काला सागर (ब्लैक सी) में तैनात रूसी नौसैनिक बेड़े का अग्रणी युद्धपोत ‘मोस्कोवा’ यूक्रेन के तट पर डूब गया. इसके नष्ट होने की वजहों को लेकर तुरंत विवाद भी उभर आया. रूस ने इसमें अचानक आग लग जाने को वजह बताया, तो यूक्रेन ने दावा किया कि उसकी दो नेप्चून मिसाइलों ने उसे नष्ट कर दिया.
अमेरिकी अधिकारियों ने यूक्रेन के दावे का समर्थन किया है. अब सच क्या है, यह समय ही बताएगा. लेकिन फिलहाल इस पर उभरे विवाद ने यूक्रेन युद्ध को और तेज कर दिया है. युद्ध भौतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से और विस्तार पा रहा है. युद्ध में आई तेजी का आकलन करने में चुनौती यह है कि भौतिक कारणों का तो हिसाब लगाया जा सकता है लेकिन इसके मनोवैज्ञानिक कारण का रूप अस्पष्ट और रहस्यमय है तथा बहस का कारण बन सकता है.
‘मोस्कोवा’ का नष्ट होना रूस की नौसैनिक शक्ति को मनोवैज्ञानिक झटका है. इस नुकसान के साथ वह भौगोलिक नुकसान भी जुड़ा है जो काला सागर में रूस की पहुंच सीमित हो जाने के कारण हुआ है. इस सागर में गतिविधियों पर तुर्की का नियंत्रण है जो 1936 के मोन्त्रुई समझौते के कारण उसे हासिल है. इस समझौते के अनुसार तुर्की को अधिकार हासिल है कि युद्ध काल में वह काला सागर और भूमध्य सागर को जोड़ने वाले बोस्फोरस और दार्दानेलेस जलडमरूमध्य से पोतों की आवाजाही को नियंत्रित करे. इसमें छूट उन्हीं युद्धपोतों को मिलेगी जो अपने अड्डे की ओर लौट रहे हों.
मार्च के शुरू में तुर्की ने सभी पक्षों से इस समझौते का सम्मान करने की अपील की. अमेरिका ने इसका स्वागत किया क्योंकि इससे रूस की स्थिति कमजोर पड़ती है. उसके पास ‘मोस्कोवा’ का विकल्प नहीं है. इसलिए, जब तक युद्ध चलेगा तब तक काला सागर में उसकी नौसैनिक क्षमता कमजोर बनी रहेगी.
क्रूज मिसाइल के हमले से समुद्र के ऊपर तैनात एक प्रमुख सैन्य संपत्ति के नष्ट हो जाने से नौसैनिक शक्तियों के बीच जारी वैश्विक बहस में पेश किए जा रहे कुछ तर्कों को मजबूती मिली है. यह बहस उस बड़ी बहस से पैदा हुई है, जो क्रूज मिसाइल जैसे लक्ष्यभेदी हथियारों के कारण विमानवाही पोतों जैसे विशाल प्लेटफॉर्मों के वजूद के खतरे को लेकर चल रही है. यह बहस भारत के लिए खास महत्व रखती है और यह भारतीय विमानवाही पोतों की प्रासंगिकता को लेकर नौसेना के आग्रहों को मजबूती देती है.
यह भी पढ़ें: अच्छे इरादों वाली ‘अग्निपथ’ योजना सेना के लिए कहीं सचमुच ‘अग्निपथ’ न बन जाए
समुद्र पर तैनात कमजोर युद्धपोत
जमीन, हवा और सागर में तैनात मिसाइलों के साथ जुड़ी निगरानी की क्षमताओं में तकनीकी विकास ने समुद्र के ऊपर तैनात नौसैनिक संपत्तियों को निश्चित ही कमजोर कर दिया है. ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम (जीपीएस), लेज़र गाइडेंस और इनर्शियल नेविगेशन सिस्टम्स के सम्मिलित उपयोग के कारण सटीकता में काफी सुधार हुआ है. इसी के साथ, जवाबी कार्रवाई के विकास ने कमजोर बनाने वाले कारणों को कम भी किया है. तकनीकी विकास के मामले में यह बिल्ली-चूहे वाला खेल जारी है, जो बचाव करने वाले से ज्यादा, हमला करने वाले को मजबूत बनाता है. हमला करने वाले का जाहिर तरीका बचाव करने की क्षमता को एक ही निशाने पर एक साथ कई मिसाइलों से हमला करके कमजोर करना ही होता है. बचाव करने वाले के मिसाइल-कवच को भेदने वाली मिसाइलों को तैयार करने की गति और लागत बचाव के लिए मिसाइल कवच तैयार करने और उसे तैनात करने की लागत से कम ही होती है.
इसलिए आक्रमण के लिए कई मोबाइल सैन्य साजोसामान को ही भावी विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है. लंबी दूरी तक मार करने वाली क्रूज और बैलिस्टिक मिसाइलों का विकास किया जा रहा है. युद्धपोत पर मार करने वाली चीनी डीएफ-21डी और डीएफ-26 बैलिस्टिक मिसाइलें, रूस की ये कैलिबर मिसाइलें और अमेरिका की टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें इसकी उदाहरण हैं. इन मिसाइलों की क्षमता और इनसे होने वाले खतरों पर बहस जारी है. कुछ लोगों का मानना है कि खतरे तो हैं लेकिन समुद्र के ऊपर तैनात युद्धपोतों से उन्हें प्रभावी तरीके से दागा जा सकता है.
यह भी पढ़ें: सेना में भर्ती किसी जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर ही हो
भारत के लिए विकल्प
भारत के विमानवाही पोतों पर बहस के साथ उसकी भौगोलिक स्थिति के कारण उपलब्ध विकल्पों पर भी बहस जुड़ी है. प्रायद्वीपीय भारत हिंद महासागर में एक चाकू की तरह गड़ा हुआ दिखता है और यह उसे अपने लंबे समुद्र तटों और पूरब में अंडमान-निकोबार तथा पश्चिम में लक्षद्वीप जैसे द्वीपों पर मिसाइल अड्डे बनाने की सुविधा प्रदान करता है. ये अड्डे हिंद महासागर क्षेत्र के अहम इलाकों को कवर कर सकते हैं.
भारत लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें तैयार करने की जद्दोजहद में जुटा है. सिद्धांतत: भारत ने अपनी अधिकतर बैलिस्टिक मिसाइलों पर परमाणु अस्त्र लगाए हैं, जबकि क्रूज मिसाइलों पर पारंपरिक अस्त्र ही लगाए जा सकते हैं. माना जाता है कि यह फर्क संकट तथा युद्ध की स्थिति में स्थिरता और मजबूती देता है. रूस के सहयोग से विकसित भारतीय
‘ब्रह्मोस’ मिसाइलें फिलहाल उसकी देसी क्रूज मिसाइलों की, जिन्हें जमीन, समुद्र और हवा में स्थित प्लेटफॉर्म पर तैनात किया जा सकता है, क्षमता का मुख्य आधार हैं.
ये तीनों प्लेटफॉर्म गतिशील हो सकते हैं लेकिन जमीन पर तैनात मिसाइलों को समुद्र और हवा में स्थित प्लेटफॉर्मों की गतिशीलता और पहुंच का मुकाबला करना होगा. तीनों के बीच संतुलन बनाना सैन्य योजना का मामला है जो तीनों सेनाओं के संयुक्त फैसले से तय होना चाहिए. उपलब्ध बजट और तकनीकी समर्थन इसके लिए एक चुनौती है. देसी क्रूज मिसाइलों का विकास हवा और समुद्र में विमान और पोतों जैसे प्लेटफॉर्मों के विकास के मुकाबले ज्यादा तेजी से चल रहा है.
क्रूज मिसाइलों के उत्पादन और द्वीपों पर निगरानी क्षमता के साथ उनकी तैनाती को प्राथमिकता देने की जरूरत है. इसमें लड़ाकू विमानों के लिए अड्डा बनाने के खर्च के मुकाबले कम खर्च ही आएगा. जहां तक विमानवाही पोतों को लेकर बहस का सवाल है, ये जो काम करते हैं वे काम करने वाले वैकल्पिक प्लेटफॉर्म तैयार करने तक मौजूदा ठिकानों के लिए खतरों में वृद्धि को मान कर चलना होगा और उन्हें दूर करने के उपाय करने होंगे.
मेरा मानना है कि समुद्र की सतह और उप-सतह पर नौसैनिक क्षमता को विमानवाही पोतों, सतह पर के पोतों और पनडुब्बियों के साथ नहीं जोड़ा जाता तब तक भारत एक नौसैनिक शक्ति के रूप में नहीं उभर सकता. प्लेटफॉर्म का आकार, स्वरूप और उनकी संख्या बदल सकती है लेकिन नौसैनिक क्षमता के रूप में वे जितनी तरह की भूमिकाएं निभाते हैं उनके कारण उनके मूल कामों का कोई विकल्प नहीं हो सकता.
‘मोस्कोवा’ काला सागर के पेट में समा चुका है और उसके नुकसान से विशाल नौसैनिक पोतों को लेकर भारत में जारी बहस प्रभावित हो सकती है. लेकिन यह घटना चेतावनी दे रही है कि भारतीय संदर्भ में इसकी अलग प्रासंगिकता हो सकती है.
(लेखक एक कॉलम्निस्ट हैं जो फिलहाल स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) से चीन पर ध्यान केंद्रित करते हुए इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एमएससी कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: यूक्रेन ने संकेत दे दिया, अब प्राचीन सभ्यताओं वाले चीन और भारत युद्ध रोकने में कर सकते हैं मदद