मुद्रास्फीति, विशेष रूप से खाद्य मुद्रास्फीति, न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर चर्चाओं के केंद्र में रही है. भारत में जून 2022 के मुद्रास्फीति के आंकड़ों में थोड़ी नरमी आने के बावजूद, खाद्य मुद्रास्फीति की दर इस वर्ष की शुरुआत से ही 6 से 8 प्रतिशत के असहज दायरे में बनी हुई है. अब सवाल यह है कि यह उच्च खाद्य मुद्रास्फीति (खाने-पीने की चीजों की बढ़ी हुई कीमतें) एक औसत भारतीय को किस प्रकार प्रभावित करती है? इसका अनुमान लगाने के लिए हम एक साधारण मीट्रिक (मापक यंत्र) का उपयोग करते हैं: यानी कि एक औसत भारतीय खाने की घर में तैयार की गई एक थाली में कितना खर्च होता है?
थाली की लागत की यह अवधारणा साल 2019-20 के आर्थिक सर्वेक्षण (इकोनोमिक सर्वे) में वर्णित ‘थालीनोमिक्स’ वाले अध्याय पर आधारित है. तब तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने एक औसत भारतीय के लिए एक थाली की कीमत का अनुमान लगाया था. हम उसी अवधारणा का उपयोग करते हुए आपके लिए इसके वर्तमान कीमतों पर आधारित अनुमान लाए हैं.
कैसे तैयार की गयी यह थाली?
आर्थिक सर्वेक्षण का अनुसरण करते हुए हम एक आम शाकाहारी थाली को राष्ट्रीय पोषण संस्थान (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्युट्रिशन – एनआईएन) के द्वारा 2011 में पेश किए गए दिशा-निर्देशों के अनुसार परिभाषित करते हैं. इन दिशा-निर्देशों के अनुसार, एक थाली, जिसका एक औसत भारतीय को सेवन करना चाहिए, में शामिल हैं: अनाज (चावल और गेहूं), सब्जियां (आलू, प्याज, टमाटर मुख्य सब्जियों के रूप में और बैंगन, गोभी, भिंडी और फूलगोभी मौसमी सब्जियों के रूप में), दालें ( चना, अरहर, मसूर, मूंग और उड़द), मसाले (हल्दी, सूखी मिर्च, नमक और धनिया) और वनस्पति तेल (सरसों, नारियल और मूंगफली). इन वस्तुओं की लागत के अलावा, एक थाली की कीमत में खाना पकाने के लिए प्रयुक्त ईंधन की लागत भी शामिल होती है.
दैनिक पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, हर एक व्यक्ति को ऐसी दो थालियों का सेवन करना चाहिए.
आर्थिक सर्वेक्षण ने थाली के इन घटकों को उनके खुदरा मूल्यों के साथ जोड़कर एक आम घरेलू खाने की थाली की लागत का अनुमान लगाया.
कुछ अपवादों को छोड़कर हमने भी इसी पद्धति को दोहराया है.
उदाहरण के लिए, खुदरा कीमतों पर डेटा जुटाने के लिए जहां आर्थिक सर्वेक्षण कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स फॉर इंडस्ट्रियल वर्कर्स (अप्रैल 2006 से अक्टूबर 2019) का उपयोग करता है, वहीं हमने सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ कंस्यूमर अफेयर्स) तथा अर्थशास्त्र और सांख्यिकी विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ इकनोमिक एंड स्टेटिस्टिक्स) के डेटा का उपयोग किया है.
आर्थिक सर्वेक्षण शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार की थालियों की लागत का अनुमान लगाता है, लेकिन हम केवल एक शाकाहारी थाली की लागत का ही अनुमान प्रस्तुत कर रहे हैं.
इसके अलावा, आर्थिक सर्वेक्षण भारी श्रम करने वाले (अतः भारी आहार लेने वाले) एक वयस्क पुरुष की आहार संबंधी आवश्यकताओं को नमूने के रूप में लेता है और फिर समूचे परिवार के आहार का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसे पांच से गुणा कर देता है. हमें लगता है कि आहार का यह अनुमान उच्च स्तर पर है क्योंकि एक भारी काम करने वाले पुरुष के आहार को पांच गुना से बढ़ाकर गणना करना चीजों के अधिक आकलन करने जैसा है.
इसलिए, हमारे अनुमान वयस्क पुरुष (हैवी आहार) और महिला मॉडरेट वर्कर (लाइटर आहार) दोनों के लिए प्रस्तुत किए गए हैं.
इसके बाद हम एक औसत भारतीय द्वारा किए गए भोजन की दैनिक लागत (दो थालियों) को प्रस्तुत कर रहे हैं. हम 2015 से लेकर हर साल के जून महीने के लिए यह अनुमान प्रस्तुत कर रहे हैं.
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एक भारतीय घर की थाली की कीमत
जून 2015 में, एक शाकाहारी थाली (हल्के भोजन वाली) की कीमत 16 रुपये से थोड़ी कम (यानी एक दिन में दो थाली के लिए लगभग 31 रुपये) थी. उसी आहार पर जून 2022 में, 22 रुपये (या 45 रुपये प्रति दिन) खर्च होता है. इसका मतलब यह हुआ कि एक थाली की कीमत में कुल मिलाकर करीब 42 फीसदी का इजाफा हुआ है.
इससे भारी आहार के मामले में यह वृद्धि लगभग 39 प्रतिशत है: जून 2015 में 21 रुपये प्रति थाली से बढ़कर जून 2022 में 29 रुपये प्रति थाली.
इसका मतलब है कि पांच लोगों के एक परिवार के लिए हल्के आहार वाली मासिक थाली की लागत लगभग 4,700 रुपये (2015) से बढ़कर लगभग 6,700 रुपये (2022) हो गई और भारी आहार के लिए लगभग 6,300 रुपये से बढ़कर 8,700 रुपये हो गई.
थाली के घटकों के संदर्भ में, जून 2022 में कीमतों के मामले में सबसे अधिक दबाव खाना पकाने के ईंधन की बढ़ी लागत की तरफ से आया है, इसके बाद खाद्य तेलों और सब्जियों का स्थान आता है.
यहां एक सावधानी बरतना जरूरी है: पूरे भारत में भोजन संबंधी भारी विविधता को देखते हुए, यह थाली और इसकी कीमत केवल प्रतीकात्मक है. इसके अलावा, इस थाली की रचना एनआईएन दिशा-निर्देशों के आधार पर की गयी है और यह केवल इस बात को दर्शाता है कि एक व्यक्ति को क्या-क्या उपभोग करना चाहिए और इसके अलग-अलग व्यक्तियों, और वे वास्तव में क्या उपभोग करते हैं, के आधार पर भिन्न होने की संभावना है.
उपभोक्ता बजट पर पड़ रहा दबाव
जून 2015 से उपभोक्ता बजट पर थाली की बढ़ी हुई लागत के प्रभाव का आकलन करने के लिए, हमने निम्नलिखित ग्रामीण मजदूरों की दैनिक मजदूरी दरों को शामिल किया – (i) सामान्य खेतिहर मजदूर; (ii) निर्माण कार्य में लगे श्रमिक; (iii) गैर-कृषि मजदूर (सामान ढोने, चढाने उतारने वाले लोगों सहित).
यदि पांच सदस्यों के परिवार का केवल एक सदस्य महीने के सभी दिन कमाता है, तो हल्के आहार की आवश्यकताओं के लिए, जून 2017 में, एक निर्माण श्रमिक की मासिक आय का 48 प्रतिशत प्रत्येक सदस्य को प्रतिदिन दो थालियां खिलाने के लिए उपयोग किया जाता था. जून 2022 में, खान-पान के उसी स्तर को बनाए रखने के लिए उसकी मासिक आय के लगभग 60 प्रतिशत की आवश्यकता होगी.
हमें यह याद रखने की जरूरत है कि इन थालियों में फल, दूध, दही, चाय, कॉफी और पशु प्रोटीन – जैसे कि अंडे, मांस और मछली – जैसी चीजें शामिल नहीं हैं, क्योंकि यह एक शाकाहारी थाली का उदहारण है. इन वस्तुओं को जोड़ने से थाली की कीमत और बढ़ जाएगी क्योंकि इनमें से कई वस्तुओं में 2020 की शुरुआत के बाद से उच्च मुद्रास्फीति दर्ज की गई है.
इन अनुमानों का क्या अर्थ है
– गरीब आबादी का पोषण स्तर और खराब होगा: खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के साथ, गरीबों द्वारा खपत कम करने या फिर महंगे लेकिन आवश्यक खाद्य पदार्थो, जैसे कि फलों और सब्जियों, को उनके सस्ते विकल्पों के साथ बदले जाने की संभावना है, यह उनके पोषण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है.
– व्यय के अन्य मदों पर प्रभाव: परिवार की आय का एक बड़ा हिस्सा भोजन सामग्री खरीदने के लिए उपयोग किये जाने के साथ गरीब परिवारों को खर्चों में कटौती करनी होगी और बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण व्यय के मदों पर इसकी गाज गिर सकती है.
– गरीबी की स्थिति के और खराब होने की संभावना: 2011 में खाद्य समाग्री के मूल्यों में आई वैश्विक तेजी के दौरान, एशियाई विकास बैंक (एशियन डेवलपमेंट बैंक-एडीबी) ने पाया था कि वैश्विक खाद्य कीमतों में 30 प्रतिशत की वृद्धि ने एशिया के विकासशील देशों में घरेलू खाद्य मुद्रास्फीति को 10 प्रतिशत तक बढ़ा दिया, जिससे 64 मिलियन अतिरिक्त लोग गरीबी के जाल में फंस गए. नौकरी गंवा देने वाले कई भारतीयों के लिए तो खाने-पीने के सामन की बढ़ी हुई कीमतें दोहरी मार की तरह हैं.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कोविड महामारी (अप्रैल 2020 से सितंबर 2022) की शुरुआत से ही पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत किये जा रहे मुफ्त राशन के अतिरिक्त आवंटन से गरीबों को काफी राहत मिली होगी. हालांकि, गेहूं की खरीद में आई कमी और खरीफ 2022 में चावल की कमजोर फसल की प्रबल संभावना के कारण सितंबर 2022 के बाद इन अतिरिक्त आवंटन की निरंतरता असंभव सी प्रतीत होती है.
भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी अगस्त 2022 वाली मोनेटरी पालिसी कमिटी (एमपीसी) की बैठक के दौरान अपने इस आकलन को साझा किया था कि खाद्य कीमतें अब चरम पर हैं और आने वाले महीनों में वे कम हो जाएंगी. हालांकि, इसके और बढ़ने का जोखिम अभी भी आ सकता है और इसके कई कारण हैं जैसे कि वैश्विक भू-राजनीतिक तनाव, पैक किए गए गेहूं के आटे, चावल और अन्य खाद्य पदार्थों पर जीएसटी लगाए जाने का असर, अक्टूबर और नवंबर में गेहूं के उत्पादन में कमी, और अन्य सारी बातों के साथ, भारतीय मानसून के उतार-चढाव द्वारा धान, अरहर, टमाटर और प्याज जैसी फसलें की पैदावार कम किया जाना और इसकी वजह से उनकी कीमतों पर दबाव आना.
इससे निपटने के लिए भारत सरकार को अधिक सहानुभूतिपूर्ण और चुस्त-दुरुस्त नीति निर्माण की आवश्यकता है. सबसे पहले, इथेनॉल उत्पादन के लिए एफसीआई के चावल को छोडे जाने पर पुनर्विचार करना चाहिए. हालांकि, राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति (एनबीपी) के तहत निर्धारित लक्ष्य हासिल करना महत्वपूर्ण है; मगर घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना, विशेष रूप से अनिश्चित उत्पादन के समय में, उसकी नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए. पूरे विवेक और दूरदर्शिता के साथ, सरकार को एक ओर गरीबों और खाद्य सामग्री के मामले में असुरक्षित लोगों और दूसरी ओर किसानों के हितों के बीच रणनीतिक रूप से और अधिक संतुलन हासिल करना होगा.
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