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Thursday, 28 March, 2024
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यूक्रेन ने संकेत दे दिया, अब प्राचीन सभ्यताओं वाले चीन और भारत युद्ध रोकने में कर सकते हैं मदद

‘नाटो’ से जुड़ने के अपने इरादों को छोड़ने का संकेत देकर यूक्रेन ने युद्ध बंद करके उसकी जगह कूटनीति का सहारा लेने का रास्ता खोल दिया है.

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राजनीतिक लक्ष्यों और सामरिक वास्तविकताओं का मिला-जुला खेल हरेक युद्ध को प्रभावित करता है. इस बात की पूरी संभावना है कि यूक्रेन में जारी युद्ध भी इन बातों से प्रभावित हो रहा है. रूस के घोषित राजनीतिक लक्ष्यों को अब सामरिक वास्तविकताओं के रू-ब-रू होना पड़ रहा है और यह रूस के उन फैसलों को प्रभावित कर रहा है कि वह युद्ध में कितनी और किस तरह की ताकत का प्रयोग करे, और कितने समय के लिए करे.

रूस के नीति नियंताओं को अब तक पता चल गया होगा कि या तो उन्होंने यूक्रेन से मिलने वाले जवाब की ताकत का गलत अंदाजा लगाया या फिर अपनी सामरिक क्षमता का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आकलन किया. शायद दोनों बातें सच हैं. इसके अलावा, राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि उसने अमेरिका और उसके सहयोगियों की एकता, और हथियारों की सप्लाई तथा आर्थिक प्रतिबंध लगाने की उनकी क्षमता को भी कमतर आंका. अब आगे युद्ध का स्वरूप रूस के गलत आकलनों और ताकत के इस्तेमाल की सीमाओं के उसके एहसास से तय होगा.

रूस यूक्रेन से क्या चाहता है यह उसने जाहिर कर दिया है और कई बार दोहरा चुका है. उसकी मुख्य मांगे ये हैं— यूक्रेन के संविधान में बदलाव हो ताकि उसे तटस्थ रखा जा सके, क्रीमिया को रूस का हिस्सा माना जाए, डोनेत्स्क और लुगांस्क के अलगाववादी गणतंत्रों को स्वतंत्र देशों के रूप में मान्यता दी जाए और यूक्रेन सैन्य कार्रवाई बंद करे. लेकिन, सैन्य कार्रवाई बंद करना तो रूस के हाथ में ही है और यह इस पर निर्भर है कि वह कितने बड़े क्षेत्र पर कब्जा करता है ताकि बाद में कूटनीतिक वार्ता की मेज पर सौदेबाजी में अपना हाथ ऊपर रख सके.

सामरिक दृष्टि से देखें तो रूस अब तक इतने बड़े क्षेत्र पर कब्जा नहीं कर पाया है कि यूक्रेन से अपनी सारी मांगें मनवा सके. रूस के हमलों का बंद होना इस पर भी निर्भर है कि वह प्रतिबंधों के कारण अपनी आर्थिक स्थिति पर पड़ रहे दबावों को कितने समय तक झेल पाता है, देश के अंदर लोगों के असंतोष के कारण आंतरिक शक्तियों के दबाव को वह कितना बर्दाश्त कर पाता है, और चीन तथा भारत जैसी ताकतों से कितना समर्थन जुटा पाता है.

चीन ने रूस के इस आरोप का समर्थन किया है कि अमेरिका यूक्रेन को जैविक प्रयोगशालाओं और हथियारों के निर्माण में मदद कर रहा है और उसने मांग की है कि रूस की चिंताओं का पर्याप्त निराकरन किया जाए. भारत ने भी लगभग यही रुख अपनाया और कहा कि जैविक और विषैले हथियारों से जुड़ी संधि (बीडब्लूटीसी) से जुड़े मामलों का निपटारा इसके प्रावधानों के अनुरूप ही किया जाना चाहिए. अमेरिका ने इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि ‘यूक्रेन में या रूस की सीमा के पास या कहीं भी हमारी मदद से जैविक हथियारों के निर्माण की कोई प्रयोगशाला नहीं चल रही है.’

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केंद्रीय समस्या

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से 18 मार्च को वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए बात की. अमेरिकी बयान में यूक्रेन पर रूस के अकारण हमले पर ज़ोर दिया गया और कहा गया कि बाइडन ने उन ‘नतीजों का जिक्र किया जिसे चीन को तब भुगतना पड़ सकता है जब वह यूक्रेन के शहरों और नागरिकों पर बर्बर हमलों में रूस को साजो-सामान से मदद पहुंचाएगा.’ चीन के बयान में कहा गया कि ‘अब सर्वोच्च प्राथमिकता बातचीत जारी रखने, नागरिकों की मौतों को रोकने, मानवीय संकट को रोकने, और जल्दी से जल्दी युद्ध बंद करने को दी जाएगी. दीर्घकालिक समाधान बड़ी ताकतों के बीच आपसी सम्मान में, शीत युद्ध की मानसिकता छोड़ने, खेमेबंदी की टक्कर में न उलझने, और एक संतुलित, प्रभावी तथा टिकाऊ वैश्विक तथा क्षेत्रीय व्यवस्था बनाने में निहित है.’

चीन ने ‘खेमेबंदी की टक्कर में उलझने’ से जुड़ी गतिविधियों को बंद करने की जरूरत की ओर जो इशारा किया है वह वास्तव में सर्वोच्च स्तर की राजनीतिक समस्या है जिसे यूक्रेन के संदर्भ में दूर करने की जरूरत है. यह समस्या नाटो और रूस के बीच टकराव से पैदा होती है. इस समस्या का समाधान मूलतः यूक्रेन की तटस्थता में छिपा है, लेकिन इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के अंतर्गत उसकी संप्रभुता तथा निर्णय-स्वतंत्रता का व्यापक मसला भी जुड़ा हुआ है. वह रूस, नाटो, या यूरोपीय संघ के साथ किस तरह का संबंध रखना चाहता है, यह फैसला करने की स्वायत्तता उसे है.
यूक्रेन ने 2008 में, जब विक्टर यानुकोविच उसके राष्ट्रपति थे तब नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन किया था.

यानुकोविच ने पश्चिमी देशों का समर्थन करने वाली विदेश नीति अपनाई थी. लेकिन 2010 में राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के दौरान यानुकोविच ने नाटो में शामिल न होने की बात की थी और निर्वाचित होने के बाद संसद से वह बिल पास करवाया था जिससे सामरिक रूप से तटस्थ देश के रूप में यूक्रेन की स्थिति मजबूत हो. बिल में नाटो के साथ सहयोग करने का प्रावधान रखा गया था, और सरकार ने घोषित किया था की यूरोपीय संघ (ईयू) में शामिल होना उसकी प्राथमिकता है. लेकिन जन असंतोष के, जिसे रूस ‘फरवरी 2014 में जर्मनी, फ्रांस, पोलैंड की साठगांठ तथा अमेरिका के समर्थन से यूक्रेन में किया गया अवैध तख्तापलट कहता रहा है’, के बाद यानुकोविच रूस पलयान कर गए और उनकी जगह पेट्रो पोरोशेंको ने ले ली.

फरवरी-मार्च 2014 में, रूस ने क्रीमियाई प्रायद्वीप को अपने कब्जे में ले लिया और डोनबास के रूसी भाषा-भाषी क्षेत्रों पर भी अपना वास्तविक कब्जा कायम कर लिया. इसके बाद आर्थिक प्रतिबंध लगे और रूस तथा पश्चिमी देशों के बीच टकराव तेज हो गया. यूक्रेन के साथ रूस के संबंध और खराब हो गए. फरवरी 2019 में, वोलोदिमायर जेलेंस्की जब यूक्रेन के राष्ट्रपति थे तब उसने संविधान में संशोधन करके नाटो और ईयू की सदस्यता का प्रावधान शामिल कर दिया. इसके तीन साल बाद रूस ने उसके ऊपर हमला कर दिया है.

पिछली घटनाओं से साफ होता है कि यूक्रेन की तटस्थता ही केंद्रीय राजनीतिक मसला है. यूक्रेन को अपने राजनीतिक संबंधों के बारे में फैसला करने का पूरा हक़ है, इस पर कोई विवाद हो ही नहीं सकता. एक सैन्य खेमे नाटो में यूक्रेन का शामिल होना विवाद की जड़ बन गया. लेकिन उड़ानों पर प्रतिबंध लगाने की यूक्रेन की मांग को नाटो ने जब खारिज कर दिया तो यूक्रेन ने संकेत दे दिया कि वह नाटो की सदस्यता लेने की अपनी योजना को आगे नहीं बढ़ाएगा. किसी सैन्य खेमे में शामिल न होना तटस्थता की कसौटी है. इसलिए, यूक्रेन ने जब नाटो की सदस्यता लेने की अपनी योजना को रद्द कर दिया है तब उसे केंद्रीय मसले के निपटारे का रास्ता खोलना चाहिए. तभी दूसरे स्तरों पर समस्याओं का समाधान हो सकेगा.

जाहिर है, रूसी हमले, जान-माल के भारी नुकसान और उसके बाद आई मानवीय त्रासदी के चलते यूक्रेन की जनता को तटस्थता का विचार कबूल नहीं होगा. लेकिन यूक्रेन भौगोलिक रूप से जिस तरह घिरा हुआ है उसके कारण यह कल्पना करना कि वह रूस और पश्चिम के बीच की होड़ में तटस्थ रहते हुए एक पुल का काम करेगा, शांति और प्रगति के लिए बड़ी उम्मीदें जगाता है. हाल में यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता लेने की अपनी योजना को रद्द करने का जो संकेत दिया है वह युद्ध की जगह कूटनीति के लिए बड़ा रास्ता खोलता है.

भारत और चीन की भूमिका

इस संकेत के बूते उन अवसरों का लाभ उठाने की जरूरत है जिससे शांति कायम हो. एक समाधान हमारे सामने है. भारत और चीन मिलकर संयुक्त रूप से मांग कर सकते हैं कि यूक्रेन की तटस्थता कायम राखी जाए. आश्चर्य नहीं कि ये दोनों देश यूक्रेन की तटस्थता को समस्या की मूल जड़ मान लें. ये दोनों देश यूक्रेन से कह सकते हैं कि रूस अगर उसकी सीमाओं के बाहर चला जाता है तो वह अपनी तटस्थता घोषित कर सकता है. क्रीमिया और डोनबास के भौगोलिक मसलों पर बातचीत की जा सकती है. और एक बार जब जब यह तय हो जाए कि मूल समस्या क्या है, तब जमीन की अदला-बदली पर बात हो सकती है. जो सामरिक स्थिति है उसके मद्देनजर रूस और यूक्रेन इस प्रस्ताव को कबूल कर सकते हैं और इसे अपने-अपने नुक़सानों को कम करने और आगे चलकर अधिक लाभ हासिल करने के मौके के रूप में ले सकते हैं.

भारतीय विदेश मंत्रालय इन खबरों पर साफ-साफ कुछ नहीं का रहा है कि चीन के विदेश मंत्री मार्च के अंत में भारत के दौरे पर आ रहे हैं. वे आएं या न आएं, यूक्रेन के तटस्थता के मसले पर राजनीतिक स्तर की वार्ता बंद कमरे में भी हो सकती है. यूरोप के लिए प्राचीन सभ्यताओं वाले दो देशों से अक्लमंदी की खुराक लेने का समय शायद आ गया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक एक कॉलम्निस्ट और एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो फिलहाल स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) से चीन पर ध्यान केंद्रित करते हुए इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एमएससी कर रहे हैं. विचार निजी हैं. 


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