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Friday, 1 November, 2024
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आमिर खान ने तीन ‘माफियों’ को दिखाया, भारत को ऐसी हज़ार माफियां और चाहिए

आमिर खान प्रोडक्शन फिल्म ‘रूबरू रोशनी’ 26 जनवरी को रिलीज़ हुई. इसमें दिखाई गई कहानियां हत्या के आरोपियों को विक्टिम के परिवार द्वारा दी माफी से जुड़ी हैं.

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आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म ‘रूबरू रोशनी’ को 26 जनवरी के दिन रिलीज़ किया गया. इसमें तीन असाधारण कहानियों को एक डॉक्युमेंट्री के तौर पर दिखाया गया है. ये तीनों कहानियां हत्या के आरोपियों को पीड़ित के परिवार द्वारा दी गई माफी से जुड़ी हैं. ये हत्याएं धर्मांधता की वजह से हुई थीं.

एक कहानी के आरोपी को फांसी हो गई. दूसरी कहानी के आरोपी को अपने अपराध का एहसास हुआ. लेकिन तीसरी कहानी बहुत जटिल है. इसमें किसी एक व्यक्ति की माफी या अपराध बोध से बातें खत्म नहीं हो जातीं.

32 साल बाद भी खून के धब्बे वाली लॉकेट है अवंतिका के पास

ये कहानी 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़ी है. इन दंगों के बाद 1985 में एक पढ़े-लिखे सिख नौजवान रणजीत सिंह गिल (कूकी) ने दिल्ली के कांग्रेस नेता ललित माकन और उनकी पत्नी की बेरहमी से हत्या कर दी थी. ललित माकन को 38 गोलियां दागी गई थीं. इस दौरान उनकी बीवी आकर उनसे लिपट गईं. उनको अलग करने की कोशिश की गई, लेकिन नहीं हटने पर उन्हें भी मार दिया गया.

ललित माकन की बेटी अवंतिका उस दिन स्कूल गई हुई थीं. जब घर आईं तो मां-बाप की लाशें बिछी हुई थीं. उनके शरीरों से खून हटा दिया गया था. उनकी नानी ने उनसे एक वादा लिया था कि वे कभी रोयेगी नहीं, लेकिन इस डॉक्युमेंट्री फिल्म की शूटिंग के दौरान अवंतिका भावुक रहीं और कई बार रोईं. अवंतिका के पास आज भी उनकी मां के लॉकेट का पेंडेंट है, जिस पर खून के धब्बे आज भी लगे हुए हैं.

वे बताती हैं कि जैसे-जैसे वो बड़ी होती गईं वैसे-वैसे अपने माता-पिता के हत्यारों के लिए उनके मन में नफरत बढ़ती गई. वे उन हत्यारों को मार देना चाहती थीं. अवंतिका की कुछ तस्वीरों को भी इस डॉक्युमेंट्री में शामिल किया गया है. एक तस्वीर में वे बैंडिट क्वीन की तरह टीका लगाए बंदूक लिए खड़ी हैं. उनका ये रूप उनके भीतर बैठी नफरत का नतीजा रहा होगा. अवंतिका का अनाथ बचपन अपने नाना शंकर दयाल शर्मा के साथ बीता जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. वर्तमान कांग्रेस नेता अजय माकन अवंतिका के चाचा हैं.

फिर कत्ल करने वाले को दे दी गई माफी

1984 के सिख विरोधी दंगों के कितने भयानक परिणाम हुए और कितने दिमागों को इस घटना ने बर्बाद किया, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि रणजीत सिंह गिल (कूकी) पीएचडी करने के लिए अमेरिका जाने वाले थे और उन्होंने उस वक्त निकली एक मैगज़ीन ‘दोषी कौन’ पढ़कर, ललित माकन समेत तीन लोगों की हत्या करने की ठान ली. ललित माकन से उनका कोई लेना देना, जान पहचान कुछ नहीं थी. बस मैगज़ीन में नाम पढ़कर दिल्ली के कीर्ति नगर में रह रहे ललित माकन की हत्या कर दी.

रणजीत सिंह इस हत्या के बाद विदेश भाग गए, जहां वो 14 साल न्यूयॉर्क की एक जेल में बंद रहे. जब देश लाए गए तो निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाई. इस केस में उनके अलावा सुखदेव सिंह और सुखविंदर भी हत्या के आरोपी थे. भारत आने के बाद रणजीत ने लगभग चार साल और जेल में बिताये थे. एक बार वो बेल पर बाहर आये.
उस दौरान ललित माकन की बेटी अवंतिका जब एक चुनावी प्रचार के लिए अमृतसर गईं तब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि क्या वो कूकी से मिलना चाहेंगी? अवंतिका ने हां कर दी जबकि उन्हें कूकी का पूरा नाम नहीं पता था. वही अवंतिका रणजीत सिंह गिल को बेल दिए जाने की खबरों पर शीला दीक्षित के घर के सामने आमरण अनशन जैसे धरने पर बैठने की बातें कर रही थीं.

जब कूकी की बहन और परिवार अवंतिका से मिलने पहुंचे तो वहां कुछ देर सन्नाटा पसर गया. अवंतिका को पता चल चुका था और सन्नाटे को रोने की सिसकियों ने तोड़ा. अवंतिका की शिकायतें थीं कि उसके माता-पिता को क्यों मारा? उसे क्यों अनाथ किया गया? कूकी की सफाइयां थीं कि वो सियासी हवा ही ऐसी थी. हालांकि वो उनकी माता जी को नहीं मारना चाहते थे. ये मुलाकात बाद में चलकर कूकी को जेल से आज़ाद कराने में कामयाब साबित हुई. अवंतिका ने शीला दीक्षित से उन्हें रिहा करने की सिफारिश की. कूकी को छोड़ दिया गया.

इस फिल्म में कूकी से पूछा जाता है कि उस घटना के बारे में वे आज क्या सोचते हैं? तो वे कहते हैं कि हिंसा का रास्ता गलत था. हिंसा सिर्फ सामने वाले को ही घायल नहीं करती, बल्कि आपको भी उतना ही घायल करती है. बगावत का रास्ता अलग होना चाहिए, हिंसा नहीं. कूकी ‘बगावत’ अपने शब्दों से हटाते नहीं हैं. जबकि कूकी अब एक ब्लॉगर और पत्रकार के तौर पर काम करते हैं. शादी भी कर चुके हैं और उनकी एक बच्ची भी है.

पर क्या ये मामला एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की हत्या तक ही सीमित था?

1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी के सिख बॉडी गार्ड्स ने उनकी हत्या कर दी. इसके बाद दिल्ली के अलावा कई शहरों में सिख विरोधी दंगे हुए. इन दंगों के जख्म अब भी ताज़ा हैं. आज भी उनके न्याय के लिए तमाम लोग कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

बाद में मनमोहन सिंह भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बने और उन्होंने सिख दंगों के लिए कांग्रेस की तरफ से माफी मांगी. अभी राजीव गांधी मसले पर आम आदमी पार्टी के नेता एचएस फुल्का ने पार्टी ही छोड़ दी. सिखों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने को लेकर केंद्र सरकार ने उनको इसी गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री से सम्मानित किया है.

आज के सोशल मीडिया पर फैली बातों को देखकर ऐसा लगता है कि 1984 में ही सिख विवाद शुरू हुआ, लेकिन इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है. इससे काफी पहले ही धर्म के नाम पर अलग राज्य की मांग को लेकर सिख समुदाय में रोष फैला हुआ था. आज़ादी के बाद से ही अकाली दल ‘पंजाबी सूबा’ की लड़ाई लड़ रहा था. सिखों की मांग सबसे पहले धर्म के नाम पर पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह एक स्वशासित राज्य बनाने को लेकर शुरू हुई.

इंदिरा गांधी शुरू से ही धर्म के नाम पर अलग राज्य बनाए जाने के खिलाफ थीं, लेकिन बाद में भाषा के आधार पर अलग राज्य की मांगों के सामने सरकार को झुकना पड़ा. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्य बनने के बाद पंजाब की मांग भी स्वीकार कर ली गई. लेकिन राजनीति करने वाले लोग जानते थे कि ये मांग सिर्फ अलग राज्य की मांग न होकर एक अलग देश की मांग थी. इसलिए सरकारें इस मांग को आज़ादी के बाद से ही टालती रही थीं.

जिसका डर था वह हुआ भी. खालिस्तान की मांग के जरिए पंजाब में आतंकवाद पनपा. स्वर्ण मंदिर गोला, बारूद और हथियारों का ठिकाना बन गया. अकाल तख्त की आड़ लेकर आतंकवाद फैलाया गया.

हत्याओं का सिलसिला रुका नहीं

1981 में अकाली दल के नेता जत्थेदार जगदेव सिंह ने खालिस्तान की मांग सामने रखी. कहा कि इस राज्य का संविधान भारत के संविधान से अलग होगा. उसके बाद भिंडरावाले, अमरीक सिंह और जरनैल सिंह ने हथियार उठा लिए. राज करेगा खालसा के नारों से पंजाब गूंज उठा. इसी साल इन घटनाओं का खुलकर विरोध करने वाले पंजाब केसरी के संस्थापक और सांसद लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई. आगे चलकर उनके बेटे को भी आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया.

पाकिस्तान, कनाडा, यूके और चीन जैसे देशों ने इन आतंकी समूहों को समर्थन दिया और हथियार मुहैया कराए. आखिर तक अकाली दल ने साफ नहीं किया कि उन्हें भारत से अलग राज्य चाहिए या भारत से अलग देश चाहिए. एक राज्य के लिए उठी मांग एक अलग देश तक आ पहुंची. अब ये बात भारत की एकता, अखंडता और सुरक्षा की थी.

1982 को हुए एशियन गेम्स में अकाली दल द्वारा दखल डालने की धमकी पर हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल ने बसों और ट्रेनों से आ रहे पंजाब के हर व्यक्ति की चेकिंग कराई. यहां तक कि अधिकारियों और बड़े अफसरों को भी नहीं बख्शा गया. सिखों की पगड़ियां उतरवाकर तलाशी ली गई. बाद में कहा गया कि ये आज़ाद भारत में होने वाला पहला सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय इवेंट था. इसलिए अकाली दल की धमकी को गंभीरता से लिया गया. हालांकि इससे होने वाला नुकसान हो चुका था. सिख समुदाय में इस घटना को लेकर काफी नाराज़गी फैल चुकी थी.

सरकार और अकाली दल के बीच की बातचीत से कोई हल नहीं निकला. आतंकी दलों को अकाली दल ने समर्थन देना शुरू कर दिया. इसका परिणाम जून 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के रूप में सामने आया. इसके चार महीने बाद देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो सिख बॉडी गार्ड्स ने उनकी हत्या कर दी.

इस घटना के बाद पंजाब के कुछ सिख समुदायों ने कथित तौर पर सड़कों पर बसें रोककर हिंदुओं को मिठाई बांटी. इन हरकतों ने दोनों समुदायों के बीच नफरत की खाई को और बढ़ाया, जिसका अंजाम हज़ारों निर्दोष सिखों को 1984 के दंगों में भुगतना पड़ा. इसके बाद सिख समुदाय की भी प्रतिक्रिया आई. आतंक की कई घटनाएं हुईं. 1987 में हरियाणा के फतेहाबाद के नज़दीक एक रोडवेज़ बस से 38 हिंदू सवारियों को उतारकर पॉइंट ब्लैंक पर गोली मार दी गई. सवारियों को मारने से पहले ‘सत नाम वाहे गुरु’ बुलवाया गया. सिर्फ एक सिख और एक ड्राइवर बच सके. ड्राइवर मरे हुए लोगों के बीच सांस रोककर पड़ गया था. आतंकवादी खालिस्तान कमांडो फोर्स से थे. लगभग 10 साल और लगे पंजाब से आतंक खत्म करने में. तब तक हर समुदाय के कई निर्दोष लोग मारे जा चुके थे.

रणजीत सिंह गिल (कूकी) का बगावत शब्द का न भूल पाना, हमें उस खाई की याद दिलाता है जिसे अभी तक भरा नहीं गया है. ये खाई सिर्फ एक व्यक्ति की माफी से नहीं भर सकती है. अभी ज़रूरत है ऐसे ही कई लोगों की जो अपने जख्मों के साथ सामने वाले पक्ष को मुआफ़ कर दे. ये एक नई शुरुआत होगी. क्योंकि इतिहास को बदला तो नहीं जा सकता पर वर्तमान और भविष्य को तो बनाया जा सकता है.

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