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Friday, 1 November, 2024
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एनआरसी मुद्दे पर राज्य मोदी को तीन आसान तरीकों से मात दे सकते हैं: डिलिंक,डिफर और डिफ्यूज

राज्यों को एनपीआर के अपडेट से इंकार करने की आवश्यकता नहीं है. वे जनगणना की पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए कुछ सावधानियों पर जोर दे सकते हैं ऐसा कर वह स्वयं के कानूनी दायित्वों का उल्लंघन भी नहीं करेंगे.

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जिस तरह से इन दिनों कोरोना और कांग्रेस का रोना चल रहा है ऐसे में हम संवैधानिक संकट की दृष्टि खो सकते हैं. हम स्वतंत्र भारत के इतिहास में अबतक के सबसे निर्णायक संवैधानिक संघर्ष के साक्षी बनने जा रहे हैं. इस मुकाबले में दांव पर लगा है संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र. राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) पर मचे विवाद को इस मुकाबले का अखाड़ा माना जा सकता है और ये अखाड़ा ऐसे मुकाबले के लिए बहुत छोटा जान पड़ सकता है. लेकिन अब जबकि मुकाबले का मैदान सज चुका है तो असली सवाल उस सही रणनीति को चुनने का है जिसके सहारे चहुंओर के हमले के बीच से संवैधानिक मूल्यों की हिफाजत की जा सके.

ये मुकाबला जाहिर तौर पर केंद्र सरकार और 11 राज्य सरकारों के बीच है. राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अद्यतन बनाने का काम 1 अप्रैल से करना प्रस्तावित है और 11 राज्यों में सरकारें इस प्रस्ताव का विरोध कर रही हैं. शुरुआत में ये मुकाबला साफ तौर पर बीजेपी बनाम बीजेपी विरोधी सरकारों के बीच होता दिख रहा था लेकिन बाद को मुकाबले ने कहीं ज्यादा दिलचस्प रुख अख्तियार कर लिया. राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को उसके मौजूदा रुप मे लागू करने के विरोधी सरकारों की कतार में पिछले हफ्ते आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और बिहार की सरकार भी शामिल हो गई. ऐसी बात नहीं कि एनपीआर को लेकर आशंकित तमाम राज्य सरकारें एक ही सुर में बोल रही हों. इन राज्य सरकारों ने एनपीआर के खिलाफ में खड़े होने के अलग-अलग कारण बताये हैं और जो समाधान गिनाये हैं उनमें भी फर्क है. एक अहम बात यह कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का मसला केंद्र सरकार के दायरे में आता है तो राज्य सरकारें ऐसे मसले का विरोध किस भांति करेंगी, ये भी अभी तक सामने नहीं आ पाया है जबकि केंद्र सरकार और 11 राज्यों में कायम सरकारों के बीच होने जा रहे टकराव का नतीजा बहुत कुछ इसी बात पर निर्भर करता है.

एनपीआर के जरिये देशवासियों की निगरानी

ये एक निर्णायक संघर्ष सिद्ध होने जा रहा है क्योंकि एनपीआर नागरिकता का नया ढांचा गढ़ने की दिशा में उठाया गया पहला ठोस कदम है और नागरिकता का नया ढांचा असम और बंगाल में बीजेपी के सियासी बिसात के लिहाज से बहुत अहम है.

बीजेपी नागरिकता के इस नये ढांचे को असम और बंगाल के बाद देश के शेष हिस्सों में भी अपनी सियासी बिसात का हिस्सा बनायेगी. एक सचेत नागरिक के तौर पर आपको ये ‘क्रोनोलॉजी’ अब एकदम से कंठस्थ कर लेनी चाहिए : पहला कदम होगा, एनपीआर के जरिये देश के सभी आम निवासियों के बारे में सूचना एकत्र करना. इसके बाद राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) तैयार करने की प्रक्रिया शुरु होगी और इसमें एनपीआर के दौरान ‘संदेहास्पद’ पाये गये नागरिकों की पहचान की जायेगी. एनआरसी के लिए नियम-कानून पहले से बना लिये गये हैं, बस केंद्र सरकार की ओर से एक अधिसूचना की जरुरत है.


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एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) तैयार करने के क्रम में लोगों के सत्यापन की प्रक्रिया पूरी होते ही सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) अपना खेल दिखाने के लिए मैदान में आ जमेगा. जो गैर-मुस्लिम एनआरसी के दौरान नागरिकता की सूची में दाखिल होने से वंचित रह गये थे उन्हें मौका हासिल होगा — वे अपने को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आया बताकर नागरिकता की सूची में दाखिल करवा लेंगे. लेकिन यही सौभाग्य मुस्लिम को हासिल नहीं हो पायेगा.

बीजेपी को उम्मीद है कि 2021 में असम और बंगाल में जिस वक्त चुनावों का रंगमंच सजने जा रहा है, ठीक उस वक्त तक ये प्रक्रिया पूरी हो जाये. बीजेपी वैसे भी चाहती है कि एनआरसी का काम 2024 तक समाप्त हो जाये और लोकसभा का चुनाव भी निबट जाये. सो, एनपीआर को शुरु होने से रोकना बीजेपी के विभाजनकारी सियासी अजेंडे को परवान चढ़ने से रोकने की दिशा में उठा पहला कदम होगा.

ये राजनीतिक लड़ाई पहले कानून और संविधान के मैदान में लड़ी जायेगी. मोदी सरकार ने अपनी तरफ से पहली चाल खेलते हुए एनपीआर के काम को हर दस साल पर होने वाली जनगणना के काम के साथ नत्थी कर दिया है. सरकार का दांव बड़ा साफ है. चूंकि कोई राज्य सरकार जनगणना के काम से इनकार नहीं कर सकती सो उसे बाध्य होकर एनपीआर के काम के लिए भी हां कहनी होगी. तबतक के लिए केंद्र सरकार एनआरसी पर चुप्पी साधे रहेगी.

एक बार एनपीआर काम पूरा हो जायेगा तो सरकार अदयतन (अप-डेट) किये गये एनपीआर की अधिसूचना जारी कर देगी और यही अपडेटेड किया हुआ एनपीआर एक तरह से एनआरसी के मसौदे का काम करेगा. जो राज्य सरकार एनपीआर के काम से इनकार करेगी उसपर जनगणना के काम को रोकने का आरोप मढ़ा जायेगा और धमकाया जायेगा कि सूबे में धारा 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जायेगा.

क्या था 2010 का संस्करण

राज्यों में कायम गैर-बीजेपी खेमे की पार्टियों की सरकार तथा सीएए-विरोधी आंदोलन सरकार के इस चतुराई भरे दांव की काट में क्या करे ? अभी तक हमने इस सिलसिले में दो तरह की प्रतिक्रिया देखी है- एक तो अवज्ञा की और दूसरी गतिरोधन की. बिहार, आंध्रप्रदेश तथा राजस्थान जैसे राज्यों की सरकार एनपीआर का विरोध नहीं कर रही लेकिन इन सरकारों ने ये जरुर कहा है कि उन्हें एनपीआर का 2010 वाला संस्करण स्वीकार है, मौजूदा संस्करण नहीं. इन राज्यों की सरकारों ने मौजूदा एनपीआर में डाले गये छह अतिरिक्त प्रश्नों पर आपत्ति जतायी है : माता-पिता का जन्मस्थान तथा जन्मतिथि, आधार नंबर (स्वैच्छिक), ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड तथा पासपोर्ट. बिहार सरकार ने एनपीआर के 2010 वाले फार्मूले को स्वीकार कर लिया है और उसके इस स्वीकार में बीजेपी का भी सहयोग रहा है. इससे एक संकेत तो यही मिलता है कि केंद्र सरकार 2010 वाले फार्मूले को सुलह-समझौते की एक राह के तौर पर देख रही है.


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लेकिन सुलह-समझौते की इस राह के साथ एक दिक्कत ये है कि इससे एनआरसी की राह रुकती नहीं और शायद एक वजह यह भी है जो बीजेपी को ‘सुलह’ का ये रास्ता स्वीकार करने लायक लग रहा है . सरकार 2010 वाले प्रपत्र (प्रोफार्मा) का इस्तेमाल करते हुए एनपीआर को अद्यतन बनाने का काम कर लेगी और फिर इसके आंकड़े का उपयोग ‘संदेहास्पद’ नागरिकों के पहचान के लिए करेगी.

अगर राज्य-सरकारें अपने नागरिकों को भेदभाव और आपसी बंटवारे की इस कवायद से बचाना चाहती हैं तो उन्हें ‘2010 वाले फार्मूले’ में यह शर्त जोड़नी होगी : केंद्र सरकार एक औपचारिक अधिसूचना के जरिये सुनिश्चित करे कि एनपीआर के डेटा का इस्तेमाल किसी भी भांति एनआरसी में नहीं होगा चाहे वो संदेहास्पद नागरिकों की पहचान का काम हो या उनके सत्यापन का या फिर कोई और काम. केंद्र सरकार की सियासी डिजाइन को देखते हुए लगता तो यही है कि सरकार इस बात के लिए राजी नहीं होगी.

दूसरा रास्ता सीधे-सीधे इनकार कर देने का है और ये रास्ता अभी तक केरल तथा बंगाल की सरकार ने अख्तियार किया है. इन राज्यों में सरकार ने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया है कि वे एनपीआर का काम ना करें. इन दो राज्यों में सरकार ने कर्मचारियों को अगर ऐसा आदेश दिया है तो इसमें भी संविधान-सम्मत कोई ना कोई तुक है ही. बहुत संभव है, सरकार जनगणना के आंकड़ों की शुद्धता बनाये रखने और एनपीआर के आंकड़ों के साथ घालमेल की स्थिति में आंकड़ों की गोपनीयता को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए काम कर रही हो. ये तर्क भी दिया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल और केरल की सरकार का अपने कर्मचारियों को आदेश पुट्टास्वामी मामले में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले की संगति में है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आधार के डेटाबेस को किसी भी अन्य डेटाबेस जैसे एनपीआर आदि से ना जोड़ा जाय.

कोई राज्य सरकार ये भी कह सकती है एनपीआर के नियमों पर अमल ना करना उसके दायित्व में शामिल हैं क्योंकि ये नियम 2003 में बने थे और तब तक नागरिकता अधिनियम में संशोधन नहीं हुआ था, नागरिकता अधिनियम में संशोधन 2004 में हुआ. बेशक, अगर इन तर्कों के सहारे कोई राज्य सरकार एनपीआर के काम को अमल में लाने से इनकार करती है तो संवैधानिक आधार पर ये नहीं कहा जा सकता कि प्रांत की सरकार राजकाज के मामले में असफल हो गई है और इस कारण सरकार को बर्खास्त करके वहां धारा 356 के मुताबिक राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाये. बहरहाल, समस्या ये है कि केंद्र सरकार ने बहाने से राज्य सरकार को अपदस्थ कर दिया तो फिर राज्य सरकार के इन तर्कों को कौन सुनेगा ? सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 के हटने के बाद जो रुख दिखाया है वह विश्वास जगाता तो नहीं लगता.

डिलिंक-डिफर-डिफ्यूज

एक तीसरा रास्ता है. साल 2010 के फार्मूले को मानकर सुलह का अप्रभावी रास्ता अपनाने या फिर सीधे-सीधे इनकार की जोखिम भरी राह अख्तियार करने की जगह राज्य सरकारें ‘डिलिंक-डिफर-डिफ्यूज’ का रास्ता अपना सकती है. राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अद्यतन करने के काम से किसी राज्य सरकार को इनकार करने की जरुरत नहीं. लेकिन राज्य सरकार को जोर देकर कहना होगा कि कुछ एहतियाती कदम उठाये जायें ताकि जनगणना के काम की पवित्रता की बनी रहे और राज्य सरकार के वैधानिक दायित्व की भी अवज्ञा ना हो. पहली बात तो यह कि जनगणना के काम को एनपीआर को अद्यतन बनाने के काम से अलगाना राज्य सरकार के अधिकार के दायरे में है.

राज्य सरकार इसके लिए आदेश जारी कर सकती है, किसी मौजूदा आदेश में संशोधन कर सकती है और जनगणना के काम के लिए परिवारों की सूची बनाने तथा उनके आंकड़े एकत्र करने की तारीख सुनिश्चित करती अधिसूचना जारी कर सकती है. जनगणना के काम के लिए परिवारों की सूची बनाने का काम पूरा हो जाने के बाद राज्य की सरकार दूसरा कदम उठाते हुए एनपीआर के लिए आंकड़े एकत्र करने के लिए फिर से नयी तारीख की अधिसूचना जारी कर सकती है.


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ऐसा मार्च 2021 में करना ठीक होगा क्योंकि तबतक जनगणना के लिए आंकड़े एकत्र करने का काम पूरा हो चुका होगा. तीसरी बात, एनपीआर के लिए काम करने की बात आये तो राज्य सरकार कह सकती है कि वो इसमें शिक्षकों से काम नहीं लेगी क्योंकि शिक्षा का अधिकार कानून में कहा गया है कि शिक्षकों से जनगणना तथा चुनाव-कार्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी शिक्षणेतर काम नहीं लिया जा सकता.

राज्य सरकार के लिए ये सुनिश्चित करना जरुरी होगा कि वो जब एनपीआर के काम पर शिक्षकेतर कर्मचारियों को लगाये तो इससे सरकार के रोजमर्रा के काम में बाधा ना पहुंचे तथा इन कर्मचारियों को गैर जरुरी जोखिम ना उठाना पड़े. इस सिलसिले की आखिर की बात ये कि एनपीआर के बहिष्कार की कोई बड़े पैमाने की अहिंसक कोशिश होती है राज्य सरकार ऐसे लोकतांत्रिक प्रतिरोध को आपराधिक ना करार देने का भी फैसला ले सकती है.

इस तीसरे रास्ते में राज्य सरकारों तथा केंद्र सरकार के बीच टकराव की नौबत नहीं आयेगी. इससे राज्य सरकार को अपदस्थ करने जैसी सूरत पैदा नहीं होगी. एनपीआर के अद्यतन आंकड़ों के सहारे एनआरसी के उद्देश्यों को साधने की जो सियासी चाल सोची गई है, बहुत संभव है, तीसरा रास्ता अपनाने से वो चाल भी नाकाम हो जाये. देश की आत्मा को बचाने की लड़ाई की शुरुआत हम ऐसी छोटी-छोटी जीत से कर सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिककरें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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