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Saturday, 12 October, 2024
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भारतीय संविधान में राम के चित्र की अहमियत क्यों है

भारतीय संविधान तैयार होने के साथ ही इतिहास के चुनिंदा महात्माओं, गुरुओं, शासकों एवं पौराणिक पात्रों को दर्शाते हुए संविधान के अलग-अलग भागों में सजाया. प्रत्येक चित्र भारत की अनंत विरासत से एक सन्देश और उद्देश्य को व्यक्त करता है .

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संविधान सभा में जब भारत के नए संविधान की रचना अंतिम चरण में थी, तब डॉ. भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत ड्राफ्ट के पारित होते ही संविधान की मुख्य प्रतिलिपि (Original copy) में कला-कृतियों के चित्रण पर चर्चा हुई.

इस कार्य हेतु सर्व सम्मति से उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार श्री नन्दलाल बोस, शांति निकेतन को अधिकृत किया गया. बोस एवं उनकी टीम ने भारतीय इतिहास के चुनिंदा महात्माओं, गुरुओं, शासकों एवं पौराणिक पात्रों को दर्शाते हुए विभिन्न चित्रों को संविधान के अलग-अलग भागों में सजाया. प्रत्येक चित्र अपने स्थान पर भारतवर्ष की अनंत विरासत से एक सन्देश और उद्देश्य को व्यक्त करता है.


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मौलिक अधिकार और भगवान राम

संविधान का भाग 3, जिसमें हमारे मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) पर चर्चा हैं, पर श्री राम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी का चित्र है. यह समझना आवश्यक होगा कि क्यों संविधान के इस भाग में श्री राम का चित्रण ही सबसे उपयुक्त चयन है? भारतीय संविधान के लागू होते ही, समस्त अधीन प्रजा जनों को उनके मौलिक अधिकार प्राप्त हुए.

लगभग 800 वर्षों के विदेशी शासकों के उपरांत यह पहला अवसर था जब विस्तृत रूप से पूरे राष्ट्र को स्वराज मिला था. मौलिक अधिकारों के लागू होते ही सभी नागरिकों को देश में विभिन्न प्रकार के भेदभावों से मुक्ति मिली. अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार के अनुसार संविधान एवं कानून के समक्ष धनी अथवा निर्धन, शक्तिशाली अथवा कमजोर सब सामान हैं.

अनुच्छेद 15 इसके लिए निहित प्रावधानों द्वारा राजकीय व गैर-राजकीय व्यक्ति एवं संस्थाओं को नागरिकों के मध्य भेदभाव के बिना समान व्यवहार करने हेतु बाध्य किया गया है.

अनुच्छेद 21 में ‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता’ अर्थात जीने के अधिकार (Right to Life) के अंतर्गत सभी को सम्मान पूर्वक जीवन यापन के साथ-साथ मृत्यु के पश्चात गरिमामय अंतिम संस्कार का भी अधिकार प्राप्त है.

समानता का अधिकार ये भी कहता है कि किसी विवाद की स्थिति में हर व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया में स्वयं का पक्ष पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का पूरा अधिकार है. भारत का संविधान किसी के अधीन न होकर अपने नागरिकों के अधिकारों का एक स्वतंत्र एवं सार्वभौम संरक्षक हैं.

श्री राम का दयालु एवं निष्पक्ष व्यक्तित्व सर्व विदित है, साथ ही उनके राम-राज्य की परिकल्पना में भी मानव जीवन के ये भाव आत्मसात है. विभिन्न रामायणों एवं लोक कथाओं में हमें प्रजा के प्रति श्री राम के अपारंगत एवं मानवीय मनोभावों के दर्शन होते हैं, जो हमारे आज के संविधान के मूल्यों के सदृश्य हैं.

श्री राम ने उस समय जातिगत भेदभाव किये बिना अपने से अवर जाति के निषादराज से मित्रता की. उन्हें वही सम्मान दिया जो उनके बाकी राज मित्रों को मिला. रंगभेद या नस्ल भेद को अस्वीकार करते हुए रघुनन्दन ने एक भीलनी शबरी माता के झूठे बेर स्वीकारे. एक राजा के रूप में वह अपने अधीन प्रजा को सामान रूप से देखते हुए उनके अधिकारों के संरक्षक थे.

उन्होंने अपने शत्रु एवं मानवीय प्रवित्ति के विरोधियों (रावण और ताड़का) का युद्ध में वध करने के पश्चात् उनका ससम्मान अंतिम संस्कार सुनिश्चित किया. जब श्री राम को यह पता चला कि महाराज दशरथ ने उनका राज्याभिषेक घोषित कर दिया है, तो यह बात सुनते ही उनका पहला प्रश्न था कि उनके तीन भाइयों के लिए क्या सुनिश्चित किया गया है? वे मानते थे की उनके भाइयों का भी अयोध्या राज पर समान अधिकार है और उन्हें भी बराबर राज्य मिलने चाहिए.


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श्री राम और ‘रूल ऑफ़ लॉ’  

एक और प्रसंग के अनुसार करुणानिधान श्री राम ने किन्नरों की उनके प्रति श्रद्धा और समर्पण को देखते हुए उन्हें वरदान दिया था.

युद्ध की परिस्थितियों में भी उन्होंने शत्रु राज्य से आये अनुयायियों को शरण दे कर उनकी रक्षा का आश्वासन दिया था. जब विभीषण श्री राम से मिलने आये तो सुग्रीव ने उन्हें चेताया कि विभीषण शत्रु का भाई है. श्री राम ने उन्हें समझाते हुए कहा कि उनसे न्याय मांगने आये हर व्यक्ति के पक्ष को सुनने और उसकी रक्षा करना उनका स्वभाव व धर्म दोनों है.

उस समय की व्यवस्था के अनुसार वह स्वयं भी अपने राज धर्म एवं मानव धर्म से परिबद्ध थे, जिसकी तुलना आप आज के ‘रूल ऑफ़ लॉ’ से कर सकते हैं. शक्तिशाली, लोकप्रिय एवं राजा होने के बाद भी कभी श्री राम ने निर्धारित नियमों का उल्लंघन नहीं किया न ही स्वयं को धर्म से ऊपर रखा.

जब हम राम के शासन की आकांक्षा करते हैं तो हमारा तात्पर्य होता है – ‘रामराज्य’, न कि ‘रामराज’. किसी राजा की उपस्तिथि में सुशासन होना उस राजा के कौशल की सफलता है. किन्तु ‘राज्य’ की सफलता किसी राजा के ‘राज’ के कालखंड की सफलता से भिन्न है. राम के राज्य का अर्थ है प्रजाहित में सुरक्षित, संपन्न, प्रगतिशील व सकारात्मक राज्य की स्थापना. इसी प्रकार हमारे संविधान ने भी भारत को व्यक्ति केंद्रित ‘राज’ तक सीमित नहीं रखा है. अपितु संविधान एक ‘प्रजा केंद्रित’ राज्य को स्थापित करता है. एक ऐसा सकारात्मक व प्रगतिशील राज्य जिसकी परिकल्पना राम के आदर्शों का प्रतिविम्ब ही है.

यह स्वीकारना गलत नहीं होगा कि भारत के सांस्कृतिक, नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के आदर्श श्री राम का व्यक्तित्व एवं जीवन दर्शन हमारे संवैधानिक मूल्यों के समरूप है.

(लेखक, तेजस्वी सूर्या, सांसद, लोक सभा एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता युवा मोर्चा एवं सुयश पाण्डे सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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7 टिप्पणी

  1. Bhartiya samvidhan sabhi dharm ko saman samaan deta hai na ki vesh ram ki ram rajya me keval uch varg ka hi sasan tha

  2. आप किसी धरम विशेष को बढ़ावा दे रहें है। जबकि सविंधान किसी धरम विशेष को नहीं मानता ।ये एक गणतन्त्र रूप मे है जो जनता द्वारा जनता के लिए जनता के लिए शासन है। इस तरह कि टिप्पड़ी करना आपके लिए सही नहीं है। संविधान मे राम का चित्रांकन सही नहीं।ये चित्रांकन धरम विशेष को बढ़ावा देता है। आपसे अनुरोध है इस तरह कि बातें ना फैलाये जिससे व्यक्ति संविधान को ना मानकर भगवान को ज्यादा बढ़ावा दे। इससे क़ानून व्यबस्था और उसके निजी नजरिये मे गलत भाव होगा। संविधान धर्म निरपेक्षता पूर्ण होना हि उचित है।।।।

  3. Ramayan matra ek kalpna hai valmiki ji ki ..waqt hai samvidhan ko manne ka
    By the way apna bhot achha example pesh kiya nishpakshta ka ?

    • बताना जरा रामसेतु किसके अब्बा ने बनवाया था। जिस पर राम शब्द खुदा हुआ मिलता है

  4. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तो राम की क्या जरूरत है भारत में अनेक धर्म के लोग रहते हैं जैसे बुद्धिस्ट इस्लाम जैन क्रिश्चियन आदि लोग रहते हैं तो श्रीराम किसी छाया क्यों

  5. राजु बौद्ध जी, यह लेख डा.अंबेडकर जी द्वारा रचित संविधान के एक पृष्ठ पर उकेरित श्री राम जी की तस्वीर से है और बाबा साहेब मेरे और आपसे ज्यादा और पहले के बौद्ध हैं, और लेखक ने अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।

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