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Saturday, 21 December, 2024
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अड़ना शिवसेना की मजबूरी है, वरना बीजेपी उसे खा लेगी

शिवसेना महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति की प्रतिनिधि पार्टी थी. बीजेपी से उसे उसकी जगह से बेदखल कर दिया है. अगर शिवसेना ने अपनी उग्रता पूरी तरह छोड़ दी, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

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महाराष्ट्र में सत्ता की खींचतान में आमतौर पर माना जा रहा है कि शिवसेना भाजपा की सीटें घटने का फायदा उठाकर दबाव की राजनीति कर रही है और इसलिए जिद पर अड़ी है, क्योंकि उसके बिना भाजपा सरकार नहीं बना सकती.

हालांकि, शिवसेना के नजरिए से देखें तो मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ना और सरकार में बराबरी की मांग करना उसकी मजबूरी है. अगर वो ऐसा नहीं करती है और पिछली बार की तरह जूनियर पार्टनर बन जाती है, तो उसके सामने हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद की तरह खत्म हो जाने का खतरा मंडरा रहा है. जनसंघ और उसके अवतार बीजेपी ने इन संगठनों को अपने अंदर समाहित कर लिया है.

क्या है शिवसेना की दिक्कत

शिवसेना दरअसल साफ देख रही है कि भाजपा अब हर राज्य में अकेले सरकार बनाना चाहती है. महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की यही इच्छा रही है. ये अलग बात है कि उसकी सीटें और कम होने के कारण वह शिवसेना का साथ लेने पर मजबूर हो रही है.

पिछले कार्यकाल में जिस तरह से शिवसेना को नजरअंदाज़ किया गया, उससे शिवसेना ने खुद भी महसूस किया कि सहयोगी दलों को खत्म करने की भाजपाई कोशिश का शिकार सबसे पहले वही हो रही है. ‘यूज़ एंड थ्रो’ का आरोप भी इसीलिए शिवसेना भाजपा पर लगा रही है.

शिवसेना के उग्र हिंदुत्व का मुद्दा बीजेपी ने छीना

शिवसेना की समस्या यह है कि भाजपा ने उसके सारे मुद्दे छीन लिए हैं और उन सारे मुद्दों पर ज्यादा आक्रामक होकर उसने हिंदूवादी मतदाताओं को बता दिया है कि अब शिवसेना की जरूरत नहीं. भाजपा के पास एडवांटेज यह है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना जो करने का वादा करती रही है, भाजपाई उसे पिछले पांच सालों से खुलकर करते आ रहे हैं. नरेंद्र मोदी की भाषा की काट उद्धव ठाकरे करने की हालत में कतई नहीं हैं.


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शिवसेना उग्र हिंदुत्व की बात करती है, लेकिन भाजपा ने न केवल महाराष्ट्र, बल्कि समूचे देश में मुसलमानों पर हमलों और मॉब लिंचिंग की घटनाओं को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन देकर साबित कर दिया कि वह ज्यादा उग्र है. गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ हुए 2002 के दंगे का सियासी फायदा उसे होता ही है जो कि महाराष्ट्र का पड़ोसी राज्य है. कभी दोनों एक ही प्रांत हुआ करते थे.

यही कारण है कि अब शिवसेना भाजपा से अलग दिखने का हरसंभव प्रयास कर रही है. पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार आदित्य ठाकरे तो हर चुनाव से पहले भाजपा द्वारा हिंदुत्व को खतरा बताए जाने की बात से भी असहमति जता चुके हैं. वे अपनी पार्टी को नाइट लाइफ, इलेक्ट्रिक बसों, प्लास्टिक प्रदूषण जैसे मुद्दों से जोड़कर ज्यादा व्यावहारिक बताने का भी प्रयास करते हैं, जैसा कि उन्होंने गुरमेहर कौर की किताब ‘द यंग एंड द रेस्टलेस’ में अपने साक्षात्कार में कहा भी है.

दूसरे राज्यों से आए लोगों की पिटाई में भी भाजपा आगे

शिवसेना ने महाराष्ट्र में दूसरे प्रदेशों से आए लोगों की बढ़ती आबादी को मुद्दा बनाकर अपने संगठन की शुरुआत की थी. पहले दक्षिण भारतीयों पर और फिर यूपी-बिहार से आए लोगों पर हमले करवाने के लिए शिवसेना जानी जाती रही और इसका फायदा लेकर नौकरी के लिए जूझ रहे मराठी युवाओं को अपने साथ जोड़ती रही.

भाजपा ने 2014 के बाद से इस मुद्दे पर भी हाथ आजमाना शुरू कर दिया. उसने अपने गढ़ गुजरात में भी बिहार के लोगों को मार-पीट करके भगाने की शुरुआत करके, शिवसेना के मुद्दे को न केवल अपने हाथ में लिया, बल्कि इसका अंतरराज्यीकरण भी कर दिया.

शिवसेना के नेता भी भाजपा ने छीने

भाजपा ने शिवसेना के मुद्दे ही नहीं छीने, उसके नेताओं को भी छीना है और यह बात शिवसेना को सबसे ज्यादा अखरती है. कभी बाल ठाकरे के बेहद करीबी रहे और शिवसेना-भाजपा की गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री रहे मराठा नेता नारायण राणे को भाजपा ने अपने साथ लिया है जो कोंकण में शिवसेना के गढ़ में उद्धव ठाकरे को चुनौती देते हैं. इन चुनावों में भी नारायण राणे ने सिंधुदुर्ग और रत्नागिरी जिले में गठबंधन के शिवसेना के उम्मीदवारों के बजाय, निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन किया.

शिवसेना को भी नारायण राणे इतने ज्यादा नापसंद हैं कि उसने भी नारायण राणे के बेटे नीतेश राणे के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार सतीश सावंत को समर्थन दे दिया था.

शिवसेना छोड़ने वाले सुरेश प्रभु को भाजपा ने मोदी की पिछली सरकार में न केवल शामिल कराया, बल्कि महत्वपूर्ण मंत्रालय भी दिए. ये बात उद्धव ठाकरे को गठबंधन धर्म के खिलाफ लगी क्योंकि आमतौर पर गठबंधन के घटक दल एक दूसरे को छोड़कर आए नेताओं को पार्टी में नहीं लेते.


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केंद्र में मजबूत भाजपा सरकार तो है ही और अब महाराष्ट्र में भी देवेंद्र फड़नवीस दोबारा मुख्यमंत्री बनते हैं तो शिवसेना समर्थक आम मतदाता का भाजपा की ओर शिफ्ट होने का सिलसिला जारी रहेगा.

उग्र छवि ही है शिवसेना की ‘पूंजी’

सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल भाजपा अन्य दलों को झुकाने में करती रही है, लेकिन शिवसेना के साथ ऐसा कर पाना, वो भी मौजूदा हालात में, उसके लिए मुश्किल होगा. शिवसेना हमेशा उग्र राजनीति करती रही है और अगर उसके नेताओं के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई अगर सरकार करवाती है, तो शिवसैनिक ऐसा हंगामा कर सकते हैं, जिसे संभालना उसके लिए मुमकिन नहीं होगा.

दरअसल पिछले कार्यकाल में जिस तरह से भाजपा ने शिवसेना को दरकिनार किए रखा, उससे शिवसेना की छवि दबने वाले दल की बनने लगी थी, जबकि उग्र छवि ही शिवसेना की ‘पूंजी’ रही है. अब उग्रता और अड़ियलपन दिखाना शिवसेना के लिए इस पूंजी को बचाने के लिए जरूरी हो गया है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है)

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