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Tuesday, 26 August, 2025
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मौन से टीम को संभालने वाला: पुजारा ने कैसे दी भारतीय क्रिकेट को नई पहचान

जब इतिहास लिखा जाएगा, तो कहा जाएगा कि सचिन ने सपना दिखाया, द्रविड़ ने निरंतरता दी, और पुजारा ने धैर्य को जीवित रखा, जिसने क्रिकेट को साधना का रूप दिया.

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भारतीय क्रिकेट के इतिहास को अगर ग़ौर से देखा जाए तो यह सिर्फ आंकड़ों, रिकॉर्ड्स और जीत-हार की कहानियों से भरा हुआ अध्याय नहीं है. यह एक सांस्कृतिक आख्यान भी है, जिसमें तकनीक, धैर्य, सामूहिकता और कभी-कभी आत्मबलिदान जैसी मानवीय गुणों की परख होती है.

इस परंपरा में कुछ नाम ऐसे हैं, जो भीड़ के बीच शांति की तरह खड़े रहते हैं. चेतेश्वर पुजारा उन्हीं में से एक हैं, एक ऐसे बल्लेबाज़, जिन्होंने रन बनाने की बजाय बल्लेबाज़ी को टिकाए रखने, और खेल को लय देने की कला से अपनी पहचान बनाई.

क्रिकेट में मौन की परंपरा

भारतीय क्रिकेट में बल्लेबाज़ी की परंपरा हमेशा धैर्य और संयम से जुड़ी रही है. शुरुआती दौर में पाली उमरीगर और विजय हजारे जैसे बल्लेबाज़ केवल रन बनाने के लिए नहीं, बल्कि विकेट थामे रखने और टीम को स्थिरता देने के लिए याद किए गए. टेस्ट क्रिकेट के लंबे सत्रों में गेंद दर गेंद टिके रहना ही सबसे बड़ा योगदान माना जाता था.

इस परंपरा को सुनील गावस्कर ने नई ऊंचाई दी. वेस्टइंडीज़ के तूफ़ानी गेंदबाज़ों के सामने उनका घंटों डटे रहना केवल तकनीकी कौशल नहीं था, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक प्रतिरोध थी कि धैर्य आक्रामकता से कहीं अधिक मूल्यवान हो सकता है.

पुजारा की कहानी उस दौर में शुरू हुई जब क्रिकेट में ठहराव और धैर्य लगभग भुला दिए गए थे. यह वह समय था जब एक गेंद खेलने का अर्थ अक्सर छक्का लगाने से जोड़ा जाने लगा था. लेकिन भारतीय बल्लेबाज़ी की गहरी परंपरा का मूल तो उसी ठहराव में था—जहां टिके रहना ही सबसे बड़ी कला थी. विजय मर्चेंट से लेकर गावस्कर तक, भारतीय बल्लेबाज़ी का केंद्र यही रहा कि शॉट की चमक से ज़्यादा क्रीज़ पर समय बिताना ही टीम का आधार बने.

चेतेश्वर पुजारा इसी परंपरा के मौन उत्तराधिकारी हैं. उनकी बल्लेबाज़ी एक निःशब्द साधना है, ग्यारह खिलाड़ियों के आक्रमण के सामने धैर्य की ढाल. जहां अन्य बल्लेबाज़ आक्रामक शॉट्स से इतिहास में जगह बनाने की कोशिश करते हैं, पुजारा केवल खड़े रहते हैं—मानो किसी शास्त्रीय गायक का लंबा आलाप, जो धीरे-धीरे राग की आत्मा को खोलता है.

2018–19 की ऑस्ट्रेलिया सीरीज़: पुजारा का शिखर

अगर पुजारा की बल्लेबाज़ी को समझना हो तो 2018–19 की ऑस्ट्रेलिया टेस्ट सीरीज़ का ज़िक्र अनिवार्य है. यह वही सीरीज़ थी, जिसमें भारत ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया की धरती पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की. और इस विजय के नायक कोई और नहीं, बल्कि चेतेश्वर पुजारा थे.

उन्होंने तीन शतक लगाए, कुल 521 रन बनाए और लगभग 30 घंटे बल्लेबाज़ी की. यह आंकड़ा केवल रनों का नहीं था; यह उस मानसिक धैर्य और अडिग संकल्प का प्रतीक था, जिसने पूरी टीम को ऊर्जा दी. कई बार उनके स्कोरबोर्ड पर बने रन से ज़्यादा उनकी बिताई हुई गेंदें जरूरी लगती हैं. क्योंकि वही गेंदें बाकी बल्लेबाज़ों को सहजता से खेलने का अवसर देती हैं.

क्रिकेट का यह पक्ष शायद दर्शकों को उतना आकर्षक न लगे. लेकिन यही क्रिकेट की रीढ़ है. उनकी बल्लेबाज़ी ने यह बताया कि कैसे क्रिकेट केवल आक्रामकता के साथ-साथ धैर्य और ‘नकारात्मक स्थान’ को भरने की कला भी है. जब वे क्रीज़ पर होते थे, तो भारतीय खेमे को यह भरोसा रहता था कि समय भारत के साथ है.

मौन की ताक़त

पुजारा क्रीज़ पर ऐसे जमते हैं, मानो किसान बंजर धरती में बीज डाल रहा हो, सूरज की तपिश और सूखे की मार के बीच भी, भविष्य की हरियाली पर यक़ीन रखे हुए. यह विश्वास ही उनकी पहचान है. वे धीरे-धीरे, एक-एक रेखा खींचते हैं, जैसे कोई साधक प्रतिदिन ध्यान की मुद्रा में बैठकर अपनी आत्मा को तराशता हो. उनके हर रन में, हर शॉट्स में, एक अनुशासन छिपा है.

उनका मौन गेंदबाज़ को तोड़ता है. उनकी तकनीक उन्हें गिरने नहीं देती. धीरे-धीरे गेंदबाज़ थकने लगते हैं और टीम के दूसरे बल्लेबाज़ उनके बनाए मज़बूत आधार पर सहजता से रन बना लेते हैं.

आज जब खेल तेज़ी की ओर झुक रहा है—टी20 और फ्रेंचाइज़ी लीग्स के बीच—पुजारा हमें याद दिलाते हैं कि क्रिकेट सिर्फ़ गति नहीं, बल्कि ठहराव का भी खेल है. उनकी बल्लेबाज़ी यह सिखाती है कि जीत का रास्ता धैर्य से भी बनता है.

कई बार आलोचकों ने उन पर धीमी बल्लेबाज़ी का आरोप लगाया, लेकिन शायद वही आलोचक भूल जाते हैं कि टेस्ट क्रिकेट का सौंदर्य इसी धीमेपन में है. क्रिकेट का यह रूप जीवन की तरह है, जहां हर पल जीतने के लिए नहीं, टिके रहने के लिए लड़ा जाता है.

परंपरा का विस्तार

भारत की बल्लेबाज़ी परंपरा केवल रन बनाने की प्रतियोगिता नहीं है; यह धैर्य, स्थिरता और प्रतिरोध की कहानी भी है. गावस्कर से द्रविड़ और लक्ष्मण से पुजारा तक यह एक निरंतर धारा रही है, जिसमें बल्लेबाज़ गेंदबाज़ी की तेज़ आंधी के सामने ढाल बनकर खड़े रहते हैं और टीम को संतुलन प्रदान करते हैं.

भारतीय क्रिकेट की इस लंबी परंपरा में यह साधना नई नहीं है; यही धारा है जिसमें सुनील गावस्कर का अविचल धैर्य, राहुल द्रविड़ की दृढ़ता और गंडप्पा विश्वनाथ की शांति मिलकर एक संगीत रचते आए हैं. पुजारा उसी राग का नवीन आलाप हैं—आधुनिक क्रिकेट की तेज़ रफ़्तार में धीमे पड़ते सुर, जो याद दिलाते हैं कि क्रिकेट केवल रन बनाने का खेल नहीं, बल्कि समय, सांस, अवसर और मानसिक शक्ति को साधने की कला भी है.

उत्कृष्टता केवल उपलब्धि का नाम नहीं है; यह हमारी जीवन दृष्टि में मौजूद होती है. वीवीएस लक्ष्मण को ही लीजिए. उनके करियर में शायद सचिन तेंदुलकर या द्रविड़ जैसी दीर्घकालिक स्थिरता नहीं थी, लेकिन उनका 281 रन का कोलकाता टेस्ट, ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़, भारतीय क्रिकेट की स्मृति में अमर है. वह पारी संकट की घड़ी में धैर्य, साहस और कल्पना का अद्भुत मिश्रण थी. यही वास्तविक उत्कृष्टता है—जहां तकनीक और प्रतिभा से अधिक महत्वपूर्ण बनता है मनुष्य का आत्मबल.

द्रविड़ को ‘दीवार’ कहा गया, लेकिन दीवार का भी तो कहीं विस्तार चाहिए. पुजारा ने वही विस्तार दिया. उनकी बल्लेबाज़ी में हमें द्रविड़ की झलक मिलती है, पर उनकी अपनी ख़ासियत भी है. द्रविड़ की बल्लेबाज़ी में अकादमिक अनुशासन था, जबकि पुजारा की बल्लेबाज़ी में एक साधक की तरह धैर्य है. चेतेश्वर पुजारा भारतीय क्रिकेट की वही शांत लय हैं, जो मैदान पर कम बोलते हैं, लेकिन अपने बल्ले से एक लंबी परंपरा को आगे बढ़ाते हैं.

आलोचना और स्वीकार्यता

क्रिकेट हमारे जीवन का हिस्सा है, एक स्मृति की नदी जिसमें खुशी, संघर्ष और धैर्य बहते हैं.

जब इतिहास लिखा जाएगा, तो कहा जाएगा कि सचिन ने सपना दिखाया, द्रविड़ ने निरंतरता दी, और पुजारा ने धैर्य को जीवित रखा, जिसने क्रिकेट को साधना का रूप दिया.

उनका करियर उतार-चढ़ाव से भरा रहा. वे कई बार लौटे और टीम को वही संतुलन दिए जिसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी. जब नई पीढ़ी तेज़ खेल में उलझी होगी, इतिहास याद रखेगा कि एक खिलाड़ी था जो मौन से टीम को संभाले रहा—चेतेश्वर पुजारा, भारतीय क्रिकेट का वह स्थिर और अविचल नायक.

(आशुतोष कुमार ठाकुर एक मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं और समाज, साहित्य और कला विषयों के जानकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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