सत्य से अधिक मुक्तिदायक कुछ नहीं होता. और वर्तमान में, भारत की सच्चाई ये है कि जब कोई अल्पसंख्यक समुदाय अपने धर्म का अनुपालन करता है, विशेष रूप से कोविड काल में, तो उसे दुर्भावनापूर्ण माना जाता है.
भारत में कोरोनोवायरस महामारी की शुरुआत के समय पिछले साल मार्च में मुसलमानों को जिहादी और सुपरस्प्रेडर करार दिया गया था, क्योंकि वे दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित तब्लीगी जमात के मरकज़ में एक धार्मिक आयोजन के लिए एकत्रित हुए थे, जिसमें करीब 3,000 विदेशी नागरिक भी शामिल थे, जिन्हें भारत सरकार ने वीज़ा और जरूरी अनुमति दे रखी थी.
एक अन्य उदाहरण किसानों के विरोध प्रदर्शन के तहत इस साल 26 जनवरी को लाल किले पर ‘निशान साहब’ का ध्वज फहराए जाने का है. हालांकि प्रदर्शनकारियों के एक समूह का ये कृत्य गैरकानूनी था, लेकिन उन्हें ‘खालिस्तानी आतंकवादी’ करार देने में कोई देरी नहीं की गई जोकि कथित रूप से भारत को बांटना चाहते हैं ताकि वे सिखों का अपना अलग देश बना सकें.
इससे ईसाई भी अछूते नहीं हैं जिन्हें निरंतर हमलों का निशाना बनाया जाता है और जिन्हें कथित रूप से मिशनरी कार्यों के सहारे गरीब हिंदुओं और आदिवासियों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए बाध्य करने के कारण ‘चावल की बोरी’ कहा जाता है. उपासना के संविधान प्रदत्त अधिकार के संरक्षण की दिशा में काम करने वाली संस्था पर्सीक्यूशन रिलीफ के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान ईसाइयों के खिलाफ अपराधों में 40.87 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई.
और महामारी की दूसरी लहर के दौरान अब जबकि संक्रमितों की संख्या महंगाई से भी अधिक तेजी से बढ़ रही है, हम 11 साल बाद होने वाले महाकुंभ का पूरे तामझाम के साथ हुए आयोजन के साक्षी हैं.
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कोविड के लिए महाकुंभ का महामौका
महाकुंभ आखिरी बार 2010 में हुआ था. और यदि आप बहुत ही आशावादी हों, तो इसे दुनिया के समक्ष पिछले एक साल से मौजूद निराशाजनक और अंधकारमय स्थिति में एक सुखद बदलाव के रूप में देखा जा सकता है – एक ऐसा आयोजन जहां लाखों की संख्या में भक्त विश्वास भाव के साथ एकत्रित होते हैं. लेकिन यदि आप एक व्यावहारिक व्यक्ति हैं, तो आपको खतरे की एक लाख पैंतालीस हजार तीन सौ चौरासी लाल झंडियां दिखाई देंगी, जोकि शुक्रवार को दर्ज किए गए एक दिन के सर्वाधिक कोविड मामलों की संख्या है. और ये संख्या जल्दी नीचे भी आती नहीं दिख रही है. हम दूसरी लहर के बीचोंबीच हैं.
वैसे ये केवल संख्याओं की बात नहीं है. ये अल्पसंख्यकों के मुकाबले उस भारी पूर्वाग्रह की बात है जोकि मीडिया रिपोर्टिंग के साथ-साथ ऐसे धार्मिक समारोहों को सरकार की अनुमति के रूप में भी देखा जा सकता है. शुक्रवार को, मथुरा में बांके बिहारी मंदिर में भक्तों की एक बड़ी भीड़ को अधिकारियों ने जुटने दिया, जहां कोविड संबंधी दिशानिर्देशों का बिल्कुल ही पालन नहीं किया गया. जहां मथुरा जिले के सीएमओ एएनआई को जोर देकर बताते रहे कि सभी मंदिरों और धर्मशालाओं को कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने के लिए कहा गया है, मंदिर में रिकॉर्ड वीडियो एक अलग ही कहानी कह रहे थे.
#Mathura | We have issued guidelines to all temple managment committees, dharamshalas, hotels to ensure people follow COVID19 protocols. We've deputed teams for collection of test samples and sanitisation at temples. There are 500 active cases in the district: Rachna Gupta, CMO pic.twitter.com/IPXQrcKB7K
— ANI UP (@ANINewsUP) April 9, 2021
तबलीगी जमात प्रकरण के दौरान गला फाड़कर चिल्लाने वाले मीडियाकर्मियों की आवाज अब खो गई दिखती है. ऐसा लगता है मानो केवल मुसलमान ही कोरोनोवायरस फैला सकते हैं और अन्य धार्मिक आयोजन प्रोटोकॉल में भारी ढिलाई के बावजूद कोविड मुक्त होते हैं.
सच कहा जाए, तो समस्या धार्मिक आयोजनों की नहीं है. लोग महामारी के मौजूदा दौर और इसके खतरों की बात जानते हैं. इसके बावजूद, अगर वे कोविड प्रोटोकॉल तोड़ने का विकल्प चुनते हैं, तो ये उनकी असंवेदनशीलता को दर्शाता है. असल समस्या दंडात्मक कार्रवाई के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच पक्षपात की है. जहां तब्लीगी जमात के सदस्यों पर आईपीसी, महामारी रोग अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम और यहां तक कि एनएसए के तहत मामले थोपे गए – वो भी ऐसे वक्त जब बाहर से आने वाले वायरस के बारे में भारत बहुत कम जानता था, और तमाम धार्मिक स्थल सामान्य रूप से संचालित हो रहे थे – लेकिन अब 1.7 लाख मौतों के बाद, अन्य समुदायों के उसी तरह के धार्मिक आयोजन सरकार की किसी भी तरह की कार्रवाई से मुक्त नजर आते हैं.
मस्जिदों में कोविड, मंदिरों में आस्था
समस्या खुलेआम किए जा रहे पक्षपाती व्यवहार को मीडिया की स्वीकृति की भी है. किसी मस्जिद में जुटी भीड़ की रिपोर्टिंग एक मंदिर में हुए जमवाड़े की रिपोर्टिंग से बहुत अलग होती है. हालांकि दोनों ही जगह लोगों का हुजूम जमा होना गलत हैं, लेकिन एक को जहां आस्था से जोड़कर दिखाया जाता है, वहीं दूसरे को आतंकवाद से. ये कोई नई बात नहीं है, लेकिन हमें इसे उजागर करने का कोई अवसर नहीं खोना चाहिए.
मुसलमानों के किसी काम का नहीं होने के धर्मांध विचार को हमारे टीवी स्क्रीनों पर खुलकर दिखाया जाता है. यूपीएससी के मुस्लिम परीक्षार्थियों को जिहादी बताया जाता है जोकि नौकरशाही में घुसकर जिहाद छेड़ने के लिए प्रयासरत हैं. इस तरह की धर्मांधता फैलाने वालों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती है. जब फ्रांस में सैमुअल पैटी नामक स्कूल के शिक्षक को एक व्यक्ति ने छात्रों को पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखाने के नाम पर मार डाला, तो ज्यादातर मुसलमानों ने खुलकर इस बर्बर कृत्य की निंदा की, साथ ही अपमानजनक कैरिकेचर पर अपनी नाराजगी भी व्यक्त की. मैंने भी कार्टूनों को लेकर अपनी नाखुशी जाहिर की थी. लेकिन इसके लिए हमें चरमपंथी करार दिया गया. ऐसा उस देश में, जहां ‘पद्मावती’ जैसी फिल्म में एक महारानी का चित्रण, जिसे कुछ लोग देवी मानते हैं, लोगों को हिंसा पर उतारू होने के लिए मजबूर कर देता है. दिलचस्प बात ये है कि जो लोग कार्टून (जिसे वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताते हैं) को लेकर मुसलमानों पर असहिष्णु होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें एमएफ हुसैन द्वारा ‘केवल शून्य में आवृत’ हिंदू देवियों के चित्र बनाने से ठेस लगी थी. अपनी उन कलाकृतियों के लिए हुसैन को मौत की धमकी दी गई थी और उन्हें निर्वासन में जाना पड़ा था.
वास्तव में सत्य से अधिक मुक्तिदायक कुछ नहीं होता. और सच्चाई ये है कि भारत में सांप्रदायिकता गहरे तक समाई हुई है. इससे उन लोगों का भ्रम खत्म हो जाना चाहिए जो अभी तक सांप्रदायिकता को महज कस्बाई संकीर्ण मानसिकता, जोकि ज्यादा मायने नहीं रखती, मानते रहे हैं. वास्तव में ये अब एक अखिल भारतीय शहरी मनोवृति बन चुकी है जो हमारे देश की आत्मा को खोखला कर रही है.
लेखिका राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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