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Thursday, 19 December, 2024
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‘मेरा नाम चौरसिया है और मैं असमानता को चौरस करके ही दम लूंगा’

सामाजिक न्याय आंदोलन के उज्ज्वल सितारों में शिवदयाल चौरसिया का नाम अग्रणी है. पिछड़ी जातियों को राजनीतिक पहचान दिलाने से लेकर पिछड़ी जाति की महिलाओं के सवाल उठाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है.

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भारत की स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद सामाजिक समानता और वंचित तबके के हक की लड़ाई लड़ने वालों में शिवदयाल सिंह चौरसिया (13 मार्च 1903 से 18 सितंबर 1995) का नाम अगली पंक्ति में शामिल है. साइमन कमीशन के सामने वंचितों की समस्याओं को रखने से लेकर काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के रूप में चौरसिया ने हर मोर्चे पर वंचितों की लड़ाई लड़ी. पहले पिछड़ा वर्ग आयोग में उनका 67 पेज का असहमति नोट ही आगे चलकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट तैयार करने की बुनियाद बना. राज्य सभा के सदस्य रहे चौरसिया ने अंतिम सांस तक न्यायालय से लेकर सड़क तक वंचित तबके के हकों की लड़ाई लड़ी.

चौरसिया का जन्म उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के खरिका गांव में हुआ था, जिसे इस समय तेलीबाग के नाम से जाना जाता है. इनके पिता पराग राम चौरसिया सोने चांदी के व्यवसायी थे. बचपन में ही उनकी मां राम प्यारी का निधन हो गया. संपन्न परिवार में जन्मे चौरसिया ने विलियम मिशन हाईस्कूल, लखनऊ से मैट्रिक और कैनिंग कॉलेज से बीएसी और एलएलबी की डिग्री हासिल की और बैरिस्टर बने.

चौरसिया का झुकाव शुरुआत से वंचित तबके को अधिकार दिलाने की ओर था. उन्होंने भीमराव आंबेडकर द्वारा 1938 में आयोजित पहले डिप्रेस्ड क्लास कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया और डॉ. आंबेडकर के साथ डिप्रेस्ड लीग में काम किया.

ओबीसी को दी अलग पहचान

चौरसिया 1929 में बने यूनाइटेड प्रॉविंस हिंदू बैकवर्ड क्लास लीग से शुरुआत से ही जुड़े रहे. उन्होंने 1930 के दशक के शुरुआत में हिंदू बैकवर्ड शब्द प्रचलित किया, जिससे पिछड़े समाज की डिप्रेस्ड क्लास से अलग पहचान हो सके. सामान्यतया डिप्रेस्ड क्लास से अछूत होने का अर्थ निकलता था. चौससिया ने यह कहा कि पिछड़े वर्ग के लोग दरअसल शूद्र हैं, जो भारत के मूलनिवासी हैं. (इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशन- द राइज आफ द लो कास्ट्स इन नॉर्थ इंडियन पॉलिटिक्स), लेखक क्रिस्टोफे जेफ्रले, पेज 223)

चौरसिया ने आरक्षण पर काफी जोर दिया. उनका मानना था कि जब तक किसी समुदाय को महत्वपूर्ण स्थानों तक पहुंचने का मौका नहीं मिलता, तब तक समाज में बदलाव नहीं हो सकता. अगर उच्च शिक्षित व्यक्ति और डिग्रीधारक व्यक्ति को प्रमुख पद पर बैठाया जाए, तभी वह किसी चीज को नियंत्रण करने की स्थिति में आ सकता है. चौरसिया ने विधानसभाओं और लोकसभा में भी पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिए जाने की मांग की थी.


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साइमन कमीशन के गठन के फैसले और 7 नवंबर 1927 को इसकी घोषणा के बाद वंचितों के लिए संघर्ष कर रहे स्वामी अछूतानंद ने उत्तर प्रदेश के आगरा, इलाहाबाद, बस्ती, इटावा, फर्रूखाबाद, फतेहगढ़ और मैनपुरी जैसे शहरों में बैठकों का आयोजन किया. आदि हिंदू महासभा के नेता के रूप में चौरसिया और राम चरण ने साइमन कमीशन के समक्ष व्यापक प्रदर्शन किया. चौरसिया ने 5 जनवरी 1928 को उसके लखनऊ आगमन पर कमीशन के सामने वंचितों के अधिकार की मांग रखी. पिछड़े समाज के विभिन्न जातीय संगठनों द्वारा दिए जा रहे ज्ञापन तथा गवाहों की सुनवाई में हिंदी को अंग्रेजी में अनुवाद कर कमीशन के समक्ष दुभाषिये का काम किया. साथ ही उनकी मांगों का मसौदा बनाने में कानूनी मदद भी की. उन्होंने अपना बयान भी साइमन कमीशन के सामने दर्ज कराया.

आदि हिंदू के नेताओं ने वंचितों के लिए राजनीतिक अधिकार के साथ तरजीही व्यवहार की मांग की. उन्होंने तर्क दिया कि निम्न और डिप्रेस्ड दर्जे के कारण उन्हें कम भुगतान, छोटी नौकरियां मिलती हैं और उन्हें शिक्षा पाने में दिक्कत होती है और बेहतर रोजगार नहीं मिल पाता. उनका कहना था कि भारतीय समाज में आदि हिंदू दोहरी मार खा रहा है- एक तो वह अंग्रेज सरकार के अत्याचार सह रहा है, दूसरे वह जातिवादी हिंदुओं का शिकार है. (दलित पॉलिटिक्स इन कंटेपोरेरी इंडिया, लेखक- संभैया गुंडिमेडा)

पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के तौर पर भूमिका

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29 जनवरी 1953 को भारत के राष्ट्रपति ने अन्य पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले पिछड़े वर्ग आयोग का गठन किया. चौरसिया भी आयोग के सदस्य मनोनीत किए गए. इस संबंध में 30 अक्टूबर 1953 को उन्होंने डॉ. आंबेडकर के साथ व्यापक विचार विमर्श किया था. कालेलकर कमीशन के सदस्य के रूप में उनके लिखे असहमति नोट में मुख्य जोर पिछड़े वर्ग को ज्यादा से ज्यादा अधिकार देने को लेकर ही था.


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इन्होंने लखनऊ के अपने साथियों– एडवोकेट गौरीशंकर पाल, रामचरण मल्लाह, बदलूराम रसिक, महादेव प्रसाद धानुक, छंगालाल बहेलिया, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, रामचंद्र बनौध, स्वामी अछूतानंद आदि के साथ मिलकर बैकवर्ड क्लासेस लीग की स्थापना की. बाद में देश भर में इसका गठन किया. तभी से अपने आवास पर कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए शानदार व्यवस्था कर रखी थी, जिसे वह जीवन भर चलाते रहे.

कांग्रेस (आई) के सदस्य के रूप में चौरसिया 3 अप्रैल 1974 से लेकर 2 अप्रैल 1980 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे और संसद में रहकर उन्होंने वंचित तबके की आवाज बुलंद की.

गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का अहम लक्ष्य रहा. उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एचएन भगवती के साथ मुफ्त कानूनी सहायता देने के सिलसिले में उन्होंने बैठकें की. चौरसिया के प्रयासों से अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया गया. लोक अदालतों को उसी विधि की एक कड़ी माना जा सकता है.

चौरसिया को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी. वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे. इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे. चौरसिया अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरूंगा. अवधी और भोजपुरी भाषा में चौरस शब्द का इस्तेमाल समतल करने के लिए होता है. चौरसिया की इच्छा थी कि हिंदू समाज समतल हो और इसमें ऊंच-नीच और आर्थिक गैर बराबरी खत्म हो.

पिछड़ी महिलाओं के लिए अलग आरक्षण की मांग

चौरसिया पहले नेता थे, जिन्होंने वंचित तबके की महिलाओं को अलग से प्रतिनिधित्व देने की मांग रखी. उनका कहना था कि ऊंची जाति की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी होती हैं और अगर महिलाओं का प्रतिशत अलग से तय नहीं किया गया तो आरक्षण का पूरा लाभ ऊंची जातियों के हक में चला जाएगा. (राष्ट्रव्यापी पिछड़ा वर्ग आंदोलन के जनक मा. शिवदयाल सिंह चौरसिया, लेखक- सुरेंद्र पाल चौरसिया)

चौरसिया ने बामसेफ, डीएस4 और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के साथ भी मिलकर काम किया. डीके खापर्डे, दीना भाना एवं कांशीराम के साथ मिलकर उन्होंने एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को एकजुट किया. उनके जानने वालों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में जब सत्ता परिवर्तन हुआ और बसपा के हाथ में पहली बार सत्ता आई तो उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद उस दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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