कहते हैं कि विपत्ति में आपके धैर्य के साथ चरित्र की भी परीक्षा होती है. कोरोनावायरस के भारत में फैलाव के साथ ही देश के नागरिकों से अधिक हमारी सरकार के चरित्र की परीक्षा होगी. कोरोना पर प्रधानमंत्री के देशवासियों को पहले संबोधन के हफ्ते भर बाद वित्त मंत्री ने गुरुवार को 1.7 लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया है लेकिन उससे पहले पिछले पूरे एक हफ्ते तक अफरातफरी मची रही जो अब भी जारी है. अब यह घोषित राहत पैकेज ज़मीन पर कैसे और कितने प्रभावी तरीके से लागू होगा इस पर काफी कुछ निर्भर रहेगा.
राम भरोसे सरकार
स्पष्ट है कि अब तक किसी भी संकट से निपटने के लिये मोदी सरकार की न तो कोई योजना दिखी है और न ही ऐसा लगा है कि सरकार पिछली ग़लतियों से सीखना चाहती है. मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री ने सभी देशवासियों से कोरोना पीड़ितों के इलाज में लगे स्वास्थ्यकर्मियों के लिये ताली और थाली बजाने को तो कहा लेकिन उन ही डॉक्टरों के लिये अस्पताल में एंटी कोरोना सुरक्षा कवच तो छोड़िये, सेनेटाइज़र और मास्क की बुनियादी सुविधा तक नहीं है. ऐसे में ताली बजाना क्या सिर्फ एक इवेंट बनकर नहीं रह जाता है?
हक़ीक़त यह है कि देश के प्रतिष्ठित एम्स से लेकर, पुडुचेरी स्थित जवाहरलाल नेहरू संस्थान (जिपमर) और लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज ने बदइंतज़ामी पर खुलकर आवाज़ उठाई. उधर एहतियाती सुविधायें न होने के लिये आवाज़ उठाने वाले जम्मू के एक डॉक्टर का तो तबादला कर दिया गया.
उधर प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे संबोधन में 21 दिन के पूर्ण लॉकडाउन का एलान तो कर दिया लेकिन यह नहीं बताया कि लाखों दिहाड़ी मज़दूरों का क्या होगा. वह कहां जायेंगे. वह संबोधन में लोगों से यह कहना तक भूल गये कि ज़रूरी चीज़ों की सप्लाई जारी रहेगी. अब हाल यह है कि ग़रीब सड़क पर पुलिस के डंडों से पिट रहा है और दवाओं के साथ राशन की दुकानों पर लोगों की मार मची है.
डब्ल्यूएचओ की चेतावनी अहम
इन बातों पर विस्तार से लिखा जा चुका है और समस्या के इस पक्ष पर इस वेबसाइट ने भी कई लेख प्रकाशित किये हैं. सवाल है कि इस संकट से निकलने के लिये क्या लॉकडाउन का तरीका ही पूर्ण समाधान है. क्योंकि जिस सुस्त रफ्तार से हमारे देश में संक्रमित लोगों की पहचान के लिये जांच चल रही है वह न केवल नाकाफी है बल्कि इस बात का डर भी है कि न पहचाने गये मरीज़ इस बीच संक्रमण फैलाते रहे तो कुछ हफ्तों बाद कोविड-19 का ज्वालामुखी फट सकता है.
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के निदेशक टैड्रोस एडरेनॉम ने गुरुवार को कहा, ‘कोरोना के संक्रमण को धीमे करने के लिये कई देशों ने लॉकडाउन का रास्ता अपनाया है लेकिन अकेले यह कदम महामारी को खत्म नहीं करेगा. हम सभी देशों से अपील करते हैं कि इस मियाद को वायरस को नष्ट करने के लिये इस्तेमाल किया जाये.’
इस बार बचे तो…
इसी डर के बीच यह पूछा जा रहा है कि अगर कोरोना के इस हमले से निकल पाये तो दुनिया कितनी बदल जायेगी. क्या इस अभूतपूर्व संकट में तत्काल कुछ ऐसे कदम नहीं उठाये जायेंगे जिनके लिये सामान्य परिस्थितियों में लंबी बहस की जाती और उनके लिये सहमति जुटाना आसान नहीं होता.
लाखों लोगों के जीवन के साथ इस वक्त पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था और सामाजिक तानाबाना ख़तरे में पड़ गया है. एक तरफ माना जा रहा है कि मानवता के हित में बहुत कठिन फैसले लिये जा सकते हैं और दूसरी ओर डर है कि दुनिया के नेता संकट से निपटने के लिये इस वक्त जो क़ानूनी शक्तियां अपने हाथ में लेंगे, हालात सामान्य होने पर भी वह उन विशेषाधिकारों को कभी छोड़ना नहीं चाहेंगे. यानी इसकी पूरी संभावना है कि कोरोना की विदाई होते-होते दुनिया पहले जैसी न रहे.
क्या डिजिटल निगरानी है समाधान?
जाने माने इतिहासकार और विश्व चर्चित सेपियन के लेखक योवल नोवा हरारी ने अपने एक लेख में सवाल उठाया है कि क्या दुनिया डिजिटल सर्वेलेंस को ऐसी महासंक्रामक बीमारियों के बचाव के लिये इस्तेमाल कर सकती है. हरारी दो विकल्पों की बात करते हैं. पहला चुनाव हर वक्त आप पर निगरानी रखने वाले एक सर्वसत्तावादी राज्य और नागरिक अधिकारों के बीच है और दूसरा चुनाव एक राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक सहयोग के बीच है.
नागरिकों पर डिजिटल निगरानी संक्रामक बीमारी की रोकथाम के रूप में एक उपाय सुझाया जा रहा है. अगर डिजिटल सर्वेलेंस से यह पता चलता रहे कि आपका स्वास्थ्य कैसा है, आपको बुखार है या नहीं या आपके दिल की धड़कन कितनी है तो कोरोना जैसी बीमारी की रोकथाम और उसके फैलाने वाले संदिग्ध मरीज़ों की तुरंत पहचान की जा सकती है.
कई लोगों का मानना है कि भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में जहां अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी है वहां यह काफी मददगार हो सकता है. अगर सरकार के पास नागरिकों का रियल टाइम डेटाबेस उपलब्ध हो तो बीमार को पहचान कर पहले ही अलग (आइसोलेट) किया जा सकता है. इस सर्वेलेंस से यह भी पता चल जायेगा कि उस व्यक्ति ने किससे कब और कहां मुलाकात की.
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तो क्या स्वास्थ्य के मूलभूत ढांचे में कमी की भरपाई तकनीक के इस्तेमाल से की जा सकती है? यह सुझाव देश में लचर स्वास्थ्य सुविधाओं का स्थायी विकल्प नहीं हो सकता लेकिन रोगों की रोकथाम और हेल्थ केयर में क्रांतिकारी बदलाव ज़रूर ला सकता है. तकनीकी रूप से यह असंभव भी नहीं है लेकिन इसमें एक व्यावहारिक समस्या है.
भारत में आधार नंबर के ज़रिये नागरिकों से जुड़ी जानकारी का जो डेटा बेस बनाया जा रहा है उस पर पहले ही कई सवाल हैं. जैसे कि सरकार क्या इस डेटाबेस का इस्तेमाल नागरिकों की ज़िंदगियों में झांकने के लिये नहीं करेगी? क्या यह निजता के अधिकार पर अतिक्रमण नहीं है? यह सवाल तब उठना जायज़ है जब सरकार के नेशनल सोशल रजिस्ट्री के तहत बन रहे डेटाबेस पर उस योजना की नींव रखने वाले अधिकारियों ने ही सवाल उठाये हों और कहा हो कि बिना सेफगार्ड या एहतियाती क़ानूनों और प्रावधानों के बिना ऐसा करना ठीक नहीं है.
नागरिकों के हाथ में हो ताकत?
कोरोना के कहर से अभी हम निकले नहीं हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस बार जैसे-तैसे बच भी गये तो आने वाले दिनों में कोरोना जैसा आतंक मानवता को और बड़े संकट में धकेल सकता है. तो क्या यह उचित नहीं कि टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल इस तरह हो कि लोगों के पास एक जानकारी भरा विकल्प मौजूद हो और कोई व्यक्ति अगर चाहे तो वह अपने स्वास्थ्य की निगरानी के लिये सरकार को सेफगार्ड्स के साथ अनुमति दे.
यह एक स्थापित सच है कि निजता के अधिकार की पैरवी करने वाले भी मानते हैं कि सामाजिक योजनाओं में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सही तरीके से हो तो काफी प्रभावी बदलाव ला सकता है और कई कमियों को दूर कर सकता है. ऐसे में यह जनता को यह भरोसा या ताकत देना ज़रूरी है जिसमें वह भी सरकार के क्रियाकलापों पर नज़र रख सके और उसे जवाबदेह बनाया जा सके.
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लेकिन अभी लोगों के दिल में एक सवाल यह उठता है कि सरकार लोगों की तमाम जानकारियां इकट्ठा कर एक लाइव डेटाबेस तो बना रही है लेकिन खुद अपना हिसाब देने वाले सूचना अधिकार क़ानून को लगातार कमज़ोर क्यों कर रही है?
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)