scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमत2020 विधानसभा चुनाव से पहले तेजस्वी के लिए कुछ जरूरी सबक

2020 विधानसभा चुनाव से पहले तेजस्वी के लिए कुछ जरूरी सबक

यादवों के एक हिस्से ने राजद का साथ छोड़ा तो दूसरी तरफ जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी अपनी जातियों का वोट खुद अपने लिये भी नहीं खींच पाये. राजद भी यादवों को संभालने के चक्कर में अति-पिछड़ों की अनदेखी कर बैठा.

Text Size:

अपने 22 वर्ष के अस्तित्व में सबसे चिंताजनक हार के कारणों का पता लगाने के लिए राष्ट्रीय जनता दल ने एक कमेटी का गठन किया है. यह कमेटी 2019 लोकसभा चुनाव में राजद को एक भी सीट नहीं मिलने के कारणों के विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक पहलुओं पर मंथन करेगी. आरजेडी की इतनी बड़ा हार इसलिए भी चौंकाने वाली है. क्योंकि अभी भी बिहार विधानसभा में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है.

जांच कमेटी तथ्यों के आधार पर भले जो जांच करे और जिस नतीजे पर भी पहुंचे. लेकिन कुछ बातें परेशान करने वाली हैं. इन में से सबसे महत्वपूर्ण बात है राजद विधायक महेश यादव  द्वारा तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगना. हालांकि, उनका स्वर फिलहाल धीमा हो चुका है पर उन्होंने यह आभास तो जरूर दे दिया है कि राजद के अंदर ऐसे बागी स्वरों को अपोजिशन की पार्टियां हवा तो दे ही सकती हैं. आगे हम राजद की लोकसभा चुनाव में हार के कारणों के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करेंगे. लेकिन सबसे पहले हम राजद की हार के ‘यादव फैक्टर’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

यादव वोट पर किसकीकितनी दावेदारी? 

2005 में राष्ट्रीय जनता दल बिहार की सत्ता से बेदखल हुई थी. इसके बावजूद 2015 के विधानसभा चुनाव तक बिहार का यादव समुदाय, मुसलमानों के बाद राजद का सबसे ठोस सपोर्टर ग्रुप रहा है. अब बिहार के कुछ यादव वोटर्स, राजद छोड़ एनडीए की तरफ शिफ्ट हुए हैं. इसके अनेक उदाहरण हैं. लेकिन, केस स्टडी के तौर पर दो महत्वपूर्ण सीट पाटलिपुत्र और मधेपुरा लोकसभा हैं. ये दोनों लोकसभा क्षेत्र यादव बहुल माने जाते हैं. इन दोनों सीटों पर राजद के यादव उम्मीदवारों को एनडीए के यादव उम्मीदवारों ने ही हराया है. पाटलिपुत्र में लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को भाजपा के रामकृपाल यादव ने हराया तो मधेपुरा में कद्दावर समाजवादी नेता शरद यादव को जदयू के दिनेश चंद्र यादव ने मात दी.

राजद के लिए यह एक पीड़ादायक सच्चाई है कि ढाई दशक से समर्थक रहा यादव समाज का एक हिस्सा आज उससे दूर होने लगा है. यह स्थिति तब है जब कुल 19 लोकसभा सीटों से लड़ने वाले राजद ने 8 सीटों पर (करीब 40 प्रतिशत) यादव उम्मीदवारों को उतारा था.

अति पिछड़ों की अनदेखी महंगी पड़ी

हालांकि, जातीय जनगणना 1931 के बाद कभी हुई नहीं और जाति के सभी आंकड़े अनुमान ही हैं. फिर भी माना जाता है कि बिहार में 52-54 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़े वर्ग में अतिपिछड़ों की आबादी 22-24 प्रतिशत जरूर है. यह आबादी राजनीतिक दृष्टिकोण से निर्णायक भूमिका बना चुकी है. इसी बात को ऐसे कहें कि 14 प्रतिशत (अनुमानित) यादव, 16.9 प्रतिशत मुसलमान और 14 प्रतिशत दलितों से भी वोट आधार के रूप में महत्वपूर्ण है. लेकिन, राजद ने भयंकर गलती इस समुदाय के प्रतिनिधियों को टिकट ना दे कर की. ले-दे कर एक मात्र अति पिछड़ा बुलो मंडल को राजद ने भागलपुर से टिकट दिया. जबकि जदयू ने पांच टिकट अतिपिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों को दिया और उसके सारे-के सारे उम्मीदवार जीत गये. बल्कि इन उम्मीदवारों को टिकट देने का असर बाकी सीटों पर भी हुआ.

कुशवाहा, सहनी और मांझी नहीं ला पाए अपने समाज के वोट

ऐसा नहीं था कि राजद को अतिपिछड़ों के राजनीतिक महत्व का अंदाजा नहीं था. उसने मल्लाह समुदाय के मुकेश सहनी (विकासशील इंसान पार्टी) के साथ अलायंस किया. लेकिन मुकेश सहनी की न कोई पुरानी पहचान थी और न ही मल्लाहों में कोई जमीनी पैठ. नतीजा यह हुआ कि मल्लाहों का ज्यादातर वोट राजद गठबंधन की तरफ ट्रांसफर नहीं हुआ. इसी तरह तांती, धानुक, कुम्हार, लोहार, कहार, हजाम सरीखी दर्जनों जातियां हैं, जिन्हें राजद में अपना कोई प्रतिनिधि चेहरा नहीं दिखा. ऐसे में राजद ने एक तरह से एनडीए को वॉकओवर दे दिया.


यह भी पढ़ें : आग में तपे तेजस्वी और पिता की छाया में चिराग


जब हम यहां जाति व समुदाय के नजरिये से राजनीतिक समर्थन की बात कर रहे हैं, तो यहां कुशवाहा और मांझी (मुसहर) समाज की बात करना अनिवार्य इसलिए है कि मुकेश सहनी की वीआईपी के अलावा उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और जीतन राम मांझी का हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) भी राजद के गठबंधन में थे. रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का काराकाट और उजियारपुर से हारना जितनी महत्वपूर्ण घटना थी, कुछ उतना ही महत्वपूर्ण था पश्चिमी चम्पारण से उनके उम्मीदवार ब्रजेश कुशवाहा का हार जाना. हमने इस इलाके के अनेक प्रखंडों का दौरा किया और पाया कि यहां के कुशवाहा और मल्लाह वोटरों में से बमुश्किल 15-20 प्रतिशत ने ब्रजेश को वोट दिया.

गया में क्यों हार गए जीतन राम मांझी

अब आइए गया रिजर्व लोकसभा सीट की बात करते हैं. हमने गया को केस स्टडी के लिए इसलिए चुना है कि यहां से मुसहर समुदाय के दो प्रत्याशी सीधे मुकाबला में थे. गया लोकसभा बिहार का एक ऐसा हल्का है. जहां अन्य सीटों की तुलना में मुसहरों की आबादी ज्यादा है. यहां महागठबंधन से जीतन राम मांझी तो एनडीए के घटक दल जदयू से विजय मांझी मैदान में थे. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को यहां के वोटरों ने नकार कर विजय मांझी को जीत दिला दी. जब हमने इस इलाके के मांझी वोटरों से बात की तो अधिकतर ने यह कहा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट किया था.

दीवार पर लिखी इबारतें साफ हैं. एक तरफ यादव के एक हिस्से ने राजद का साथ छोड़ा तो दूसरी तरफ जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी अपनी जातियों का वोट खुद अपने लिये भी नहीं खींच पाये.

महंगी पड़ी पसमांदा समाज की अनदेखी

राजद की हार का एक मुस्लिम फैक्टर भी है. इस फैक्टर पर राजद अक्सर ध्यान नहीं दे पाता. हालांकि, तेजस्वी यादव के नेतृत्व की खास बात यह है कि उन्होंने मुसलमानों के अनुपातिक प्रतिनिधित्व का 2015 के विधानसभा चुनाव व 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पूरा ख्याल रखा. 2019 में 19 सीटों में से पांच सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा गया. लेकिन इनमें अररिया से सरफराज आलम के अलावा एक भी पसमांदा उम्मीदवार नहीं था.

मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न को समझने के लिए हम यहां केस स्टडी के तौर पर किशनगंज लोकसभा हल्के को सामने रख कर देखते हैं. किशनगंज इसलिए कि यह बिहार का एक मात्र ऐसा लोकसभा क्षेत्र है, जहां मुसलमान बहुमत में हैं. इनकी आबादी यहां करीब 69 प्रतिशत है. यहां से महागठबंधन सहयोगी कांग्रेस ने डॉ. मोहम्मद जावेद को उम्मीदवार बनाया था. जावेद पसमांदा (पिछड़ी जाती) समाज की सुरजापुरी बिरादरी से आते हैं. जदयू ने यहां से सैयद महमूद अशरफ को टिकट दिया था. सुरजापुरी, कुल्हैया और शेरशाहाबादी (तीनो पिछड़े) बहुल इस संसदीय हल्के में सैयद महमूद अशरफ हार गये. किशनगंज एक मात्र सीट थी जहां से महागठबंधन के उम्मीदवार ने जीत हासिल की.

किशनगंज के चुनाव परिणाम से राजद को सबक लेने की जरूरत है. बहुसंख्यक वोटरों का कांग्रेस ने ख्याल रखा तो डा. जावेद किशनगंज से जीत गये. किशनगंज से डॉ. जावेद की जीत पसमांदा चेतना का प्रतीक है.

और अंत में परिवार!

ऊपर हमने राजद की हार के सामाजिक व राजनीतिक पहलुओं की चर्चा की है. अब आखिर में हम उसकी हार के पारिवारिक पहलू पर भी गौर करने की कोशिश करते हैं.

राजद में टिकट बंटवारे से ले कर चुनावी अभियान तक पारिवारिक कलह वोटरों में भ्रम की स्थिति पैदा करता रहा. लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेजप्रताप सारण में अपने ससुर चंद्रिका राय को हराने की घोषणा करते हैं, तो शिवहर व जहानाबाद में अपनी पसंद के उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर देते हैं. हालांकि शिवहर में उनके प्रत्याशी ने नामांकन नहीं किया लेकिन उनकी बयानबाजियों से राजद समर्थक वोटर भ्रमित होते रहे. जहानाबाद में तो हालत यह हुई कि राजद के आफिशियल उम्मीदवार सुरेंद्र यादव महज 1,700 वोट से हारे. जबकि तेजस्वी के उम्मीदवार को करीब चार हजार वोट आये. तेज प्रताप के बगावती तेवर ने भी राजद को काफी नुकसान किया.


यह भी पढ़ें : वंचितों-पिछड़ों के पक्ष में खड़े होने की कीमत चुकाते तेजस्वी यादव


राजद की जांच कमेटी क्या रिपोर्ट देगी और उस पर राजद क्या अमल करेगा, यह राजद के रणनीतिकारों पर निर्भर करता है. पर एक बात साफ है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की सामाजिक व राजनीतिक संरचना में बड़ा फर्क होता है. विधानसभा का सामाजिक पहलु राजद के लिए अनुकूल हो सकता है. 2020 विधानसभा चुनाव में अभी करीब सवा साल का समय बचा है. राजद के लिए ये मुश्किल, लेकिन संभावना वाला समय है.

(लेखक नौकरशाही डॉट कॉम के संपादक हैं.)

share & View comments