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Thursday, 31 October, 2024
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सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस का क्या काम?

कांग्रेस से हाथ मिलाना सपा और बसपा के लिए गलत रणनीति है क्योंकि कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में अपना कोई वोट बैंक नहीं है.

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समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में गैर-भाजपा गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करने का संकेत देकर कांग्रेस और महागठबंधन के पैरोकारों को परेशान कर दिया है.

हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के चुनावों में से मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों से उत्साहित कांग्रेस अब मानकर चल रही है कि राहुल गांधी एक मजबूत विपक्षी नेता के रूप में स्थापित हो गए हैं. ऐसे में अखिलेश का बदलता रुख कांग्रेस की बेचैनी को बढ़ा रहा है. बहुजन समाज पार्टी की चुप्पी भी कांग्रेस के लिए परेशानी का कारण है.

समाजवादी पार्टी में कांग्रेस को लेकर पहले से नाराजगी रही है जिसका कारण यह है कि विधानसभा चुनावों में पारिवारिक झगड़े में फंसे अखिलेश यादव से कांग्रेस ने 103 सीटें झटक ली थीं, जबकि पिछले चुनाव में पहले और दूसरे नंबर पर रही सीटों के हिसाब से उसका दावा करीब 40 सीटों का ही बनता था.

समाजवादी पार्टी को ये भी बात नागवार गुजरी है कि कांग्रेस से तालमेल करने पर भी कांग्रेस समर्थकों का वोट उसे नहीं मिला क्योंकि मोटे तौर पर कांग्रेस अब भी इलीट वर्ग की ही पार्टी है जो कांग्रेस का उम्मीदवार न होने पर वह सपा या बसपा के बजाय भाजपा को वोट देना ज्यादा उचित मानता है.


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अखिलेश यादव को भले ही यह बात देर से समझ आई हो लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थक अपने-अपने तरीके से ये बात लगातार कहते आ रहे थे जिसका असर आखिरकार अखिलेश पर भी पड़ा.

सच्चाई तो यह है कि अखिलेश यादव से इस बात का भी आग्रह किया जा रहा है कि वो जब कांग्रेस से तालमेल नहीं ही कर रहे हैं तो अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीटों पर भी अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा कर देनी चाहिए, जहां से क्रमश: राहुल गांधी और सोनिया गांधी चुनाव लड़ते हैं.

दूसरी तरफ, कांग्रेस है जो यूपी में सपा-बसपा से गठबंधन का मतलब कम से कम 15 से 20 सीटें लेना मानती है. ये किसी संभावित बातचीत का शुरुआती आंकड़ा है और हो सकता है, बातचीत होने की दशा में वह 10 तक आ जाए, लेकिन केवल 7 विधानसभा सीटों वाली कांग्रेस के लिए 10 लोकसभा सीटें छोड़ना भी कुछ ज्यादा ही है.

2014 के लोकसभा चुनावों में भी सपा के सहयोग से लड़ी अमेठी और रायबरेली की लोकसभा सीटों को मिलाकर कांग्रेस कुल 7 सीटों पर दूसरे नंबर थी. इन सात सीटों पर भी अगर सपा और बसपा के वोटों को मिला दें तब तो शायद ही कांग्रेस अमेठी और रायबरेली के अलावा कहीं मुख्य लड़ाई में दिखेगी.

गठबंधन में कांग्रेस के लिए जगह बनना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, दोनों बहुत बड़े खिलाड़ी हैं. तालमेल करना तो मजबूरी है, वरना इनमें से किसी के लिए भी तकरीबन आधी लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार हटा पाना बहुत चुनौती भरा काम है.


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जिन संभावित उम्मीदवारों की सीटें गठबंधन के दूसरे सहयोगी के खाते में जाएंगी, वो आसानी से खामोश नहीं बैठेंगे. उनके पास संकट से जूझ रही भाजपा तक में जाने का विकल्प तो है ही, साथ ही शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी भी है जो ऐसे सारे बागियों का खुले दिल से स्वागत करने के लिए बैठी है.

फिर भी लगता है कि कांग्रेस को अमेठी और रायबरेली की लोकसभा सीटें सपा और बसपा दे देंगी, लेकिन कांग्रेस इस रियायत को गठबंधन मानने को तैयार नहीं है. अपनी दोनों सीटें सपा और बसपा के सहयोग से लड़ने के बावजूद, वह बाकी यूपी में सपा और बसपा की आलोचना करने से नहीं चूकेगी.

यही कारण है कि सपा में बड़ा तबका ये चाहता है कि ये दो सीटें भी क्यों छोड़ी जाएं जबकि दोनों पर सपा का ही कब्जा बनता है. यहां तक कि राज्य विधानसभा चुनावों में इन लोकसभा सीटों के दायरे में आने वाली विधानसभा सीटों पर कांग्रेस बहुत पीछे रहती है. 2012 में तो सारी सीटें कांग्रेस हार गई थी.

समाजवादी पार्टी को कहीं न कहीं ये भी लग रहा है कि कांग्रेस अपने बुरे वक्त से गुज़रते हुए भी छोटे दलों को खत्म करने या सीमित करने की नीति से नहीं हट पा रही है.


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हालांकि, ऐसी ही कोशिश कर्नाटक चुनावों में भी हुई थी, लेकिन जनता दल एस के नेता कुमारस्वामी डटे रहे और कांग्रेस की सीटें घटाकर, कांग्रेस के ही समर्थन से राज्य में सरकार बनाने में सफल रहे.

गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई सरकार के समर्थक कर्नाटक मॉडल से काफी उत्साहित हैं. ऐसी ही कुछ ऊर्जा उन्हें तेलंगाना से मिली है. पश्चिम बंगाल और ओडिशा भी ऐसे राज्य हैं जहां क्रमश: तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल कांग्रेस और भाजपा दोनों की मुश्किलें बढ़ाते हुए विधानसभा चुनावों में ही नहीं, लोकसभा चुनावों में भी बेहतर प्रदर्शन करते आ रहे हैं.

इस तरह से अखिलेश यादव और मायावती को 2019 की संभावित लोकसभा में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे सहयोगी मिलते दिख रहे हैं जो भाजपा को तो हटाना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस को भी प्रधानमंत्री पद देने से गुरेज करना चाहेंगे.

वास्तव में मायावती के लिए भी यह एक बेहतरीन मौका हो सकता है जब वे अन्य दलों के सहयोग से प्रधानमंत्री पद पा सकती हैं, लेकिन ऐसा कुछ होने के लिए ये जरूरी है कि कांग्रेस, भाजपा की सीटें तो घटाए लेकिन खुद कांग्रेस भी एक सीमा से ज्यादा आगे न बढ़े.

इधर, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भी सपा और बसपा से तालमेल न करके, और फिर मंत्रिमंडल में दोनों के विधायकों को शामिल न करके, ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि सपा और बसपा दोनों को ही कांग्रेस को किनारे करने का बहाना मिल गया.


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अखिलेश यादव को ये भी समझ में आ गया है कि कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करने से भी उन्हें कांग्रेस से कुछ मिलने वाला नहीं है, और अगर शामिल नहीं भी करते हैं तो भी कांग्रेस से उनके संबंध यथास्थिति में ही रहेंगे.

इसका कारण ये है कि किसी का बहुमत न होने की स्थिति में जब लोकसभा में संख्या बल जुटाने की बात आएगी तो इज्जत उन सारे दलों की होगी ही जिनके पास सीटें ज्यादा होंगी. कांग्रेस का विरोध करके भी अगर अखिलेश लोकसभा चुनावों में अच्छी-खासी सीटें जीत लेते हैं तो कांग्रेस सरकार बनाते समय उनकी अनदेखी नहीं कर पाएगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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