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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतक्या मुसलमानों को EWS के तहत लाना चाहिए? कोटा धर्म के आधार पर नहीं, ऊंच-नीच के आधार पर होना चाहिए

क्या मुसलमानों को EWS के तहत लाना चाहिए? कोटा धर्म के आधार पर नहीं, ऊंच-नीच के आधार पर होना चाहिए

बीजेपी द्वारा कर्नाटक ओबीसी कोटे में बदलाव अशराफों को नाराज करता है, यह वही बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने मुसलमानों के बीच जातिवाद को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था.

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27 मार्च को, मुस्लिम, वोक्कालिगा और बंजारा समुदायों ने राज्य में मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को रद्द करने के कर्नाटक सरकार के फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. बसवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने इसके बजाय, वीरशैव-लिंगायत और वोक्कालिगा के दो प्रमुख समुदायों के बीच कोटा वितरित किया और मुसलमानों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की श्रेणी में रखा, जिससे दलित और लिंगायत गुटों से कुछ समर्थन मिला. आक्रोश के जवाब में, गृहमंत्री अमित शाह ने तर्क दिया कि संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान नहीं करता है.

शाह का यह आकलन सही है कि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं होना चाहिए. मुस्लिम समुदाय में एक क्रमबद्ध स्ट्रक्चर (hierarchical structure) है, और उसी के अनुसार कोटा दिया जाना चाहिए. केंद्र और कर्नाटक की ओबीसी लिस्ट में पसमांदा मुसलमान पहले से ही शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, अनुसूचित जनजाति के मुसलमान, जैसे कि सिद्दी और टोडा, अपनी संबंधित श्रेणियों में आरक्षण प्राप्त करते हैं. इस प्रकार, यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम आरक्षण क्रमबद्ध संरचना (hierarchical structure) पर आधारित होना चाहिए, न कि धर्म पर.

लेकिन एक अहम सवाल बना हुआ है: क्या ईडब्ल्यूएस श्रेणी के तहत मुसलमानों को स्थानांतरित करना वास्तव में न्याय करेगा?

क्या हैं कर्नाटक सरकार के फैसले के मायने

25 मार्च को, बोम्मई कैबिनेट ने 3ए और 3बी आरक्षण श्रेणियों को खत्म कर दिया. राज्य सरकार ने मुसलमानों को मिलने वाले 4 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को हटा दिया है. बदले नियमों के तहत मुसलमानों को ईडब्ल्यूएस श्रेणी में लाया गया है. नतीजतन, वोक्कालिगा और लिंगायत को अब श्रेणी 2 के तहत डाल दिया गया है, जिसके प्रावधान वर्तमान में ओबीसी (2ए) और अल्पसंख्यकों (2बी) को आरक्षण प्रदान करते हैं. कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस फैसले की सिफारिश की और 23 दिसंबर 2022 को मुख्यमंत्री को एक रिपोर्ट सौंपी.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, वोक्कालिगाओं ने अपना 4 प्रतिशत कोटा बढ़ाकर 12 प्रतिशत करने के लिए जोर दिया, जबकि पंचमसालियों (लिंगायत समुदाय के एक उप-प्रजाति) ने 2ए आरक्षण श्रेणी के तहत खुद को शामिल करने की मांग की. जाहिर है, इन मांगों को पूरा नहीं करने से कर्नाटक में भाजपा की चुनावी योजना खतरे में पड़ सकती है.


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शाह के इस दावे के बावजूद कि आरक्षण धार्मिक पहचान पर आधारित नहीं होना चाहिए, वास्तविकता यह है कि मुस्लिम ओबीसी पहले से ही कर्नाटक की ओबीसी सूची में शामिल हैं, सिवाय उच्च जाति के अशराफ मुस्लिमों (जैसे कच्छी, नवायत, बोहरा, सैय्यद, शेख, पठान, मुगल, महदिवा और कोंकणी या जमायती मुस्लिम) के. इच्छुक लोग राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की वेबसाइट पर बिंदु संख्या 179 देख सकते हैं, जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अन्य मुसलमानों को ओबीसी सूची में शामिल किया गया है.

पिछले 4 प्रतिशत आरक्षण का उद्देश्य पसमांदा मुसलमानों के लिए था और पसमांदा मुसलमानों को ईडब्ल्यूएस श्रेणी में रखने का कोई मतलब नहीं है. ईडब्ल्यूएस श्रेणी में केवल अशराफों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए जो यह सुनिश्चित करेगा कि केवल जरूरतमंद उच्च जाति समुदाय के सदस्य ही आरक्षण से लाभान्वित हो सकें.

बोम्मई का कदम पसमांदा के साथ भेदभाव करता है

बोम्मई की कार्रवाई पसमांदा मुसलमानों के प्रति भेदभाव को दिखाती है. यह चिंता का विषय है कि सरकार पसमांदा मुसलमानों की बेहतरी के लिए काम करने और वाजिब लाभ देने के बजाय ओबीसी मुसलमानों को ईडब्ल्यूएस श्रेणी में डाल रही है. सरकार को पसमांदा मुसलमानों की एक सूची तैयार करनी चाहिए, अगर अशराफ समुदाय का कोई सदस्य इसमें है तो उन्हें सूची से हटा देना चाहिए, और मुस्लिम समाज की जाति या क्रमबद्ध संरचना के आधार पर ओबीसी आरक्षण प्रदान करना चाहिए.

सभी मुसलमानों के साथ एक जैसा बर्ताव करते हुए उन्हें ईडब्ल्यूएस श्रेणी में स्थानांतरित करने के बजाय, भाजपा को समुदाय के भीतर वास्तविक सामाजिक न्याय लाने के लिए इन सुधारात्मक उपायों को लागू कर सकती है. दुर्भाग्य से, पर संभवतः इसकी चुनावी कैलकुलेशन के कारण पार्टी ऐसा करने के लिए अनिच्छुक प्रतीत होती है.

हालांकि, जातिवाद मुस्लिम समुदाय के भीतर मौजूद है, लेकिन अशराफ बुद्धिजीवियों के इस दावे के कारण कि यह मौजूद नहीं है, इसे आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी गई है. हालांकि, मुसलमानों के लिए ओबीसी श्रेणी- जैसा कि सच्चर समिति की रिपोर्ट में उजागर किया गया है- इस वास्तविकता पर प्रकाश डालती है कि समुदाय के भीतर पिछड़े वर्ग मौजूद हैं और वे आरक्षण के हकदार हैं. कई पसमांदा जातियां ओबीसी श्रेणी में आती हैं और सही मायने में आरक्षण का लाभ उठा रही हैं.

1992 में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने के बाद, वही अशराफ बुद्धिजीवी, जिन्होंने पहले जातिवाद और आरक्षण को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे. दुर्भाग्य से, कुछ पसमांदा मुसलमानों ने गलत सूचना या जागरूकता की कमी के कारण ऐसी मांगों में भाग लेना शुरू कर दिया, भले ही वे पहले से ही आरक्षण से लाभान्वित हो रहे थे.

अशराफों का पाखंड

अशराफ बुद्धिजीवियों के पाखंड के उदाहरण के रूप में आंध्र प्रदेश को लिया जा सकता है. यहां, शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को जाति-आधारित आरक्षण प्रदान करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव का मुस्लिम यूनाइटेड एक्शन कमेटी और अन्य मुस्लिम संगठनों जैसे अशराफ उलेमा संगठनों द्वारा इतना ज्यादा विरोध किया गया कि 2013 में इसके खिलाफ ‘फतवा’ तक जारी कर दिया गया.

उन्होंने दावा किया कि यह कदम इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और इससे मुस्लिम समुदाय के भीतर और विभाजन हो सकता है. साथ ही, मुस्लिम समुदाय के शुभचिंतक होने का दावा करने वाले अशराफ राजनीतिक नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इसके बजाय ‘मुस्लिम पहचान’ के आधार पर आरक्षण की मांग करते हुए इस फतवे का समर्थन किया.

अशराफ बुद्धिजीवियों की बेईमानी के कारण पसमांदा मुसलमानों के साथ हुए अन्याय के अलावा, उन्हें हमेशा सामूहिक मुस्लिम पहचान और अल्पसंख्यक उद्देश्यों के नाम पर उनके हिस्से से वंचित रखा गया है. उदाहरण के लिए, जबकि पसमांदा मुस्लिम ओबीसी श्रेणी के तहत बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में आरक्षण के लिए पात्र हैं, उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में समान कोटा नहीं मिलता है क्योंकि एएमयू में इंटरनल रिज़र्वेशन है. इस असमानता के परिणाम स्पष्ट हैं.

पसमांदा मुसलमान आरक्षण के हकदार हैं, लेकिन यह उनकी जाति और वर्ग पर आधारित होना चाहिए. धर्म के आधार पर कोटा समाप्त करने के लिए सुधारात्मक उपाय करना महत्वपूर्ण है. यह नीति उन सभी जगहों पर लागू होनी चाहिए जहां वर्तमान में मुस्लिम आरक्षण लागू है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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