बीजेपी ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष के. लक्ष्मण ने द प्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि केंद्र सरकार के लिए जाति जनगणना कराना संभव नहीं है लेकिन राज्यों के लिए जातियों का सर्वेक्षण कराने पर कोई रोक नहीं है. इसलिए राज्य सरकारें अपना सर्वे करके नीतियों को लागू कर सकती हैं. लक्ष्मण पहले तेलंगाना बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे. उन्होंने कहा कि केंद्र के स्तर पर जाति जनगणना कराने के लिए काफी रिसर्च और आम सहमति की जरूरत है. अगर राज्य अपना सर्वे कर लेते हैं, तो बात आगे बढ़ सकती है.
ये कहकर लक्ष्मण ने जाति गणना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी है.
लेकिन वे अकेले नेता नहीं हैं, जो ये कह रहे हैं कि जाति आधारित गिनती राज्य सरकार करा सकती है. दरअसल कई राज्य जाति आधारित सर्वे की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं. राजनीतिक हलके में भी इस विचार को समर्थन मिल रहा है.
– कर्नाटक देश का पहला राज्य है, जहां 1931 के बाद जाति आधारित गणना हुई है. कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014 में एक आदेश जारी करके कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग को सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक सर्वेक्षण करने का दायित्व सौंपा. आयोग ने सर्वे करके रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप भी दी. इसके कुछ हिस्से मीडिया तक पहुंच गए और विवाद खड़ा होने के बाद से ये रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई.
– छत्तीसगढ़ सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग और EWS का सर्वेक्षण करा रही है. इसके लिए छत्तीसगढ़ ने अलग से छत्तीसगढ़ क्वांटीफायबल डेटा आयोग (सीक्यूडीसी) का गठन किया है. इस सर्वेक्षण की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि ओबीसी को राज्य सरकार की नौकरियों में 27% आरक्षण देने के राज्य सरकार के फैसले पर रोक लगाते हुए छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने सरकार से इस आरक्षण का आधार पूछ लिया.
– इस बीच, महाराष्ट्र पिछड़ा वर्ग आयोग (एमएससीबीसी) ने भी, विधानसभा में इस संबंध में प्रस्ताव पारित होने के बाद, राज्य में सामाजिक आर्थिक और जाति गणना की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने डेटा न होने का आधार बताकर मराठा रिजर्वेशन पर रोक लगा दी. इसके अलावा आदिवासी बहुल जिलों में ओबीसी आरक्षण पर भी कोर्ट की रोक लगी हुई है. आंकड़ों की जरूरत वहां भी है. मराठा आरक्षण के सिलसिले में महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार से सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना, 2011 की रिपोर्ट जारी करने की मांग की थी. लेकिन केंद्र सरकार ने उन आंकड़ों को भरोसे योग्य नहीं माना और उन्हें जारी करने से इनकार कर दिया.
– ओडिशा में भी राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए सर्वे कर रहा है. कई और राज्य भी ऐसा करने की तैयारी में हैं. वहीं केरल सरकार सवर्ण जातियों में गरीबों का आंकड़ा जुटाने के लिए सर्वेक्षण करवा रही है.
– बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐसे संकेत दिए हैं कि अगर केंद्र सरकार जाति जनगणना नहीं कराती है, तो राज्य सरकार अपने स्तर पर सर्वे करवा सकती है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी कहा है कि अगर उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आती है, तो राज्य स्तर पर जाति गणना कराई जाएगी.
किसी को ऐसा लग सकता है कि केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना कराने से इनकार कर दिए जाने के बाद जो गतिरोध पैदा हो गया था, उसका समाधान निकल आया है, क्योंकि राज्य सरकारों के सर्वे से भी तो आंकड़े निकल ही आएंगे. लेकिन मेरा तर्क है कि राज्य जाति की ही नहीं, किसी भी तरह की जनगणना नहीं करा सकते. संविधान और कानून इसकी इजाजत नहीं देते कि कोई राज्य जनगणना कराए. राज्य सर्वे करा सकते हैं, लेकिन सर्वे की वह ताकत या कानूनी हैसियत नहीं होती, जो जनगणना की होती है. सर्वे और जनगणना के अंतर को मुख्य रूप से तीन बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है.
एक, किसी को ऐसा लग सकता है कि जनगणना आखिरकार लोगों की गिनती ही तो है, क्या फर्क पड़ता है कि इसे राज्य करा रहा है या केंद्र. लेकिन संविधान निर्माताओं ने इसे इतना साधारण मामला नहीं माना. अपने तमाम अनुभवों और भविष्य की संभावनाओं और आशंकाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने जनगणना के मामले को पूरी तरह से केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार में रखा. ये विषय संविधान की 7वीं अनुसूची में केंद्र की लिस्ट में है.
यानी राज्य न तो जनगणना के बारे में कोई कानून बना सकते हैं और न ही इस दिशा में कोई कदम उठा सकते हैं या केंद्र के किसी कदम को रोक सकते हैं. इस लिस्ट में अन्य विषयों में रक्षा, विदेश मामले, युद्ध और शांति, परमाणु ऊर्जा, डाक और टेलीग्राफ आदि शामिल है.
जब तक जनगणना केंद्र की लिस्ट में है और केंद्र सरकार संविधान में संशोधन करके या कोर्ट के किसी आदेश से ये स्थिति नहीं बदलती, तब तक राज्य सरकारें जनगणना नहीं करा सकतीं. राज्यों के सर्वे को मिलाकर जो बनेगा, उसे जनगणना नहीं कहा जा सकता.
दूसरी बात. भारत में जनगणना का इतिहास लगभग 130 साल पुराना है. आजादी के बाद जनगणना के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए जनगणना कानून, 1948 बनाया गया. ये केंद्र सरकार का कानून है और इसके तहत प्रावधान है कि जनगणना की घोषणा केंद्र सरकार गजट के जरिए करेगी. इस कानून के रहते हुए कोई राज्य सरकार जनगणना का घोषणा नहीं कर सकती. इस कानून को भी संसद में पारित किसी कानून या फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही बदला जा सकता है.
इस कानून की वजह से न सिर्फ जनगणना को, बल्कि जनगणना की प्रक्रिया को भी कानून की ताकत मिल जाती है. इस कानून की वजह से, जिन सरकारी कर्मचारियों को जनगणना के कार्य में लगाया जाता है, उनके लिए अनिवार्य होता है कि वे अपने कर्तव्य का पालन करें. वे किसी की दी हुई जानकारी को गलत तरीके से नहीं लिख सकते. जनगणना फॉर्म में वे किसी जानकारी को मिटा नहीं सकते. ऐसा करने पर दंड का प्रावधान है, जिसमें जुर्माना और जेल दोनों शामिल है. यही नहीं, नागरिकों के लिए भी ये आवश्यक है कि वे सही जानकारी ही जनगणना कर्मी को दें. जानबूझ कर गलत जानकारी देने वाले को भी सजा दी जा सकती है.
दूसरी ओर, राज्य सरकारों के सर्वे को ऐसा कोई कानूनी संरक्षण नहीं है. इसलिए सर्वे में गलतियां रह जाने की आशंका बहुत ज्यादा है. 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति गणना को भी जनगणना कानून के तहत नहीं कराया गया था और इसलिए उसमें लाखों गलतियां सामने आने की बात केंद्र सरकार ने कही है. जनगणना में ऐसा खतरा नहीं होता.
तीसरी बात. जनगणना कराना और आंकड़ों का संयोजन एक जटिल और विशेषज्ञता वाला काम है. इस कार्य को भारत के जनगणना आयुक्त करते हैं, जो गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली संस्था है. इसे जनगणना कराने का लंबा अनुभव है और मालूम है कि गलतियां कहां हो सकती हैं. राज्यों के पास ऐसी संस्था नहीं है. इस अनुभव के बिना होने वाले सर्वे में त्रुटियों की आशंका हमेशा बनी रहेगी.
कर्नाटक राज्य में जाति गणना का काम जिस तरह विवादों में घिर गया, उसका भी सबक है कि राज्यों के जिम्मे इस काम को न छोड़ा जाए. ये न सिर्फ पैसों की बर्बादी होगी, बल्कि इससे तमाम विवाद शुरू हो जाएंगे. जनगणना में जाति की गिनती करने के लिए केंद्र सरकार ही सक्षम है और ये काम जनगणना कानून के तहत जनगणना कमिश्नर ही करा सकते हैं.
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