राजनीति के दो ठोस नियम (आयरन लॉ) हैं, जिन्हें हम अक्सर भूल जाते हैं. यहां तक कि राजनेता भी कभी-कभी इसे नजरंदाज कर देते हैं और इससे अक्सर उनका ही नुकसान होता है. यकीन न हो तो सोनिया गांधी से पूछ लीजिए.
पहला ठोस नियम है: सत्ता या शक्ति हमेशा ‘पद’ से ऊपर की चीज होती है. आप किसी राजनेता को ‘विश्व सम्राट’ (किंग ऑफ़ द वर्ल्ड) कह सकते हैं, लेकिन अगर उसकी इस पदवी के साथ कोई वास्तविक शक्ति नहीं जुड़ी है, तो वह वास्तविक शक्ति के साथ कोई अन्य छोटा-मोटा ‘पद’ पसंद करेगा (जैसे, किसी राज्य सरकार में एक मंत्री होना).
इसे किसी आश्चर्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. राजनेताओं का अक्सर कहना होता है कि वे ‘राष्ट्र की सेवा’, ‘समाज की मदद’, वगैरह वगैरह के इस ‘पेशे’ से जुड़े हैं. लेकिन इनमें से अपेक्षाकृत कम वैसे लोग हैं जो इन ‘शानदार मतलबों’ के मुताबिक चलते हैं, इस बात को भी बखूबी समझते हैं कि राजनीति सिर्फ ‘सत्ता’ के लिए है. उनके बचाव में, आप यह तर्क दे सकते हैं कि ‘समाज की मदद’ करने के लिए’, ‘देश की सेवा’ करने के लिए या जो भी हो, आपको सत्ता में बने रहने की जरूरत है. लेकिन चाहे किसी भी तरह हो, सत्ता ही वह चीज है जिसके लिए वे राजनीति में हैं.
दूसरा ठोस नियम है: कोई भी नेता उतना ही अच्छा होता है जितना कि वह चुनाव में अपनी पार्टी को जीत दिलवा सकता है. सभी तरह के राजनीतिक नेतृत्व का आधार होने वाला नेता और उसके फॉलोअर्स के बीच एक अनकहा अनुबंध होता है. नेता अपने फॉलोवर्स को निर्वाचित कराता है और बदले में, वे उसे अपनी वफादारी देते हैं.
सत्ता का सफर
उदाहरण के लिए नरेंद्र मोदी को ही लें. हमारे प्रधानमंत्री भाजपा पर एकदम कड़ाई के साथ शासन करते है. वह जो चाहे कर सकते हैं और पार्टी में कोई भी उनके विरोध में एक शब्द भी नहीं बोलेगा. ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि नरेंद्र मोदी कोई सुपर ह्यूमन (महामानव) हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि वे किसी भी चुनाव का रुख पलट सकते हैं. उनकी पार्टी के सदस्य जानते हैं कि उनकी लोकप्रियता के बगैर भाजपा सत्ता में नहीं रह पायेगी और अगर उन्हें अपना खुद का चुनाव जीतना है तो भी उन्हें मोदी के नाम पर ही वोट मांगना होगा.
पूरी दुनिया में ऐसा ही है. यूके में, कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों को अच्छी तरह से पता था कि बोरिस जॉनसन बहुत सारी खामियों वाले व्यक्ति थे, जिनका सच्चाई के साथ थोड़ा-बहुत ही परिचय था. लेकिन फिर भी उन्होंने उनका समर्थन किया क्योंकि वे जानते थे कि वह चुनाव जीतने के मामले में काफी लोकप्रिय थे. कुछ महीने पहले जब ओपिनियन पोल्स से पता चला कि यदि वह उनके नेता बने रहते हैं तो कंजरवेटिव पार्टी अगला चुनाव हार जाएगी, तो वे तुरंत उनका साथ छोड़ दिए. इसी तरह अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के जो कांग्रेस वुमेन और कांग्रेसमेन डोनाल्ड ट्रंप को नापसंद करते हैं, वे भी उनके साथ सहमत होने का दिखावा करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि रिपब्लिकन पार्टी के जनाधार का एक बड़ा हिस्सा पूर्व राष्ट्रपति की वजह से है.
फिर इतनी दूर भी क्यों देखें? भारत में ही इस बात के पर्याप्त उदाहरण मौजूद हैं. 1996 के लोकसभा चुनावों की हार के बाद कांग्रेस ने नरसिम्हा राव को साथ छोड़ दिया. लालकृष्ण आडवाणी, जो मानते थे कि वह हमेशा के लिए भाजपा का नेतृत्व करेंगे, के बारे में जब भाजपा सदस्यों को यह विश्वास हो गया कि वह पार्टी को एक और हार की ओर ले जाएंगे और केवल मोदी ही चुनावी सफलता की गारंटी दे सकते हैं, तो उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया.
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सोनिया गांधी की आंखों पर पड़ी पट्टी
ज्यादातर राजनेता यह सब जानते हैं. यह उनकी रगों में है. लेकिन मुझे यह समझ आने लगा है कि गांधी परिवार को अभी तक भी यह समझ नहीं आया है. आंशिक रूप से यह सोनिया गांधी द्वारा अपने करियर के बारे में लिए गए फैसलों की वजह से है. साल 1991 में राजीव गांधी की निर्मम हत्या के समय उन्हें कांग्रेस नेतृत्व (और इसके साथ ही प्रधानमंत्री पद) की पेशकश की गई थी. उन्होंने इसे ठुकरा दिया. वह 2004 में भी प्रधानमंत्री बन सकती थीं. लेकिन उन्होंने एक बार फिर इसे ठुकरा दिया. राजनीति में बने अधिकांश लोगों के विपरीत, उनके निगाहें केवल सत्ता पर ही टिकी नहीं थीं.
न ही वह इस बात को पहचान पाई हैं कि किसी पार्टी के नेता को जो सम्मान मिलता है, वह चुनाव जितवाने की उसकी क्षमता से कितना नजदीकी से जुड़ा होता है. यह भी उनके अपने अनुभव के कारण हो सकता है. उनके राजनीति में आने के तुरंत बाद, कांग्रेस लगातार दो लोकसभा चुनाव हार गई थी. लेकिन पार्टी फिर भी उनके पीछे बनी रही, यहां तक कि पार्टी ने शरद पवार और पीए संगमा की खुली बगावत में शामिल नहीं हुई. जब 2014 में कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई, तब भी किसी ने उनसे उनका पद छोड़ने के लिए नहीं कहा और यहां तक कि वह अपने बेटे राहुल को अपना उत्तराधिकारी नामित करने में भी कामयाब रहीं.
उनका सम्मान अब भी है, लेकिन कोई भी राजनेता या पार्टी हमेशा के लिए राजनीति के ‘ठोस नियमों’ से अछूती नहीं रह सकती. और जैसा कि अशोक गहलोत मामले में मिली नाकामयाबी दर्शाती है, कांग्रेस पार्टी भी किसी अन्य पार्टी की तरह ही है. यह गांधी परिवार का चाहे जितना सम्मान करती है, मगर चुनाव जीतने में उनकी असमर्थता के कारण उनकी अधिकार शक्ति काफी हद तक छिन गयी है. लोग अभी भी उनका सम्मान करना जारी रख सकते हैं, लेकिन वे हमेशा उनकी सुनेंगे नहीं.
पार्टी अध्यक्ष होना मुख्यमंत्री होने के समान नहीं है
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुपके-चुपके अशोक गहलोत का समर्थन करते हुए सोनिया गांधी ने दो बुनियादी गलतियां की हैं. एक: उनका मानना था कि कांग्रेस का कोई भी नेता मुख्यमंत्री का पद छोड़ पार्टी अध्यक्ष का सम्मानीय पद (वह पद जो उन्होंने स्वयं धारण किया था) को ग्रहण कर लेगा. आखिरकार, जब वह कांग्रेस अध्यक्ष थीं, तो उन्होंने ही मुख्यमंत्री बनाए और हटाए थे.
लेकिन अब समय बदल गया है. इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष के पास कोई शक्ति नहीं है, उसके जिम्मे केवल पार्टी को फिर से ‘चुनाव जीतने लायक बनाने’ का कठिन कार्य है. दूसरी ओर, राजस्थान के मुख्यमंत्री के पास वास्तविक शक्ति होती है. जब गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खड़े होने को राजी हुए, तो उन्हें विश्वास था – या मैं ऐसी कल्पना करता हूं – कि वह या तो अपने मुख्यमंत्री पद पर बने रह सकते हैं, या (और यह उनकी सबसे खराब स्थिति वाली सोच थी) वह अपने स्थान पर अपना प्रतिनिधि मुख्यमंत्री नियुक्त कर राज्य का कामकाज चलाना जारी रख सकते हैं.
जिस चीज़ को करने को वे एकदम से तैयार नहीं थे वह था राजस्थान की बागडोर को सचिन पायलट के हाथों सौंप देना. और फिर भी, किसी वजह से, गांधी परिवार का यह मानना था कि वह कांग्रेस अध्यक्ष बनने के प्रति इतने रोमांचित होंगे कि अपना सत्ता आधार एक ऐसे व्यक्ति को सौंप देंगे जिस पर उन्होंने अतीत में सार्वजनिक रूप से बार-बार हमला किया है.
आखिर उन्होंने सोचा ही क्यों कि वे ऐसा करने में कामयाब सकते हैं? क्योंकि वे मानते थे कि वे पार्टी के सर्वोच्च नेता हैं और इसके सदस्यों से जो चाहें करवा सकते हैं. किसी समय के लिए यही सच था, लेकिन अब वक्त बदल गया है.
गांधी परिवार ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के दावे को खारिज कर दिया (और ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में उन्होंने उस राज्यसभा सीट के बारे में भी अपना विचार बदल दिया जिसका उन्हें वादा किया गया था). वह भाजपा में शामिल हो गए और कांग्रेस की एक राज्य सरकार गिरा दी. इसी तरह से गांधी परिवार ने राजस्थान में भी शीर्ष पद के लिए सचिन पायलट के दावे को खारिज कर दिया और वह भी भाजपा में शामिल होने के एकदम से काफी करीब आ गए थे. उन्होंने अमरिंदर सिंह को अपमानित किया और नवजोत सिंह सिद्धू को बढ़ावा दिया. इस समूची प्रक्रिया में, कांग्रेस पंजाब का चुनाव हार गई, अमरिंदर ने भाजपा से हाथ मिला लिया और सिद्धू फिलहाल जेल में हैं.
तो फिर सोनिया को ऐसा क्यों यकीन करना चाहिए था कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए अशोक गहलोत का समर्थन करके (चाहे मौन रूप से ही), वह उन्हें अपना राज्य सचिन पायलट को सौंपने को राजी सकती हैं? सबसे अच्छी स्थिति वाला मामला भी यही होता कि अगर गहलोत पायलट को सत्ता संभालने देने के लिए राजी भी ही जाते, तो भी वह पायलट के खिलाफ इस कदर असंतोष पैदा कर देते कि राजस्थान उनके शासन करने लायक ही नहीं रह जाता. अगर अभी भी कोई हल निकाला जा सकता है, तो ठीक ऐसा ही होगा.
कोई वास्तविक शक्ति नहीं
इन प्रकरणों से कुछ सबक मिलते हैं जो सभी को याद रखने चाहिए. एक, कांग्रेस में इतने कम लोगों के पास कोई वास्तविक राजनीतिक शक्ति है कि उनसे स्वेच्छा से इसे छोड़ने की उम्मीद करना पागलपन होगा.
दूसरा, वे दिन, जब गांधी परिवार के लोग कांग्रेस नेताओं पर उनके कहे अनुसार काम करने का भरोसा कर सकते थे, उसी हद तक फीके पड़ गए हैं, जिस तरह से इस परिवार की चुनाव जितवाने की क्षमता फीकी पड़ गई है.
और तीसरा, राजनीति के ठोस नियमों से कोई भी अछूता नहीं है. आप ‘होनी’ को टाल तो सकते हैं. लेकिन कभी न कभी आप समय की पकड़ में आ ही जाते हैं.
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(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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