scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतश्रीलंका संकट बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक नहीं, भ्रष्टाचार और राजपक्षे परिवार की लालच का नतीजा

श्रीलंका संकट बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक नहीं, भ्रष्टाचार और राजपक्षे परिवार की लालच का नतीजा

आरबीआई ने हाल में विदेशी मुद्रा प्रवाह को आसान करने के लिए रुपये में लेनदेन की व्यवस्था को उदार बनाया है. यह सुविधा श्रीलंका को मुहैया कराई जा सकती है.

Text Size:

श्रीलंका में राजपक्षा खानदान के लिए ऐसा बुरा वक्त कभी नहीं आया था. वे भाग रहे हैं. यहां तक कि उनके मालदीव पहुंचने और कथित तौर पर स्पीकर मुहम्मद नाशीद की उनकी आगवानी की खबर भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. खबरें ये भी हैं कि उनमें कुछ सिंगापुर पहुंच गए हैं. गोटाबाया राजपक्षा ने सिंगापुर पहुंचकर श्रीलंका के राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया. स्पीकर महिंदा यापा अभयवद्र्धने ने प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया है.

शरण लेने के लिए सिंगापुर का चुनाव महज संयोग नहीं हो सकता. ऐसी धारणा है कि चीन का सिंगापुर के सत्ता गलियारों में काफी दबदबा है. ताकतवर राजपक्षा भाइयों ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को व्यवहार में चीन की ‘परिसंपत्ति के लिए कर्ज’ की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया था. अब, संकट की घड़ी में शायद परिवार सिंगापुर में सुरक्षित महसूस कर रहा है क्योंकि कोलंबो में नई सरकार शर्तिया ‘युद्ध अपराध’ आयोग की तर्ज पर ‘आर्थिक अपराधों’ के लिए कार्रवाई शुरू करेगी.

सिंगापुर के प्रत्यर्पण कानून बेहद पेचीदा हैं और संबंधित देश को बड़ी व्यापक प्रक्रिया पर अमल करना होता है. इसके अलावा, प्रत्यर्पण कानून में अप्रैल में हुए संशोधन के मुताबिक, सिंगापुर से कोई देश भगोड़े की मांग करता है तो भगोड़े की सहमति भी ली जाएगी. दावा है कि ये संशोधन सिंगापुर की प्रत्यर्पण व्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए किए गए हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय सहयोग और व्यक्तिगत आजादी में संतुलन कायम किया जा सके. 2019 में श्रीलंका ने पूर्व केंद्रीय बैंक गवर्नर अर्जुन महेंद्रन को इंसाइडर ट्रेडिंग के मामले में जांच के सिलसिले में सिंगापुर से उनके प्रत्यर्पण की मांग की. लेकिन सिंगापुर राजी नहीं हुआ. पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेना ने सिंगापुर पर श्रीलंका में जन्मे महेंद्रन के प्रत्यर्पण में मदद न करने का आरोप लगाया. महेंद्रन सिंगापुर इस वादे के साथ गए थे कि वे मुकदमे की सुनवाई के दौरान लौट आएंगे.

राजपक्षा की सुरक्षा का मामला

साख गंवा चुके नेताओं के महलनुमा आवासों पर धावा बोलने वाली भीड़ ने बार-बार मांग की कि रनिल विक्रमसिंघे भी गद्दी छोड़ें. श्रीलंका का संविधान किसी एक व्यक्ति को सरकार में दो सर्वोच्च पदों पर रहने की इजाजत नहीं देता. लेकिन कोलंबो में भारी उलझन की स्थिति के मद्देनजर शायद ही किसी को संवैधानिक मर्यादाओं की फिक्र हो. राष्ट्रपति के महल में भीड़ ने कब्जा जमा लिया. वहां की संसद और राजपक्षा कुनबे के दूसरे सदस्यों के घर भी असुरक्षित हैं या तोडफ़ोड़ दिए गए हैं. हफ्ते भर में नए राष्ट्रपति के चुनाव की कोशिशें जारी हैं. सत्तारूढ़ एलिट के खिलाफ अचानक उमड़ी भीड़ अप्रत्याशित नहीं थी. कुछ समय से सत्तारूढ़ पार्टी और प्रथम परिवार के खिलाफ गुस्सा घुमड़ रहा था. आर्थिक तकलीफें बढ़ीं और दुकानें और किराना की दुकानें खाली दिखने लगीं तो भीड़ का गुस्सा स्वाभाविक तौर पर सत्ता की कुर्सी पर उमड़ा.

कोलंबो में सभी पार्टियों की मिलीजुली सरकार के साथ एक नए राष्ट्रपति की तो तत्काल जरूरत है लेकिन बेहद गंभीर तथा गहरी जड़ें जमाई समस्या पर भी राहत की रूई रखना जरूरी है. भीड़ से कहना होगा कि लौट जाए और लोकतांत्रिक तथा संवैधानिक प्रक्रिया को आगे बढऩे दे. फिलहाल तो प्रदर्शनकारी अपना फैसला खुद लेते दिख रहे हैं. लेकिन नई व्यवस्था को फौरन सक्रिय होना होगा, ताकि राष्ट्र-विरोधी तत्व सामान्य स्थिति बहाल करने की प्रक्रिया में खलल डालने के लिए भीड़ का इस्तेमाल करें. कहने की जरूरत नहीं कि अगर नई व्यवस्था को लोगों का भरोसा जीतना चाहती है तो उसे राजपक्षा कुनबे को वाजिब ढंग से दूर रखना होगा.


यह भी पढ़ें: गोटाबाया राजपक्षे से एक बार कहा गया था—‘श्रीलंका को हिटलर की तरह चलाओ’, अब वह खुद फरार हैं


ताकतवर परिवारों की ताकत का खात्मा

श्रीलंका में ताकतवर परिवार और उनके वंशजों का हमेशा ठोस राजनैतिक असर रहा था और करीब 70 साल से उनके हाथ में सत्ता रही है. इन ‘राजनैतिक परिवारों’ ने सत्ता हथियाने के लिए बड़ी चालाकी से लोकतांत्रिक संस्थाओं और राष्ट्रीय एकता में लोगों की अमिट आस्था का इस्तेमाल किया है. इस तरह भ्रष्ट और तानाशाही सत्ता कायम की है. दुनिया भर के लोकतंत्रों में ऐसी मिसालें हैं कि कठोर और ताकतवर नेताओं ने गंभीर चुनौतियों आने पर देश को विजय दिलाई है और बाद में वे तानाशाह बन गए. द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत के बाद मई 1945 में विंस्टन चर्चिल की लोकप्रियता की दर 83 फीसदी तक पहुंच गई थी. दो महीने बाद ही उनकी पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा. युद्ध से डरे वोटर एक नए नेता चाहते थे, जो शांति और समृद्धि बहाल करे और युद्ध की ओर न जाए तथा लोगों को खर्च पर काबू रखने को कहे. इसी तरह, पाकिस्तान पर रणनीतिक विजय और बांग्लादेश की मुक्ति के बाद इंदिरा गांधी से उम्मीद थी कि वे ‘गरीबी हटाओ’ नारे को साकार करें. लेकिन वे पार्टी में आंतरिक बगावत पर काबू पाने और अपनी अपराजेयता को मजबूत करने में जुट गईं. उसका नतीजा आंतरिक इमरजेंसी के ऐलान के रूप में आया और आखिरकार 1977 में बुरी तरह हार गईं.

श्रीलंका में खंूखार एलटीटीई को निपटाने से मिली लोकप्रियता राजपक्षा परिवार को भारी भ्रष्टाचार, तानाशाही प्रवृत्ति और आर्थिक गड़बड़झाले से छुटकारा नहीं दिला पाई.

संकट के पीछे असली मुद्दे

श्रीलंका पर तकरीब 35 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज की देनदारी है, शायद यह दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है. पिछले दो दशकों में कोलंबो को चीन से करीब 12 अरब डॉलर का इन्फ्रास्ट्रक्चर कर्ज मिला है. हालांकि इन सभी परियोजनाओं में निवेश पर कमाई (आरओआइ) शुन्य या बेहद थोड़ी है. भुगतान की तिथियां बीतने लगीं तो श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय बॉन्ड जारी करना शुरू किया, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था पर और कर्ज चढ़ता गया.

नई दिल्ली को मौजूदा अराजक व्यवस्था के बावजूद अपने इन्फ्रास्ट्रक् चर परियोजनाओं पर तेजी से कदम बढ़ाना होगा. इनमें कंटेनर टर्मिनल, त्रिंकोमाली में एनटीपीसी की सौर ऊर्जा परियोजना और कई दूसरी परियोजनाएं हैं. आरबीआइ ने हाल में विदेशी मुद्रा विनिमय को असान करने के लिए रुपये में लेनदेन की व्यवस्था को उदार बनाया है. यह सुविधा श्रीलंका को दोनों देशों के केंद्रीय बैंकों के बीच किसी विशेष व्यवस्था के तहत मुहैया कराया जा सकता है. चालू खाते में भारी घटा झेल रहे कोलंबो भारतीय रुपये में लेनदेन करके आयात से संबंधित विदेशी मुद्रा के खर्च को बचा सकता है.
श्रीलंका में मौजूदा संकट काफी बड़ा है, जिसके साए लंबे समय छाए रहेंगे. इसका सामाजिक तनाव और/या बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मुद्दों से कोई लेनादेना नहीं है, जैसा कि विश्लेषकों का एक वर्ग बताने की कोशिश कर रहा है. यह संकट राजपक्षा परिवार की फिजूलखर्ची, भ्रष्टाचार और लालच का नतीजा है. अगर कड़े वित्तीय उपाय अपनाए जाएं तो संकट के आर्थिक पक्ष को सुलझाया जा सकता है.

नई दिल्ली को आवश्यक बस्तुओं की सप्लाई बेरोकटोक जारी रखनी चाहिए, ताकि भीड़ पर काबू पाया जा सके और लोग सडक़ों पर न उतरें. इससे नई राजनैतिक व्यवस्था को स्थिरता कायम करने और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी.

(लेखक ‘आर्गेनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: राजपक्षे को मदद करने की सुब्रह्मण्यम स्वामी की अपील हमारे हित में नहीं, श्रीलंका के लोगों का साथ दें


 

share & View comments