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Friday, 22 November, 2024
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UP में भाजपा की ‘प्रतिक्रांति’ से निपटना क्यों है अखिलेश यादव की सबसे बड़ी चुनौती

विधानसभा अध्यक्ष पद पर सतीश महाना के सर्वसम्मत चुनाव के बाद मुख्यमंत्री व प्रतिपक्ष के नेता के बधाई भाषणों की कटाक्षों के तीरों से इब्तिदा के मद्देनज़र समझना कठिन नहीं है कि प्रदेश की राजनीति में आगे का मौसम कैसा होगा.

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उत्तर प्रदेश में लगातार दूसरा विधानसभा चुनाव हारने के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) की भविष्य की चुनौतियां, न सिर्फ और कड़ी बल्कि बड़ी भी हो गई हैं. इस कारण और कि 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले ‘चाचा-भतीजे’ यानी शिवपाल यादव और अखिलेश यादव की जिस बहुप्रचारित अनबन ने पार्टी में कांग्रेस के गांधी परिवार जैसी हैसियत रखने वाले मुलायम परिवार के बिखराव की पटकथा लिखकर उसकी सत्ता से बेदखली में निर्णायक भूमिका निभाई, ताजा हार के बाद की नाउम्मीदी में उसने न सिर्फ फिर सिर उठा लिया है बल्कि पार्टी के निर्वाचित विधायकों की पहली बैठक से पहले ही ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः ’ (पहले ही निवाले में मक्खी गिर गई)- की स्थिति पैदा कर दी है.

दरअसल, 2018 में अलग प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना और 2019 के लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर सपा का खेल खराब कर चुके शिवपाल यादव ने लंबी जद्दोजहद के बाद इस विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश का नेतृत्व स्वीकार कर लिया और अपनी जसवंतनगर सीट से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते भी. लेकिन सपा ने यह कहते हुए उन्हें पार्टी विधायक दल की पहली बैठक में नहीं बुलाया कि वे तो उसकी सहयोगी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के विधायक हैं.

इससे खफा शिवपाल यादव ने बाद में उसके सहयोगी दलों की बैठक से भी किनारा कर लिया और पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव से अपना दुखड़ा रोने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मिल आये.

फिलहाल, उन्होंने ‘साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं ’ वाली मुद्रा अपना रखी है और कहना मुश्किल है कि मुलायम इस मामले में कोई दखल देंगे या नहीं लेकिन अतीत की रोशनी में देखें तो उनके दखल से भी मामले के सुलझने की उम्मीद बहुत कम है.

2017 में भी चाचा-भतीजे की अनबन खत्म कराने की उनकी कोशिशें रंग नहीं ही दिखा सकी थीं, जिसके बाद भाजपा की आंधी ने दोनों के ही मंसूबों को जमीन दिखा दी थी.


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क्या अपर्णा यादव का रास्ता अपनाएंगे शिवपाल यादव

पहले से अब तक उत्तर प्रदेश की नदियों में काफी पानी बह चुका है और मुलायम सिंह की दूसरी बहू अपर्णा यादव को अपने पाले में ले जाकर भाजपा फूली-फूली फिर रही है. ऐसे में शिवपाल ने भी अपर्णा यादव का ही रास्ता पकड़ लिया तो सपा में अखिलेश के एकछत्र राज को भले ही कोई नुकसान न हो, मुलायम परिवार में बड़ी सेंध के बहाने अपनी मनोवैज्ञानिक बढ़त को 2024 के लोकसभा चुनावों तक और मजबूत करने में भाजपा कुछ कोर कसर नहीं छोड़ेगी.

लेकिन इस तरह की संभावनाओं या ये कहें कि आशंकाओं से परे जाकर देखें तो ऐसा नहीं लगता कि अखिलेश ने अपने नेतृत्व में सपा की लगातार चार शिकस्तों से, जिनमें 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 व 2022 के विधानसभा चुनावों की हैं, कोई सबक नहीं सीखा या भविष्य की चुनौतियों के विरुद्ध लंबी लड़ाई की तैयारी नहीं कर रहे.

प्रेक्षकों की मानें तो करहल सीट से पहली बार विधायक चुने जाने के बाद आजमगढ़ लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व छोड़कर विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता बनने का उनका निश्चय इसी लंबी लड़ाई की ही तैयारी है, ताकि पार्टी की आधार भूमि उत्तर प्रदेश की जनता के सुख-दुख से जुड़े मुद्दों पर भाजपा की योगी सरकार को लगातार सीधे घेर सकें.

उनके इन इरादों की झलक योगी सरकार के हाथों सबसे ज्यादा उत्पीड़न झेलने और जेल में बंद रहकर विधायक चुने जाने वाले पार्टी के बेहद तेज तर्रार व वरिष्ठ अल्पसंख्यक नेता आजम खां को लोकसभा की रामपुर सीट से इस्तीफा दिलाने के मामले में भी देखी जा सकती है.

वैसे भी 2017 के 47 के मुकाबले इस बार सपा के सवा सौ विधायक चुने गये हैं और अपनी सीटों के घटाव से पीड़ित योगी सरकार के लिए इस बार विधानसभा में उसकी पहले जैसी आक्रामक उपेक्षा संभव नहीं होगी. इसलिए भी कि सपा विधायक अखिलेश की उपस्थिति से उत्साहित और आजम के संसदीय कौशल से लाभान्वित होंगे.


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सपा की आगे की राह आसान नहीं

विधानसभा अध्यक्ष पद पर सतीश महाना के सर्वसम्मत चुनाव के बाद मुख्यमंत्री व प्रतिपक्ष के नेता के बधाई भाषणों की कटाक्षों के तीरों से इब्तिदा के मद्देनज़र समझना कठिन नहीं है कि प्रदेश की राजनीति में आगे का मौसम कैसा होगा.

लेकिन नरेंद्र मोदी के ‘महानायकत्व’ से मनबढ़ भाजपा अटल बिहारी काल से ही प्रदेश में जैसी मैदानी राजनीति करती आ रही है, उसके आईने में देखें तो साफ है कि आगे सपा के लिए लड़ाई के नये मोर्चे विधानभवन के अंदर ही नहीं, उसके बाहर भी खुलेंगे. इस सिलसिले में उसके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने सहयोगी दलों को एकजुट रखने की होगी, क्योंकि भाजपा उन पर डोरे डालने में कुछ भी कमी नहीं रख रही.

जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल को तो उसने विधानसभा चुनाव के दौरान ही अपनी ओर कर लेने की भरपूर चालें चली थीं. उसमें बात नहीं बनी तो भी उसने हार नहीं मानी.

नतीजों के बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के नेता ओमप्रकाश राजभर को तोड़कर यह संदेश देने की कोशिश की कि सपा का गठबंधन भरोसेमंद नहीं है और उसका हाल कभी भी कांग्रेस व बसपा से उसके पुराने गठबंधनों जैसा हो सकता है. गौरतलब है कि उक्त दोनों गठबंधन चुनावों के फौरन बाद उनमें उसे मिली करारी शिकस्तों की भेंट चढ़ गये थे.

दूसरे पहलू पर जाएं तो अभी ओमप्रकाश राजभर थोड़ी दृढ़ता दिखा और पक्ष या निष्ठा बदलने से इनकार कर रहे हैं और बीते मंगलवार को सपा मुख्यालय पर सहयोगी दलों की बैठक में, जिसमें उनके अलावा जनवादी पार्टी से डॉ. संजय चौहान, महान दल से केशवदेव मौर्या, राष्ट्रीय लोकदल से राजपाल बालियान और अपना दल कमेरावादी से पंकज निरंजन शामिल हुए. 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से लग जाने और उन्हें कहीं ज्यादा मजबूती व एकजुटता से लड़ने का इरादा जताया गया है.

ऐसा संभव हो पाया तो सपा की भी संभावनाएं उजली होंगी ओर इन दलों की भी क्योंकि तब प्रदेश की जनता के लिए उन्हें भरोसेमंद विकल्प के रूप में देखना आसान हो जाएगा. लेकिन लोकसभा चुनाव तो अभी दूर हैं और इस एकजुटता की परख उससे पहले अखिलेश के इस्तीफे से रिक्त आजमगढ़ और आजम खां के इस्तीफे से खाली रामपुर लोकसभा सीटों के उपचुनावों में ही होनी है.


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मिशन 2024 और ‘प्रतिक्रांति’

खुदा न खास्ता, सपा अपने कब्जे वाली इन दोनों लोकसभा सीटों पर कब्जा बरकरार नहीं रख पाई या जैसे-तैसे रख पाई तो उसके इस मंसूबे को झटका लगते देर नहीं लगेगी कि भाजपा को हराने का उसका जो मिशन 2022 में पूरा नहीं हो पाया, वो 2024 के लोकसभा चुनाव में हो जाएगा.

यह मिशन पूरा करना है तो उसे और उसके सहयोगी दलों यानी गठबंधन को अपने इस निश्चय को गांठ बांधना होगा कि 2024 की तैयारियां अभी से शुरू कर दी जाये. क्योंकि इस विधानसभा चुनाव में हार का एक बड़ा कारण यह भी है कि सपा समेत गठबंधन के सारे सहयोगी दलों ने चुनाव मैदान में उतरने में बहुत देर की. तब तक उनकी प्रतिद्वंद्वी भाजपा मतदाताओं के मन पर अपनी छाप छोड़ चुकी थी और विभिन्न कारणों से योगी सरकार से मतदाताओं की तमाम नाराजगी के बावजूद गठबंधन उन्हें उनसे अलग नहीं कर पाया था. फिर भी जीत के अति आत्मविश्वास से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया.

यहां इन दलों के पांव की एक और बेड़ी का जिक्र जरूरी है. ये सभी दल मंडल आयोग या सामाजिक न्याय आंदोलन की चेतना से अस्तित्व में आए हैं.

लेकिन अब उसकी सारी संभावनाओं को दरकिनार कर बीते तीन दशकों में ऐसी ‘प्रतिक्रांति ’ हो गई है कि हिंदुत्व के साथ विकास का तड़का लगाने वाली भाजपा बदले हुए संदर्भों में अस्सी बनाम बीस की बात कर सफल होने लगी है. इसके पीछे उसके हिंदुत्व या विकास की नीति व सिद्धांत कम सामाजिक न्याय के आंदोलन से निकले दलों द्वारा खुद बना ली गई अपनी सीमाएं और सैद्धांतिक विचलन ज्यादा हैं. इन विचलनों के ही कारण 85 प्रतिशत की एकता निहित स्वार्थी जातीय गोलबंदियों और कमेरी जातियों की परस्पर दुश्मनियों की भेंट चढ़ गई हैं.

गठबंधन में सबसे बड़ी समाजवादी पार्टी की ही बात करें तो कभी सामाजिक न्याय के इच्छुक सारे तबकों की उम्मीदों के केंद्र में रहे उसके नायक मुलायम सिंह बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन के वक्त उसके साथ अपने अंतर्विरोधों को हल कर दलितों से दुश्मनी के उस मुकाम तक जाने से बच पाते, जो आज तक सपा के रास्ते का कांटा बनी हुई है.

साथ ही उस दबंग यादववाद को प्रोत्साहित नहीं करते, जिसने पिछड़ी जातियों की एकता में भी दरार डाल दी, जातीय समीकरणों के बजाय बहुजनों की समग्र एकता के लिए काम करते, अपनी सत्ता को सकारात्मक परिवर्तनों की वाहक बनाते और अपने परिवारवाद से कांग्रेस के परिवारवाद को सही न सिद्ध करने लगते तो उनकी पार्टी को ऐसे दुर्दिन नहीं ही झेलने पड़ते.

लेकिन अभी तो हाल यह है कि विधानसभा के पूरे चुनाव अभियान में अखिलेश ने यह सोचकर दलित वोटरों को संबोधित ही नहीं किया कि वे तो बसपा से सपा में आने से रहे. सवाल है कि अगर उनमें से एक हिस्सा भाजपा में जा सकता है तो अनुकूल स्थितियां पाकर सपा में क्यों नहीं जाता?

बहरहाल, अब सपा और उसके गठबंधन का भविष्य इसी पर निर्भर करेगा कि उसके घटक दल इस ‘प्रतिक्रांति ’ से निपटने में अपने विचलनों के कितने पार जा पाते हैं?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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