आप जानना चाहते हैं कि आपके टैक्स का पैसा कहां जाता है? तो, सुनिए. इस हफ्ते नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा में बताया कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जबसे सत्ता में आई है, उसने विज्ञापनों पर 6,491.56 करोड़ रु. खर्च किए. उसमें 3,260.79 करोड़ रु. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और 3,230.77 करोड़ रु. प्रिंट मीडिया में विज्ञापन पर खर्च किए गए. मेरा इरादा इस खर्च के लिए सिर्फ बीजेपी पर ही निशाना साधने का नहीं है. प्रति व्यक्ति के आधार पर कई गैर-बीजेपी सरकारें भी विज्ञापनों पर भारी पैसा खर्च कर रही हैं. फिर, विज्ञापनों पर सैकड़ों करोड़ रु. खर्च करने वाली केंद्र में यह पहली सरकार नहीं है. इसके अलावा, साल-दर-साल आधार पर केंद्र में हाल के वर्षों में यह खर्च घटता गया है.
हालांकि, राज्य सरकारें इस होड़ में आगे ही बढ़ती जा रही हैं. दिल्ली में हर कोई जानता है कि कई साल तक अरविंद केजरीवाल शहर के सबसे बड़े टीवी स्टार रहे हैं. यहां तक कि जब स्टारडम के लिए पैसे खर्चने पर कानूनी पचड़े थे, तब भी महान शख्सियत का टीवी दर्शन जारी था, कुछ में तो सिर्फ उनकी पीठ दिखाई देती. शहर के टीवी दर्शकों के लिए वे इतने जाने-पहचाने हो गए थे कि शायद कुछ लोगों को उन्हें पीछे से देखना भी अच्छा लगता था.
इस साल की शुरुआत में एक आरटीआई (सूचना का अधिकार अधिनियम) के जवाब से पता चला कि दिल्ली सरकार ने वित्त वर्ष 2021-22 में विज्ञापन पर 488.97 करोड़ रु. खर्च किए. उसमें से 125 करोड़ रु. तो अश्चर्यजनक रूप से एक महीने (मार्च) में ही खर्च किए गए. जाहिर है, उन्हें खुद के प्रचार के लिए जनता के पैसे को खर्च करने में मजा आता है.
क्या सरकारी विज्ञापन सार्वजनिक उद्देश्य पूरा करते हैं?
मैंने केंद्र और दिल्ली की मिसालें दीं क्योंकि मैं राजधानी में रहता हूं और अपनी आंखों से इस खर्च को देखता हूं. लेकिन लगभग हर दूसरे राज्य का यही हाल है. जनता के करोड़ों रु. सिर्फ मुख्यमंत्री के चेहरे वाले होर्डिंग्स पर खर्च किए जाते हैं, और करदाताओं के धन का इस्तेमाल अखबारों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन (कभी-कभी पहले पन्ने पर भी) खरीदने के लिए किया जाता है.
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अक्सर, इन विज्ञापनों का कोई सार्वजनिक उद्देश्य नहीं होता है. कांग्रेस शासित राज्य सरकार राजीव गांधी की जयंती पर दूसरे राज्यों में विज्ञापनों पर करोड़ों खर्च कर देगी. जब जे. जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री थीं, तो लगभग हर होर्डिंग और अखबार के विज्ञापन में उनका चेहरा चस्पा होता था.
ईमानदारी की बात तो यह है कि इनमें कुछ सार्वजनिक उद्देश्य से भी जुड़े होते हैं. अगर कोई सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य के मद में विज्ञापन पर पैसा खर्च करती है (जैसा केंद्र ने कोविड-19 महामारी के दौरान किया था), तो मैं समझ सकता हूं. और हां, केंद्र और राज्यों में सूचना विभागों की भी अमूमन यह ड्यूटी होती है कि सार्वजनिक सेवाओं का संदेश देने के विज्ञापन जारी करें (हालांकि सार्वजनिक सेवा के संदेश से जुड़े विज्ञापनों में मंत्रियों की तस्वीरें लगाना क्यों जरूरी है, यह बात समझ से बाहर है).
मेरा सरोकार उन गैर-जरूरी विज्ञापनों से है, जो मोटे तौर पर किसी नेता की व्यक्तिगत छवि में इजाफे के लिए किया जाता है. आपने देखा होगा कि किसी चुनाव से ठीक पहले, राज्य के नेताओं की तस्वीरों वाले या सरकार की उपलब्धियों की शेखी बघारने वाले विज्ञापन लगभग रोजना दिखाई देने लगते हैं. आम तौर पर आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले ये विज्ञापन बंद हो जाते हैं, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सत्ताधारी पार्टी ने हमारे पैसे का इस्तेमाल अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए किया.
कैसे राज्य सरकारें भारी विज्ञापन बजट को जायज ठहराती हैं
कई राज्य सरकारें तरह-तरह की दलीलें देती हैं. एक आम दलील यह है, जो बेदम भी नहीं है कि केंद्र हर जगह प्रधानमंत्री और मंत्रियों की तस्वीरों का इस्तेमाल करता है, और सरकार-नियंत्रित मीडिया केंद्र की उपलब्धियों का प्रचार करता है. मसलन, कुछ दिन पहले राजस्थान के हवाई अड्डे पर था, और उड़ान का वक्त बताने वाले स्क्रीन पर बीच-बीच में भारत को जी-20 की अध्यक्षता से संबंधित विजुअल आ-जा रहे थे, उस उपलब्धि का गुणगान तो था मगर यात्री जिस सूचना के लिए टकटकी लगाए थे, वही नदारद थी.
राज्य सरकारें केंद्र की उपलब्धियों के ऐसे प्रचार का हवाला देकर अपने भारी विज्ञापन बजट को जायज ठहराती हैं. उनकी दलील है कि अगर हम अपना विज्ञापन नहीं करेंगे तो असंभावित जगहों पर भी सरकारी मीडिया के इस हल्ले से कैसे मुकाबला करेंगे?
दूसरी दलील यह है कि मुख्यधारा का मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों) सत्तारूढ़ पार्टी की जेब में है और सरकार के पक्ष में इस कदर झुका हुआ है कि कोई गैर-बीजेपी पार्टी नियमित संपादकीय कवरेज में अपनी बात कहे जाने की उम्मीद ही नहीं कर सकती. लेकिन खासकर आम आदमी पार्टी (आप) के मामले में यह दलील पूरी तरह पुख्ता नहीं लगती, जिसके नेता पहले ही अनुकूल संपादकीय कवरेज और सनसनी के भूखे टीवी चैनलों पर छाकर राष्ट्रीय शख्सियत बन चुके हैं.
विज्ञापन चुनावी कामयाबी की गारंटी नहीं
क्या इससे मदद मिलती है? विज्ञापन पर सैकड़ों करोड़ रु. सार्वजनिक धन खर्च करके अगर राजनीतिक नेताओं को अपनी लोकप्रियता की गारंटी होती तो वे कभी चुनाव नहीं हारते. चाहे विज्ञापन पर जितना खर्च करें सत्तारूढ़ पार्टियां अमूमन चुनाव हार जाती हैं.
सबसे अच्छा उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का है. दरअसल उन्होंने ही खुद के प्रचार के लिए सार्वजनिक धन के इस्तेमाल का ट्रेंड शुरू किया. इमरजेंसी के दौरान हर शहर-कस्बे में होर्डिंग लगे थे, जिस पर वह बेमानी-सा नारा लिखा होता था कि ‘आपतकाल अनुशासन पर्व है.’ लेकिन इंदिरा गांधी को 1977 में बुरी हार मिली.
मेरा विचार यह है कि इन विज्ञापनों से मामूली फर्क भले पड़ता हो, सरकारों को यह दूसरी वजहों से पसंद आता है. कई मंत्रियों के लिए तो यह उनके अहंकार को तुष्ट करता है. दूसरों के लिए यह चापलूस वफादारी (‘हमारे महान नेता को बधाई…’) दिखाने का तरीका है.
फिर, यह मीडिया को दंडित करने का हथियार भी है. किसी प्रकाशन या टीवी चैनल की कमाई में सरकारी विज्ञापनों की बड़ी हिस्सेदारी होती है, इसलिए विज्ञापन हटा लेने से किसी भी मीडिया हाउस की जमीन खिसक सकती है.
दूसरी ओर ऐसे विज्ञापनों के जारी होने पर अखबारों को मुनाफा होता है. इसलिए वे शिकायत नहीं करते. वे यह नहीं बताते कि सिर्फ सर्वसत्तावादी व्यवस्था वाले देशों में ही नेता आपनी तस्वीर होर्डिंग में या अखबारों के पहले पन्ने पर सार्वजनिक धन से लगवाते हैं.
सच्चाई यही है कि ऐसे गैर-जरूरी विज्ञापनों से नेता से लेकर मुख्यधारा का मीडिया तक सभी के चेहरे खिल उठते हैं.
बेशक, उनसे हमारे चेहरे नहीं खिलते. हमारा पैसा वे लुटा रहे हैं. लेकिन हर नेता यही कर रहा है तो हम आम जन क्या कर सकते हैं, सिर्फ राजनीतिक प्रचार मशीन में अपने टैक्स के पैसे को गड़प होता चुपचाप देख सकते हैं?
(वीर संघवी प्रिंट और टीवी पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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(अनुवाद : हरिमोहन मिश्रा | संपादन : इन्द्रजीत)
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