडों को पूरा करती है क्योंकि उनके मूल उच्च न्यायालय (हिमाचल प्रदेश) का वर्तमान में शीर्ष अदालत की पीठ में प्रतिनिधित्व नहीं है, लेकिन पटना, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालयों की तुलना में यहां न्यायाधीशों की अपेक्षाकृत कम संख्या है.
दो जजों की अनदेखी का अजीबोगरीब मामला
यदि हम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और वरिष्ठता के मानदंडों को एक साथ जोड़ें, तो त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इंद्रजीत मोहंती, जो मूल रूप से उड़ीसा उच्च न्यायालय से हैं, को सिफारिश किये गए नामों की सूची में एक स्थान मिलना चाहिए था. वह न्यायमूर्ति संजय करोल से वरिष्ठ हैं, और उनके मूल उच्च न्यायालय का भी फ़िलहाल सर्वोच्च अदालत में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इसी तरह, मूल रूप से पटना उच्च न्यायालय से आने वाले झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रवि रंजन को भी इस सूची में शामिल होना चाहिए था, बशर्ते कॉलेजियम शीर्ष अदालत में पटना उच्च न्यायालय का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहता हो.
न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा पटना उच्च न्यायालय से आने वाले सुप्रीम कोर्ट के अंतिम न्यायाधीश थे जो एक साल से भी अधिक समय पहले सेवानिवृत्त हुए थे. न्यायमूर्ति रवि रंजन दिसंबर 2022 में सेवानिवृत्त होने वाले हैं, और पटना उच्च न्यायालय के अन्य सभी न्यायाधीश अपेक्षाकृत कनिष्ठ हैं, जिसका प्रभावी रूप से अर्थ है कि न्यायमूर्ति रंजन के नाम की अनदेखी करने की वजह से पटना उच्च न्यायालय को सर्वोच्च न्यायालय की पीठ में अपने प्रतिनिधित्व हेतु एक लंबा इंतजार होगा.
सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालयों की अधिकतम संख्या का प्रतिनिधित्व इसके ‘अखिल भारतीय’ चरित्र का प्रतीक होने हेतु आवश्यक है. हालांकि, उपरोक्त विश्लेषण से पता चलता है कि कॉलेजियम ने इसे सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. वर्तमान विवादों के आलोक में, अब केंद्र सरकार द्वारा सबका उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का समय आ गया है. एक और तथ्य जो आश्चर्यजनक है, वह यह है कि इन चार न्यायाधीशों के नामों की नियुक्ति के लिए सिफारिशों का प्रस्ताव करते हुए, सीजेआई ने महिलाओं और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व पर विचार ही नहीं किया.
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(अरविंद कुमार @arvind_kumar__, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के के रॉयल हॉलोवे के राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में पीएचडी स्कॉलर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)