scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतपार्टी की बागडोर फिर से राहुल को सौंपने जा रहीं सोनिया पुराने नेताओं को दिखा रही हैं लाल झंडी

पार्टी की बागडोर फिर से राहुल को सौंपने जा रहीं सोनिया पुराने नेताओं को दिखा रही हैं लाल झंडी

कांग्रेस अध्यक्ष के ओहदे पर राहुल गांधी की वापसी तय दिख रही है, और इससे पहले सोनिया गांधी जो टीम बनाने में जुटी हैं उसमें लगता है उन्हीं लोगों को चुना जा रहा है जो पहली नज़र में पसंद आ गए.

Text Size:

मृतप्राय घोड़ी कांग्रेस पर अब और अपनी शक्ति बरबाद न करते हुए डायनासोर रूपी भाजपा पर ज्यादा ध्यान देने का फैसला करने ही जा रहा था कि एक विपक्षी नेता के फोन ने मेरी योजना में खलल डाल दिया. वे कह रहे थे, ‘जॉन ड्राइडेन को पढ़ने का समय आ गया है ब्रदर. शैडवेल की तो याद है न?’

पत्रकारों को सावधान करने का कुछ अलग ही अंदाज रहा है कांग्रेसी नेताओं का. सो, मैंने 17वीं सदी के ब्रिटिश व्यंग्यकार-कवि ड्राइडेन की ‘मैक फ्लेक्नो’ कविता गूगल में खोज निकाली. यह कविता उस राजा के बारे में है, जो उत्तराधिकार के मसले को ‘मूर्खतापूर्ण उपक्रम’ से सुलझाने की कोशिश करता है. ड्राइडेन की वह कविता 1660 में इंग्लैंड की राजगद्दी पर चार्ल्स-2 की ताजपोशी और वहां राजतंत्र की वापसी के दौरान लिखी गई थी.

बहरहाल, फोन करने वाले कांग्रेसी नेता बेशक कड़वाहट से भरे लग रहे थे. मैं समझ सकता था कि वे क्या कहना चाहते थे. उनका फोन अन्तरिम पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा उस समूह के गठन के चंद घंटों के बाद आया था, जिसके गठन से अनुमान लगाया जा रहा है कि यह उनके पुत्र के लिए पार्टी की बागडोर फिर से संभालने का आधार तैयार करेगा.
मुझे पक्का यकीन है कि फोन करने वाले कांग्रेसी नेता को राहुल गांधी की ‘प्रतिभा’ के बारे में कोई संदेह नहीं है. उन्हें राहुल नहीं बल्कि उनकी राजनीति ‘शैडवेलवादी’ लगती है.

राहुल की 34 ‘रणनीतियां’

2019 के लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले राहुल पहली बार पार्टी के उस सलाहकार समूह में शामिल हुए हैं, जो ‘वर्तमान चिंता के मसलों’ (कोरोना संकट से निबटने में नरेंद्र मोदी सरकार के प्रयासों ) पर विचार करेगा और ‘विभिन्न मसलों पर’ पार्टी का नज़रिया तय करेगा.


यह भी पढ़ें: मोदी की कोविड-19 पर अपनाई गई रणनीति के आगे गांधी परिवार में भी राजनीतिक दूरियां दिखाई देती हैं


राहुल के इस समूह, जिसकी तकनीकी तौर पर अध्यक्षता डॉ. मनमोहन सिंह करेंगे, के लिए यह एक कठिन कार्य होगा.
पिछले सप्ताह मीडिया के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस में पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी सरकार पर हमला करते हुए उलझन में दिखे मगर उनका रुख रचनात्मक दिखा. 57 मिनट के इस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने मोदी सरकार को यह सलाह देते हुए ‘स्ट्रेटेजी’ और ‘स्ट्रेटेजिकली’ (रणनीति और रणनीतिक रूप से) शब्दों का 34 बार प्रयोग किया कि उसे क्या करना चाहिए. लेकिन उनके समाधान या ‘स्ट्रेटेजी’ में स्पष्टता का अभाव दिखा, सिवा इसके कि उन्होंने कोरोना के मामलों की ज्यादा टेस्टिंग करने और गरीबों को राहत पहुंचाने की बात की. प्रवासी मजदूरों को उनके घर जाने दिया जाए या वे जहां हैं वहीं उन्हें रोका जाए, इसका फैसला उन्होंने सरकार के ऊपर छोड़ दिया. वे इस सवाल को टाल गए कि लॉकडाउन को कोरोना संकट का एकमात्र समाधान क्यों नहीं मानते जबकि उनकी ही पार्टी के नेता गुलाम नबी आज़ाद और तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्री इसका समर्थन कर रहे हैं? उनसे जब सरकार की रणनीति में खामी गिनाने के लिए कहा गया तो उनका जवाब यह था कि यह वे तब बताएंगे जब सरकार वायरस को परास्त कर देगी. कुलमिलाकर मीडिया से उनकी यह वार्ता उनके मीडिया मैनेजर की उस टिप्पणी को सही साबित करती दिखी, जो उन्होंने चालू माइक से अनजान रहते हुए की थी कि ‘हम सवालों को इस तरह लेंगे कि वे व्यापक आधार वाले दिखें.’

वफ़ादारों की बलि

बहरहाल, कोरोना और दूसरे मसलों पर कांग्रेस का रुख तय करना तो नये समूह के गठन की दृष्टि से सांयोगिक मामला है. सलाहकार समूह के गठन से सोनिया गांधी ने दो साफ संदेश दिए हैं. पहला यह कि सोनिया ने अपने पुत्र की खातिर अपने वफ़ादारों को बलि देने का फैसला कर लिया है. अहमद पटेल, कमलनाथ, आज़ाद, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी सरीखे पुराने नेताओं ने ही 1998 में सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया को पार्टी अध्यक्ष बनाने में, और फिर 1999 में सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाने वाले शरद पवार, तारीक अनवर और पी.ए. संगमा सरीखे अनुभवी नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखने में अहम भूमिका निभाई थी. इन्हीं वफ़ादारों ने अगले दो दशकों तक सोनिया के जादू और उनकी राजनीतिक ताकत का जाल बुना था और उसे मजबूती दी थी. वे कांग्रेस के भीतर की वह ‘सिस्टम’ थे जिससे राहुल नफरत करते थे और पार्टी उपाध्यक्ष बनने के बाद जिसकी बिना नाम लिये खुली आलोचना करते थे. चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए उन्होंने जब पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तब भी ऐसा लगा था कि मोदी या अमित शाह से ज्यादा उन्हें कांग्रेस के पुराने नेताओं से शिकायत थी.

पुराने नेताओं के प्रति नेहरू-गांधी परिवार के इस वंशज की नापसंदगी हमेशा से एक पहेली बनी रही है. कहा जाता है कि राहुल उन्हें पार्टी की अवनति के लिए जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि पार्टी की हालत में 2007 के बाद से ज्यादा गिरावट आई, जब वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के महासचिव बने और पार्टी में उनका फरमान चलने लगा. दरअसल, मोदी के विकल्प के तौर पर खुद को स्थापित कर पाने में उनकी विफलता ने कांग्रेस की गिरावट में तेजी लाई है. इन पुराने नेताओं की बैसाखी के बिना राहुल अपनी हवा-हवाई जीवनशैली के साथ-साथ राजनीतिक तथा व्यक्तिगत नैतिकता के उपदेश देते न घूम पाते.

राहुल इस ‘सिस्टम’ को भले ध्वस्त करना चाहते हों लेकिन सोनिया को पता था कि औरों से ज्यादा खुद राहुल को ही अपने वजूद के लिए ‘सिस्टम’ की जरूरत पड़ेगी. सलाहकार समूह, जिसमें पुराने नेताओं को शामिल न करके ज़्यादातर राहुल के अनुचरों को जगह दी गई है, का गठन इस बात का पहला संकेत है कि सोनिया पार्टी अध्यक्ष पद पर अपने पुत्र की वापसी का रास्ता साफ करने के लिए अपने वफ़ादारों को दरकिनार करने की तैयारी कर रही हैं.

ऊपर से टपकने वालों की मंडली

कांग्रेस का नया समूह दूसरा संदेश यह दे रहा है कि राहुल की कांग्रेस में चुनाव हारने और ऊपर से आ टपकने वाले, जमीन से कटे तत्वों का बोलबाला रहेगा. वैसे, सोनिया की कांग्रेस में भी चुनाव जीतने की क्षमता कोई कसौटी नहीं थी, लेकिन पार्टी के प्रथम परिवार के प्रति वफादारी, राजनीतिक व प्रशासनिक अनुभव को तरजीह दी जाती थी.
पार्टी अध्यक्ष पद पर अपने पुत्र की वापसी से पहले सोनिया भविष्य के लिए जो टीम बना रही हैं उसमें लगता है वही लोग शामिल किए जा रहे हैं जो पहली नज़र में पसंद आ गए. इसलिए, लोकसभा में राहुल के करीब बैठने वाले के.सी. वेणुगोपाल को पार्टी महासचिव (संगठन) का ताकतवर पद दिया जा सकता है, भले ही 2019 के चुनाव में वे अपनी अलप्पुझा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने से मुकर गए थे. वामदल इस बार एक ही सीट वहीं से जीत पाए. बाद में राहुल ने वेणुगोपाल को राज्यसभा में भेजने का पूरा इंतजाम किया.

सलाहकार समूह के 11 सदस्यों पर जरा नज़र डालिए. इसके संयोजक हैं रणदीप सिंह सुरजेवाला, जो पिछले दो बार विधानसभा चुनाव हार चुके हैं. पार्टी के संचार विभाग के अध्यक्ष के रूप में वे कांग्रेस और मीडिया के बीच तनाव बढ़ाने में योगदान देते रहे हैं. जनता के साथ पार्टी के संवाद का जो हाल है उसके बारे में जितना कम बोला जाए उतना बेहतर. समूह के दूसरे सदस्य हैं रोहण गुप्ता, जो पार्टी के सोशल मीडिया विभाग के प्रमुख हैं. कई लोगों ने मान लिया होगा कि दिव्या स्पंदना के जाने के बाद यह विभाग खत्म कर दिया गया होगा, लेकिन सलाहकार समूह में रोहण का नाम शामिल होने के बाद यह धारणा दूर हो गई होगी. एक पूर्व कांग्रेसी सांसद की बेटी सुप्रिया श्रीनाते ने ‘ईटी नाऊ’ की नौकरी छोड़कर पिछला चुनाव कांग्रेस टिकट पर लड़ा था और हार गई थीं. लेकिन उन्हें इस समूह में जगह मिल गई है.


य़ह भी पढ़ें: राहुल की कोविड-19 से निपटने की मोदी को सलाह, टेस्टिंग बढ़ाइए और बेसहारों को अग्रिम पैकेज दीजिए


इसी तरह, गौरव वल्लभ को इसलिए इसमें जगह दी गई है क्योंकि भाजपा के संबित पात्र को टीवी बहसों में मात देने के कारण उनका सितारा बुलंद हो गया. वल्लभ झारखंड विधानसभा के पिछले चुनाव में हार चुके हैं. पार्टी के डाटा विश्लेषक प्रवीण चक्रवर्ती को भी इस समूह में शामिल किया गया है. राहुल को आंकड़े समझाकर ‘चौकीदार चोर है’ जैसा नारा उछलवाने में उनकी भूमिका मानी जाती है. यह नारा उलटा ही पड़ा था.

सलाहकार समूह, राहुल के ‘कोर ग्रुप’ के ये सारे सदस्य मिलकर तय करेंगे कि जनता से जुड़े मसलों पर रोज-रोज कांग्रेस की प्रतिक्रिया क्या होगी. दो वरिष्ठ नेताओं को भी इस समूह में शामिल किया गया है मगर ऐसा लगता है कि वे दिखावे के लिए ही होंगे. सोनिया ने कांग्रेस के पुराने नेताओं के राजनीतिक करियर को लाल झंडी दिखा दी है. अब यह इन नेताओं के ऊपर है कि सोनिया अपने पुत्र को पार्टी की बागडोर सौंपें इसके पहले वे बाइज्जत सेवानिवृत्ति ले लें.

(इस लेख को अंग्रेजी में भी पढ़ा जा सकता है, यहां क्लिक करें, यहां प्रयुक्त विचार निजी हैं.)

share & View comments