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Thursday, 14 November, 2024
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सिख अलगाववाद के वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, किसान आंदोलन से अगर ढंग से न निपटे तो आग लग सकती है

पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरांवाले की आज कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति है जैसी 1970 के दशक में चे ग्वेरा की स्थिति युवाओं के बीच थी.

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देश के 72वें गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों में से कुछ तत्वों ने ऐतिहासिक लाल किले पर जो उत्पात मचाया उसकी मैं गहरी पीड़ा के साथ निंदा करता हूं. घटनाओं ने जो मोड़ लिया उसकी आशंका तो थी ही, भले ही वह पूरी तरह सही नहीं साबित हुईं. करीब एक सदी से तमाम जनांदोलनों में यही होता रहा है, जिसकी शुरुआत चौरी-चौरा कांड से क्यों न हुई हो, जिसके कारण महात्मा गांधी के सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन पर 1920 से 1922 के बीच विराम लग गया था.

दिल्ली में इस 26 जनवरी को हुई हिंसा ज्यादा परेशान करती है. इसे अंजाम देने वाले मुख्यतः सिख थे, अपनी पहचान की वजह प्रमुख भूमिका में दिखाई दे रहे थे.

इससे यह ‘पुष्टि’ हुई कि यह राजनीति प्रेरित अभियान था जिसे मीडिया का समर्थन पाए नव-राष्ट्रवादियों ने नवंबर के अंत में शुरू किया था कि किसानों का व्यापक आंदोलन खालिस्तान आंदोलन को फिर से जीवित करने के लिए किया गया है. नेताओं और उनके समर्थकों का फौरी मकसद किसान आंदोलन को भटकाना है लेकिन इसकी गूंज पंजाब में सुनी जा रही है. इससे राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा पैदा हो गया है, और इस पर काबू नहीं पाया गया तो यह सिख समुदाय के मानस में नस्लवाद सांप्रदायिकता के बीज बो देगा.


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भटकता आंदोलन

जन आंदोलन विभिन्न विचारों और लक्ष्यों के लिए काम करने वालों को एक लक्ष्य के लिए एकजुट करता है. इस मामले में किसानों का मानना है कि जो तीन नये कृषि कानून बनाए गए हैं उसके कारण उनकी जीवन पद्धति नष्ट हो जाएगी. यह आंदोलन अगर बिना कुछ हासिल किए लंबे समय तक खिंच गया तो इसमें शामिल अलग-अलग गुटों के दबे-छिपे विचार/लक्ष्य किसी योजना के तहत या अनजाने में ही उभरकर सामने आने लगते हैं. इसके सामूहिक नेतृत्व संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का स्वरूप अनौपचारिक जैसा है और यह आंदोलन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता. जो भी हो, एक लोकतंत्र में सेना को छोड़कर किसी नेतृत्व से सख्त नियंत्रण की अपेक्षा रखना अवास्तविक है.

इसके बाद, सरकारों का पारंपरिक तरीका यह रहा है कि उसकी इच्छा को चुनौती देने वाले जन आंदोलन को अपने समर्थकों और मीडिया के बड़े हिस्से के जरिए विकृत प्रचार करके बदनाम किया जाए. आंदोलन में अपने उकसाऊ तत्वों की घुसपैठ कराई जाती है और आंदोलन के प्रति किसी अनमने गुट को प्रोत्साहित करके हिंसा की कार्रवाई की जाती है ताकि आंदोलन को ही बर्बाद किया जा सके. अंत में (जैसा कि हम अब देख रहे हैं), सरकार जनमत को प्रभावित करके उसके समर्थन बल का प्रयोग करती है.सरकार की इच्छा लागू की जाती है आंदोलन की पहले की तरह जारी रखते हैं. यह सब 26 नवंबर से चल रहा था.

इस आंदोलन की ताकत यह थी कि इसका स्वरूप धर्मनिरपेक्ष, अनुशासित और स्वावलंबी किस्म का था, जो खासकर सिखों की सामुदायिक सेवा की परंपरा के कारण बना था. इसे देशभर के किसानों का समर्थन हासिल था. वैसे, दिल्ली की सीमाओं पर उनका धरना मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई क्षेत्र के जाट किसानों और जो दिल्ली के करीब रहते हैं और दूसरे राज्यों के छिटपुट किसानों के बूते चल रहा था.

पंजाब के किसानों के मामले में, आंदोलन की भावना को दो कारण प्रभावित कर रहे थे. पहला कारण यह कि विदेश में रह रहे सिख अपनी जड़ों से जुड़े रहे हैं और चंदे देकर पंजाब की राजनीति में अपनी सक्रियता बनाए रखते हैं. राज्य के हरेक परिवार का कम-से-कम एक बंदा विदेश में बसा हुआ है. इनमें से कुछ सिख खालिस्तान के घोर तरफदार हैं और वे सिखों के हरेक आंदोलन को दूर रहकर भी ‘हाइजैक’ करने की कोशिश करते हैं. दूसरे, किसान संघों के अधिकतर नेता (जरूरी नहीं कि उनके सदस्य भी) वामपंथी पृष्ठभूमि के हैं. उनमें से कुछ तो आज भी क्रान्ति का रोमानी सपना पाले हुए हैं. एसकेएम के सामूहिक नेतृत्व ने ऐसे तत्वों से साफ किनारा कर लिया लेकिन वह उन्हें प्रदर्शन स्थलों से हटा नहीं पाया.

दिल्ली की दहलीज पर यह जो गांधीवादी मेला लगा था उसे देशभर का समर्थन/सहानुभूति हासिल हुआ, हालांकि तीन कानूनों को वापस लिये जाने की उनकी अडिग मांग को लेकर कुछ गंभीर आपत्तियां भी थीं. ‘जवाबी हमला’ हिंदुत्ववादी विचारधारा के सत्ता दल के नेताओं और उनके राष्ट्रवादी समर्थकों ने शुरू किया, मीडिया का बड़ा हिस्सा इस आंदोलन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और राष्ट्र विरोधी तत्वों तथा खालिस्तानियों का आंदोलन बताना शुरू कर दिया. लेकिन इस सबसे आंदोलन की छवि पर कोई दाग नहीं लगा और यह शांतिपूर्ण तरीके से चलता रहा.

सत्ता दल को इस आंदोलन के विस्तार को देखकर डर लगने लगा कि इसका कहीं उलटा राजनीतिक असर न पड़े और एक प्रमुख वोट बैंक अलग-थलग न हो जाए, इसलिए सरकार ने वार्ता शुरू की और धीरे-धीरे उनकी अधिकतर मांगें मान ली, सिवाय एमएसपी की कानूनी गारंटी देने की मांग के. किसानों का तर्क था कि जब इन कानूनों में इतने सारे संशोधनों की जरूरत पड़ रही है, तो उसे जरूर रद्द कर दिया जाए और उनके साथ सलाह करके एमएसपी की गारंटी के साथ नये कानून बनाए जाएं. साथ-ही-साथ सरकार ने आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें भी जारी रखीं, जिसके चलते किसानों के मन में उसकी साख और गिर गई.

26 जनवरी को जो हुआ वह बेवजह नहीं हुआ

किसानों ने तीन मूल गलतियां कीं.

पहली, विकृत प्रचार से नाराज होकर उन्होंने वार्ताओं के बीच सख्त रुख अपना लिया— विवादास्पद कानूनों को रद्द करना ही होगा. संभव है कि किसान नेतृत्व इससे कम पर मान जाने को तैयार रहा हो लेकिन वह आंदोलनकारियों को राजी न कर पाया.

दूसरी, जनवरी के शुरू में उन्होंने 15-20 हज़ार ट्रैक्टरों की रैली करके समानांतर गणतंत्र परेड करके अपनी ताकत दिखाने और सरकार को शर्मिंदा करने का ऐलान कर दिया. इसने उग्रपंथियों और सरकार-प्रायोजित उकसाऊ तत्वों के लिए गड़बड़ी करने का बिल्कुल माकूल मौका उपलब्ध करा दिया.

तीसरी गलती यह कि 20 जनवरी को सरकार ने कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित करने की जो पेशकश की उसे कबूल करके अपनी जीत का ऐलान करने से चूक गए.

हिंसा और उपद्रव के लिए कौन जिम्मेदार?

गड़बड़ी का अपराध साबित करना आसान है. इतने वीडियो और फोटो उपलब्ध हैं कि गड़बड़ी करने वालों को पहचाना जा सकता है और उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है. एसकेएम और प्रशासन की नैतिक ज़िम्मेदारी भी तय करना आसान है. किसान और उनके नेता गणतंत्र दिवस पर विशाल ट्रैक्टर परेड की योजना बनाने के लिए जिम्मेदार तो हैं ही, जबकि उन्हें मालूम था कि ऐसे मामलों में घटनाओं पर किसी का नियंत्रण नहीं रह जाता.

ट्रैक्टर परेड की अनुमति देने के लिए प्रशासन नैतिक रूप से जिम्मेदार है, जबकि जनप्रदर्शनों से वह एक सदी से निपटता रहा है. प्रशासन इस बात के लिए भी जिम्मेदार है कि उसने उग्रपंथी तत्वों के खिलाफ पहले ही कदम नहीं उठाया जबकि 25 जनवरी की शाम ही वे पुलिस की आंखों के सामने एसकेएम के मंच पर कब्जा कर लिया था और तय रास्तों से रैली न निकालने के इरादे घोषित कर दिए थे. एसकेएम का दावा है कि उसने प्रशासन को इन तत्वों के इरादों के बारे में 25 जनवरी की रात 11 बजे सूचना दे दी थी और जरूरी कदम उठाने का अनुरोध किया था.

हिंसा करने वाले तत्वों के पीछे कौन था? मैं किसान नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं मानता क्योंकि उन्हें पता था कि ऐसा कुछ हुआ तो वह उनके आंदोलन के लिए मौत की घंटी होगी. ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ ने लाल किले पर खालिस्तानी झण्डा फहराने के लिए भारी इनाम की घोषणा की थी और उग्रपंथी तत्वों को अपनी विचारधारा के अलावा इस इनाम ने भी प्रेरित किया होगा. लेकिन कुछ सौ उपद्रवियों रैली के लिए निर्धारित समय से पहले सीमाओं पर बैरिकेडों को जिस आसानी से तोड़ा, तय रास्ते बदल दिए और उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्र में घुसकर लाल किले में घुस गए वह सब सरकार की अक्षमता या मिलीभगत (जैसा कि एसकेएम के नेताओं ने आरोप लगाया है) को लेकर गंभीर सवाल खड़े करता है. किसान नेताओं ने आरोप लगाया है कि लाल किले के प्राचीर पर घृणित तमाशे के मुख्य पात्र दीप सिद्धू और भाजपा में साठगांठ थी क्योंकि उसने 25 जनवरी को ही अपने इरादों की घोषणा कर दी थी और किसान नेताओं ने पहले ही चेतावनी दे दी थी, इसके बावजूद पुलिस उसे गिरफ्तार करने में विफल रही.

दुर्भाग्य से आम तौर पर किसानों में और खासकर पंजाब के सिखों के मन में यह धारणा बैठ गई है कि हिंसक प्रदर्शनकारियों और सरकार के बीच मिलीभगत थी.

किसान होने की पीड़ा

पंजाब में कोई अमीर किसान नहीं है. मेरा यह विचार उस गांव पर आधारित है जहां मैं रहता हूं. दो किशोरवय बच्चों वाले परिवार के पास औसतन 3 से 5 एकड़ तक जमीन है. अधिकतर किसान एमएसपी के आश्वासन के चलते गेंहू-धान की फसल ही करते हैं. प्रति एकड़ औसतन 20 क्विंटल गेंहू होता है. 1925 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी के हिसाब से प्रति एकड़ कमाई करीब 38,500 रुपये हुई. प्रति एकड़ लागत 11,000 रु. पड़ती है. इस तरह शुद्ध कमाई 27,000 रु. प्रति एकड़ हुई.

धान प्रति एकड़ औसतन 25 क्विंटल होता है. लागत प्रति एकड़ 14,000 रु. है. 1870 रु. की एमएसपी के हिसाब से शुद्ध आमदनी करीब 32,750 रु. हुई. इस तरह पंजाब का एक किसान परिवार की वार्षिक आय 1,80,750 रु. से 3,01,250 रु. के बीच, यानी प्रति महीने  15,062 – 25,104 रु. बैठती है. यह अकुशल और कुशल मजदूर की कमाई के बराबर है. इस गणना में पूरे परिवार की निजी मजदूरी की लागत का हिसाब नहीं लगाया गया है. यह गणना मेरे अपने अनुभव और दूसरे किसानों से हासिल किए गए आंकड़ों पर आधारित है.

1970 में जब जमीन की होल्डिंग आज की होल्डिंग के मुक़ाबले दोगुनी से लेकर चौगुनी बड़ी थी, तब से जो समृद्ध जीवन शैली चार दशकों से रही है उसे बनाए रखने के लिए बैंक से कर्जों, विदेश में बसे बच्चों से या कृषि के अलावा दूसरे काम में लगे परिजन से मिलने वाली सहायता काम आती है. राज्य में ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी हद तक इसी तरह चल रही है. प्रति एकड़ कर्ज की राशि 100,000 रु. है. परिवार के एक सदस्य को सही-गलत तरीके से विदेश भेजने में 15-20 लाख रु. खर्च होते हैं. उनकी गलती के कारण किसानों के बच्चे प्रतियोगी शिक्षा नहीं ले पाते और नौकरियों की दौड़ में शहरी युवाओं से पिछड़ जाते हैं. घर में एक-दो मवेशी पालना अब महंगा पड़ने लगा है. आज डेरी उद्योग के लिए बड़ा निवेश जरूरी हो गया है. पंजाब में औद्योगीकरण सीमित रहा है. जाट सीख किसानों को मजदूरी करना पसंद नहीं है. यहां जो थोड़े से उद्योग हैं वहां भी प्रवासी मजदूरों को ही पसंद किया जाता है.

कुल मिलाकर समृद्ध पंजाबी किसान की छवि एक छलावा है. अपनी दुखद स्थिति के लिए बेशक किसान ही खुद जिम्मेदार हैं. वे बदले समय और बाज़ार की खातिर दूसरे काम करने और खुद को ताकतवर बनाने में विफल रहे. एमएसपी ही उनके वजूद और बनावटी जीवन शैली का आधार है. अगले एक दशक में पंजाब में खेती करना पूरी तरह से नामुमकिन हो जाएगा. दूसरे राज्यों में भी यही हालात हैं, कई में तो बहुत बुरे हैं.


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कृषि में सुधारों की सख्त जरूरत है

मेरा अनुभव कहता है कि सुधारों की तुरंत जरूरत है. इस लिहाज से सरकार सही है. किसानों को भी इसका एहसास है. लेकिन समस्या कुछ और है. इसका स्वरूप सामाजिक-राजनीतिक किस्म का है और अनुभवजन्य ज्ञान यही कहता है कि खेती कोई आर्थिक गतिविधि नहीं है और इसे सरकारी सहारे की जरूरत है.

किसानों को लगता है कि नये कानून व्यवसायियों/ कॉर्पोरेटों के पक्ष में ज्यादा झुके हुए हैं. इसका एक उदाहरण यह है कि विवाद निपटारे की ‘असंवैधानिक’ व्यवस्था किसानों को कानूनी मामले दायर करने से रोकती है. किसानों को लगता है कि सरकार और मौजूदा बाज़ार ढांचे के सहारे के बिना आज-न-कल अर्थशास्त्र के नियम हावी हो जाएंगे और उनकी जीवन पद्धति बर्बाद हो जाएगी, वे गरीब हो जाएंगे.

कानूनी सहारे के बिना एमएसपी को जारी रखने का सरकारी वादा विश्वसनीय नहीं लगता, वह भी इसलिए कि ये सुधार अध्यादेश के जरिए लाए गए और संसद में बिना बहस और जांच-परख के पास करवाए गए. हमारे संघीय ढांचे में कृषि को राज्यों का विषय मानने की संवैधानिक परंपरा की उपेक्षा की गई है.

सार यह कि सुधार तो जरूरी हैं मगर सामाजिक तथा आर्थिक मसलों का भी ख्याल रखना जरूरी है. किसानों जिसकी खुशहाली के लिए ये कानून बनाए गए हैं उनको भरोसे में लेकर ही सुधार किए जाएं और उन विशेषज्ञों और सांसदों के कहने से ही न किए जाएं जिनका खेती से कोई वास्ता नहीं रहा है. शोषण को रोकने के लिए कानून में पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए. नए क़ानूनों में व्यवसायियों/ कॉर्पोरेटों पर किसानों की भलाई की कोई ज़िम्मेदारी नहीं डाली गई है, सिवाय व्यापार के. इसलिए इन क़ानूनों को स्थगित करने या रद्द करने और नए सिरे से शुरुआत करने के पक्ष में मामला बहुत मजबूत दिखता है.

किसान आंदोलन खत्म नहीं होने वाला है. वास्तव में, किसानों के मन में जो यह धारणा बनी है कि 26 जनवरी की घटनाओं में उपद्रवी तत्वों और सरकार के बीच मिलीभगत थी, वह धारणा आंदोलन को और बढ़ावा दे रही है. 28-29 जनवरी की रात गाजीपुर में जो हुआ वह एक उदाहरण है. किसानों का नैतिक पक्ष और मजबूत हुआ है और रहेगा. गेंद अब सरकार की पाले में है.

पंजाब के लिए खतरनाक संकेत

पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन पिछले तीन दशक से जीने-मरने की लड़ाई लड़ रहा है. उसका कोई नामलेवा नहीं है. यहां तक कि जरनैल सिंह भिंडरांवाले को उस गिनती में गिना जाता है जिसमें 1970 के युवा चे ग्वेरा दिखावे के तौर पर गिना करते थे. फिर भी, उग्रपंथ के सभी तत्व मौजूद हैं— एक सीमावर्ती राज्य, एक धार्मिक समुदाय जो अतीत की अपनी शान और त्याग पर गर्व करता है, जहां जमीन की मिल्कियत घट रही है, आय घट रही है, समृद्धि का ह्रास हो रहा है, औद्योगीकरण की कमी है और बेरोजगार युवाओं में उम्दा शिक्षा का अभाव है और उनमें शराब और ड्रग का चलन बढ़ गया है. हर परिवार का एक सदस्य विदेश में है और वहां खालिस्तान समर्थकों के बहकावे में उग्रपंथ की राह पकड़ सकता है.

इस सबके बावजूद, पंजाब में खलिस्तान के बारे में सोचने का किसी के पास समय नहीं है. अपनी संस्कृति के अनुरूप सिख महाराजा वाली जिंदगी जीने में मशरूफ़ हैं— खादा पीता लाहे दा, बाकी अहमद शाहे दा.

1980-90 के खूनी दशक से सबक ले चुके इस देशभक्त समुदाय को अगर ये नये राष्ट्रवादी और मीडिया का एक तबका सत्ताधारी दल के कथित समर्थन के बल पर खालिस्तानी घोषित करता रहेगा तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए इसके नतीजे बहुत ही भयावह हो सकते हैं. वक्त हाथ से न निकल जाए, इससे पहले सरकार को अपनी दिशा बदल लेनी चाहिए.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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