अगर आपको अभी भी कोई शक है, तो जान लें कि जातिवाद और निचली जातियों के खिलाफ भेदभाव अब भी पूरी तरह मौजूद है. ये भेदभाव भारत की सबसे ऊंची सरकारी जगहों तक पहुंच गया है. यह तब साफ हुआ जब एक वकील ने खुले अदालत में भारत के मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंका.
असल बात यह है कि जब से बी आर गवई मुख्य न्यायाधीश बने हैं, तब से लोग कह रहे हैं कि एक दलित का सर्वोच्च न्यायिक पद पर होना सही नहीं है. 2007 में के जी बालाकृष्णन, जो दलित थे, मुख्य न्यायाधीश बने थे. लेकिन उस समय जातिवाद और सांप्रदायिकता इतनी जोर नहीं पकड़ रही थी.
न्यायाधीश गवई उस समय इस पद पर आए जब सोशल मीडिया ने लोगों की सोच पर असर डालना शुरू कर दिया है और उच्च जातियों ने पहचान राजनीति का समर्थन किया. उनकी नियुक्ति सरकार का जाति बाधा तोड़ने का जानबूझकर प्रयास नहीं थी. वे वरिष्ठता के आधार पर इस पद पर पहुंचे. हिंदुत्व कट्टरपंथियों को यह पसंद नहीं आया कि देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर अब एक ऐसा व्यक्ति है जो दलित है और जिसका परिवार हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में गया था.
हिंदुत्व गुस्से की जड़
शुरुआत में गुस्सा शांत था, लेकिन साफ दिखाई दे रहा था, क्योंकि हिंदुत्व कट्टरपंथी उनके एक भी गलत कदम का इंतज़ार कर रहे थे. वे मौका तब आया जब उन्होंने एक सामान्य केस खारिज कर दिया, जिसे कट्टर हिंदू मांगों को आगे बढ़ाने के लिए दायर किया गया था. उन्होंने याचिकाकर्ताओं से कहा कि अगर उन्हें ऐसा उपाय चाहिए जो सुप्रीम कोर्ट नहीं दे सकता, तो शायद उन्हें सीधे उस देवता के पास जाना चाहिए, जिनका मामला है.
यही वह बात थी जिसका हिंदुत्व लॉबी इंतज़ाक कर रही थी. सोशल मीडिया अचानक इस बात से भर गया कि मुख्य न्यायाधीश हिंदू विरोधी हैं और उन्होंने अदालत में किसी हिंदू देवता का अपमान किया. आखिरकार, उन्होंने बौद्ध धर्म जो अपना लिया है.
न्यायाधीश पर हमले आगे बढ़े. चर्चा कार्यक्रमों में हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने हिंसा की सिफारिश की, इसे ऐसे शब्दों में रखा गया कि सीधे उकसावे तक न जाए. नाथूराम गोडसे का नाम भी लिया गया (अच्छे अर्थ में, क्योंकि ये लोग उन्हें “हीरो” मानते हैं). यह विचार फैल गया कि मुख्य न्यायाधीश के कारण हिंदू हितों को नुकसान हो रहा है.
इसमें कितना हिस्सा न्यायाधीश गवई की जाति से जुड़ा था?
कुछ लोगों ने सीधे कहा, लेकिन उनकी दलित पृष्ठभूमि भाषा और शब्दों में झलक रही थी. उदाहरण के लिए ‘सनातन धर्म’ शब्द का इस्तेमाल किया गया. भले ही इस शब्द का कई सामान्य अर्थ हो, लेकिन यह ब्राह्मणवादी, उच्च जाति वाले हिंदू धर्म का संकेत बन गया है. दक्षिण में डीएमके ‘सनातन धर्म’ का इस्तेमाल ब्राह्मणवाद पर हमला करने के लिए करता है. उत्तर में, यह एक पारंपरिक हिंदू धर्म को दर्शाता है जिसमें दलितों के लिए जगह बहुत कम या नहीं है.
तो, जब आलोचक कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश सनातन हिंदू धर्म को नहीं समझते या इसमें उनकी कोई जगह नहीं है, तो उनका मतलब था कि न्यायाधीश गवई दलित हैं.
मुख्य न्यायाधीश के लिए इतना ‘न्याय’
यह केवल वक्त की बात थी कि उनके खिलाफ लगातार चले अभियान एक कदम आगे बढ़े और सच में 71 साल के वकील ने अदालत में उनके ऊपर जूता फेंका. न्यायाधीश गवई की शान के लिए इस हमले से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा; उन्होंने ऐसे रिएक्ट किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं.
लेकिन हमलावर ने अपने इरादों को साफ कर दिया.
उन्होंने कहा कि मुख्य न्यायाधीश “असंतानी” हैं और बाद में प्रेस से कहा कि उन्हें यह काम करने के लिए दिव्य शक्तियों ने निर्देश दिया. उन्हें कोई पछतावा नहीं था, न ही अधिकांश मीडिया ने, जिसने जूता फेंकने वाले को हीरो की तरह पेश किया और उसे सम्मानजनक कवरेज दी.
और जो लोग मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ हंगामा मचाते थे? जिन्होंने न्यायाधीश गवई पर हिंसा की संभावना पर चर्चा की थी?
शुरुआत में ऐसा लगा कि कार्रवाई होगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यूपी पुलिस ने नोएडा से एक नफरत फैलाने वाले कमेंटेटर को पकड़ा, जिससे कयास लगाए गए कि उसे हिरासत में लिया जा सकता है.
लेकिन, बिल्कुल कुछ नहीं हुआ. नफरत फैलाने वाले यूट्यूबर को पुलिस स्टेशन में कथित तौर पर चाय पिलाई गई और फिर घर भेज दिया गया. घर लौटकर उसने गर्व से पोस्ट किया कि वह सुरक्षित है और लिखा: “पूरा सिस्टम मेरे साथ है. यह हमारा सिस्टम है. हमारे विचारों का सिस्टम…सरकार हमारी है. सिस्टम भी हमारा है. जय श्री राम.”
यानी, न्याय होने का दावा सिर्फ इतना ही.
मुझे नहीं लगता कि यह घटना दलितों के लिए कोई उम्मीद देती है. अगर उच्च पद पर बैठे दलित का अपमान करने वालों के साथ ऐसा बर्ताव होता है और वे घमंड कर कहते हैं कि “सरकार हमारी है; सिस्टम भी हमारा है” — तो आम दलित के लिए क्या उम्मीद बचती है, जिनके लिए सदियों का अपमान और पीड़ा कभी खत्म नहीं होती?
मोदी का संतुलन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हमले पर अपनी टिप्पणी करने से पहले कई घंटे इंतज़ार किया. जब उन्होंने आखिरकार टिप्पणी की, तो यह निंदा और मुख्य न्यायाधीश के साथ एकजुटता का संदेश था.
मुझे इसमें कोई शक नहीं कि यह ईमानदारी से कहा गया था, लेकिन यह निंदा राजनीतिक रूप से भी सुविधाजनक कदम था. मोदी अक्सर अपने पिछड़ी जाति के बैकग्राउंड को उजागर करते हैं. उन्होंने नियमित रूप से दलितों तक पहुंच बनाई और बीजेपी की ब्राह्मण और बनिया पार्टी की छवि को नरम करने की कोशिश की. बिहार में चुनाव आने वाले हैं और वह दलितों को नाराज़ नहीं कर सकते.
लेकिन वह कट्टरपंथियों को पूरी तरह खारिज भी नहीं कर सकते — वे जो अपने अनुसार सनातन धर्म की व्याख्या करते हैं, मुसलमानों और दलितों से नफरत करते हैं, गोडसे की पूजा करते हैं और ऐसे हमलों का समर्थन करते हैं जैसे मुख्य न्यायाधीश पर हुआ. ये उनके मूल हिंदुत्व समर्थक हैं. इसलिए जब वे घमंड से कहते हैं कि “पूरा सिस्टम हमारा है” तो मोदी इसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं.
अब तक, कट्टरपंथियों और प्रधानमंत्री की व्यापक अपील के बीच यह संतुलन काम कर गया क्योंकि कट्टरपंथियों ने केवल मुसलमानों को निशाना बनाया, लेकिन क्या होगा जब नफरत सांप्रदायिकता से जातिवाद की तरफ बढ़ेगी?
यही बड़ा सवाल है जिसका जवाब आने वाले महीनों में मिलेगा. क्या नफरत फैलाने वालों को नियंत्रित किया जा सकता है? क्योंकि अगर नहीं किया गया, तो उनका नुकसान केवल निचली जातियों तक सीमित नहीं रहेगा. वे प्रधानमंत्री के अपने चुनावी संभावनाओं को भी नुकसान पहुंचाएंगे.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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