इस देश में कोई तो है जो नहीं चाहता कि जातियों की सच्चाई सामने आए. क्या वे सरकार और देश की सामाजिक सत्ता संरचना में बैठे प्रभावशाली जातियों के लोग हैं? क्या वे कांग्रेस और बीजेपी के नेता हैं? हम इस सवाल का जवाब नहीं जानते लेकिन हम ये ज़रूर जानते हैं कि लगभग 5000 करोड़ रुपए खर्च करके आज़ाद भारत में जो पहली जाति जनगणना हुई, उसका कोई आंकड़ा देश के सामने नहीं है.
भारत में आज़ादी से पहले जाति जनगणना होती थी. दुनिया के लगभग हर लोकतांत्रिक देश में समाज की विविधता और उसकी सच्चाई जानने के लिए जनगणना होती है. उसमें रेस, एथनिसिटी, भाषा सबका कॉलम होता है. लेकिन आज़ादी के बाद भारत की जनगणना में सिर्फ एससी और एसटी की गिनती जारी रही क्योंकि संसद और विधानसभाओं में उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण देने की संवैधानिक व्यवस्था है. बाकी जातियों को न गिनने का तर्क यह होता है कि जातियों की गिनती से जातिवाद बढ़ जाएगा. मानो, जनगणना से ही जातिवाद पैदा होता है.
भारत में जनगणना एक पुरानी सरकारी कवायद है. हर दस साल पर फरवरी महीने में 1 से 20 तारीख के बीच सरकारी शिक्षक घर-घर जाते हैं और देश के हर आदमी को गिन लेते हैं और उनके बारे में जानकारियां इकट्ठा कर लेते हैं. ये काम 1881 से हर दस साल पर होता आया है. अपवाद 1941 है क्योंकि उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था. कंप्यूटर और कैलकुलेटर आने से बहुत पहले जब गांव-गांव तक पहुंचना आसान नहीं था, तब भी जनगणना समय पर हो जाती थी और उसके आंकड़े इतने विश्वसनीय होते थे कि अगले दस साल तक सरकारी नीतियां उसी के आधार पर चलती थीं.
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लेकिन 2011 में भारत में एक अलग किस्म की जनगणना शुरू हुई. इसे सोशियो इकॉनोमिक एंड कास्ट सेंसस 2011 (एसईसीसी 2011) कहा गया. ये जनगणना 29 जून 2011 में शुरू हुई. केंद्र सरकार की घोषणा और योजना के मुताबिक इसे दिसंबर 2011 में पूरा हो जाना था. सरकार ने इस जनगणना के बारे में बताया कि इनक्लूसिव ग्रोथ के लिए इन आंकड़ों का बहुत ज़्यादा महत्व होगा. इन आंकड़ों का इस्तेमाल 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-13 से 2016-17 के लिए होना था.
इस जनगणना ने केंद्र में दो सरकारें देखी हैं. जाति जनगणना यूपीए-2 के समय में शुरू हुई और एनडीए सरकार के समय में यानी 31 मार्च, 2016 को खत्म हुई. टाइम पीरियड देखें तो तीन साल तक जाति जनगणना यूपीए-2 के समय में हुई और बाद के दो साल में एनडीए के शासन काल में इसका काम चला.
केंद्र सरकार घोषणा कर चुकी है कि इस जनगणना ने अपने सभी लक्ष्य पूरे कर लिए हैं और इस पर आए 4,893 करोड़ रुपए के खर्च को केंद्र सरकार अपनी मंज़ूरी दे चुकी है. जिस जनगणना का एक प्रमुख लक्ष्य जाति के आंकड़े जुटाना था, उस जनगणना से जातियों के आंकड़े आने से पहले ही सरकार ने कह दिया कि इसके लक्ष्य पूरे हो गए हैं. 12वीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल पूरा हो चुका है और देश 13वीं पंचवर्षीय योजना में प्रवेश कर चुका है. लेकिन आंकड़े नदारद हैं.
इस जनगणना के फील्ड सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले थे. इसमें 46 लाख जातियों, उपजातियों और गोत्र की जानकारी सामने आई. केंद्रीय कैबिनेट ने 16 जुलाई 2015 की अपनी बैठक में इन आंकड़ों को समेटने के लिए नीति आयोग के उस समय के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक एक्सपर्ट ग्रुप का गठन कर दिया. जाति जनगणना 2011 की कहानी यहीं रुक जाती है.
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अरविंद पनगढ़िया नीति आयोग को अलविदा कहकर अर्थशास्त्र पढ़ाने कोलंबिया यूनिवर्सिटी लौट चुके हैं. एक्सपर्ट ग्रुप की कभी कोई बैठक नहीं हुई क्योंकि ग्रुप के बाकी सदस्यों की नियुक्ति ही नहीं हुई. केंद्र सरकार ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में 9 अगस्त 2018 को स्वीकार किया कि इस एक्सपर्ट ग्रुप का कभी गठन ही नहीं हुआ. इसलिए इसकी बैठक होने का या आगे भी कभी इसकी रिपोर्ट आने का कोई सवाल ही नहीं है.
यानी जाति जनगणना शुरू होने के सात साल बाद हम अब पक्के तौर पर कह सकते हैं कि लगभग 5,000 करोड़ रुपए खर्च करके जो गिनती हुई, उससे जाति का कोई आंकड़ा सामने नहीं आने वाला है?
आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या जाति जनगणना करने में सचमुच डिज़ाइन की कोई गलती रह गई थी, जिसकी वजह से जनगणना के गलत आंकड़े आ गए, या फिर जाति जनगणना में कोई ऐसी बात सामने आ रही थी, जिसे लेकर सरकार सहज नहीं थी? या फिर सरकार चाहती ही नहीं है कि जाति के बारे में किसी भी तरह से बात हो और हिंदू-मुसलमान की बाइनरी में खलल आए.
सवाल उठता है कि जनगणना कराने के इतने लंबे अनुभव के बाद रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया, जो कि भारत के जनगणना कमिश्नर भी होते हैं, से जाति जनगणना कराते समय डिज़ाइन की गलती कैसे हो सकती है? ये कोई ऐसा काम नहीं है जिसे रजिस्ट्रार जनरल पहली बार करा रहे हों.
2011 की सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना में सबसे बड़ी गलती, जो हो सकता है कि जानबूझकर की गई हो, ये हुई कि इस गिनती को हर दस साल पर होने वाली नियमित जनगणना से बाहर कर दिया गया. दस साल पर होने वाली जनगणना को रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया जनगणना कानून 1948 के तहत कराते हैं. इस वजह से इस जनगणना में गलत जानकारी देना और गलत जानकारी नोट करना, दोनों अपराध हैं. इस जनगणना में सरकारी शिक्षकों को लगाया जाता है. इस कानून से बाहर की किसी गिनती में सरकारी शिक्षक नहीं लगाए जा सकते क्योंकि शिक्षा का अधिकार कानून में इस पर रोक है.
यह आश्चर्यजनक है कि जो काम 2011 की जनगणना में जाति का एक कॉलम जोड़कर हो सकता था, उसके लिए सरकार ने लगभग 5,000 करोड़ रुपए खर्च करके अलग जगनणना क्यों कराई?
जनगणना कानून से बाहर होने के कारण जाति जनगणना का काम अनुभवहीन लोगों, एनजीओ कर्मियों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों ने किया. इन्हें स्थानीय समाज की वो जानकारी नहीं होती है, जो सरकारी शिक्षक जानता है. 46 लाख जातियों और उपजातियों के आंकड़े आने की एक बड़ी वजह यही अनुभवहीन स्टाफ है, जिससे जनगणना कराई गई.
सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना का काम राज्य सरकारों के भरोसे छोड़ दिया गया. राज्य सरकारों को इस काम का कोई अनुभव नहीं होता है. साथ ही, ये काम कई साल तक फैल गया. उस दौरान करोड़ों लोग देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में गए. जनगणना हमेशा तय समय में किया जाने वाला काम है. न जाने क्यों सरकार ने इसे इतने लंबे समय में किया?
दरअसल, जब यूपीए सरकार ने तय किया कि जाति की गिनती को 2011 में होने वाली दस वर्षीय जनगणना से अलग कर दिया जाएगा, तभी ये तय हो गया था सरकार दरअसल जाति की गिनती कराना नहीं चाहती. चूंकि लोकसभा में 6 और 7 मई 2010 को आम सहमति बन गई थी कि अगली जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ा जाए, इसलिए सरकार को जाति जनगणना के नाम पर कुछ तो करना था.
जाति जनगणना यानी एसईसीसी 2011 सरकार ने मजबूरी में करा दी. इसका न कोई नतीजा सामने आना था, न आया. 2014 में केंद्र में आई एनडीए सरकार इसे रोककर, जनगणना कानून के तहत जाति जनगणना करा सकती थी. लेकिन उसने भी यूपीए सरकार की गलती को आगे भी जारी रखने का फैसला किया. जनगणना की गलतियों को सुधारने का काम जो कमेटी कर सकती थी, उसे गठित न करके एनडीए सरकार ने भी जता दिया कि वह नहीं चाहती कि जाति के आंकड़े आएं.
इसका नतीजा ये है कि नीतियां बनाने वालों के पास जाति के आंकड़े आज भी नहीं है. 5,000 करोड़ रुपए डूब गए सो अलग!
जातियों की गिनती न कराने का नतीजा यह है कि हम नहीं जानते कि देश में विभिन्न जातियों के लोग कितने हैं और उनकी शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति कैसी है और उनके लिए किस तरह की नीतियां बनाए जाने की ज़रूरत है. भारत में जाति संबंधी नीतियां हैं, विभाग हैं, लेकिन ये सब बिना आंकड़ों के काम करते हैं.
मिसाल के तौर पर देश में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग है, पिछड़ा वर्ग डेवलपमेंट फंड है, राज्यों में पिछड़ी जातियों के मंत्रालय हैं, सैकड़ों योजनाएं हैं, लेकिन उन्हें बिना आंकड़ों के काम करना पड़ता है. केंद्र की ओर से राज्यों को पिछड़ी जातियों के विकास के लिए भेजे जाने वाले फंड का आधार उस राज्य की ओबीसी आबादी नहीं, कुल आबादी होती है, क्योंकि ओबीसी का कोई आंकड़ा ही नहीं है.
भारत में आखिरी जाति जनगणना 1931 में हुई. देश अभी उन्हीं आंकड़ों से काम चला रहा है. मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही बताया कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसदी है. जाति के आंकड़ों के बिना काम करने में मंडल कमीशन को काफी दिक्कत आई और उसने सिफारिश की थी कि अगली जो भी जनगणना हो, उसमें जातियों के आंकड़े जुटाए जाएं.
अभी स्थिति यह है कि कौन सी जाति पिछड़ी है, इसका अनुमान या तो 1931 के आंकड़ों के आधार पर लगाया जाता है या फिर मनमाने तरीके से. इसलिए जातियां अक्सर राजनीतिक दबाव डालती हैं कि उसे भी ओबीसी में शामिल किया जाए. ओबीसी में शामिल होने के लिए जातियों के हिंसक आंदोलनों की सबसे बड़ी वजह आंकड़ों का अभाव है. जातियों के आंकड़े जाने बगैर किसी जाति को ओबीसी की लिस्ट से बाहर भी नहीं किया जा सकता है. इसलिए आज तक एक भी जाति को ओबीसी से बाहर नहीं किया गया है.
वर्तमान सरकार कह रही है कि अगली जनगणना यानी 2021 में वह ओबीसी के आंकड़े जुटाएगी. ये एक और बड़ी गलती होगी. ओबीसी की केंद्रीय और राज्यों में लिस्ट अलग-अलग है. पिछड़ी जातियों की सात राज्यों में एक से ज़्यादा कैटेगरी है. उनके आंकड़े जुटाना असंभव काम होगा. दस साल पर होने वाली जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ना ही जाति जनगणना का सही तरीका है.