scorecardresearch
Tuesday, 24 December, 2024
होममत-विमतशेख हसीना प्रगतिशील नहीं थीं, इस्लामी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक कर उन्होंने भस्मासुर को पनपने दिया

शेख हसीना प्रगतिशील नहीं थीं, इस्लामी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक कर उन्होंने भस्मासुर को पनपने दिया

उन्होंने इस्लामी भस्मासुर को जन्म दिया है, जिसने खुद उन्हें ही निगल लिया यानी उनका तख्ता पलट दिया. हसीना ने मुल्क से फरार होकर अपनी जान बचाई है, लेकिन यह भस्मासुर अब मुल्क में सभी प्रगतिशील विचारकों को कुचल डालेगा.

Text Size:

भारत में ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि शेख हसीना काफी प्रगतिशील नेता हैं और वे इस्लामी कट्टरवाद से लड़ती रही हैं. यह धारणा इस तथ्य के कारण बनी है कि एक बार उन्होंने कुछ इस्लामी कट्टरपंथी युद्ध अपराधियों को सज़ा-ए-मौत दिलाने की व्यवस्था की थी. यही नहीं, उन्होंने दर्जनों जिहादियों का कत्ल करने के हुक्म जारी करके अपनी छवि जिहाद के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाली नेता की बना ली थी. इन जिहादियों ने होले आर्टिजन कैफे में विदेशियों पर बर्बर हमला किया था. इस्लामी कट्टरपंथ की मुखालफत करने वाले लोग इन वजहों से हसीना की प्रशंसा करते हैं.

लेकिन 16 साल तक गद्दी पर बैठे रहकर असल में उन्होंने क्या किया? वे ‘हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश’ नामक संगठन के कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेके रहीं और उन्हें अपने ज्यादा-से-ज्यादा मदरसे बनाने के लिए काफी ज़मीन और ढेरों पैसे दान देती रहीं. इससे हुआ यह कि ज्यादा बच्चों में ऊंचे स्तर की मतांधता पैदा करने के लिए कुरान पढ़ाया जा सकता था और उन्हें इस्लाम के सिद्धांतों के मुताबिक ढाला जा सकता था. इन ठेकेदारों को खुश करने के लिए धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों को परे करके शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने से पहले उन्होंने कुछ सोचा नहीं. वैसे भी बांग्लादेश में पहले से ही काफी मस्जिदें और मदरसे थे, लेकिन उन्होंने उन्हें और ज्यादा तादाद में बनवाने का फैसला किया. उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे मदीना सनद के मुताबिक शासन चलाएंगी और 560 नई मॉडल की मस्जिदें बनवाएंगी. मदरसों से मिलने वाली डिग्रियों को उन्होंने सामान्य यूनिवर्सिटियों की डिग्रियों के बराबर का दर्जा दे दिया. पिछली किसी सरकार ने ऐसा करने की हिम्मत नहीं की थी.

हसीना ने महिला विरोधी और हिंदू विरोधी सैकड़ों इस्लामी मुबल्लिगों को छूट दे दी कि वे वाज़ महफिलों में नौजवानों को मतांध बनाएं और औरतों तथा हिंदुओं से नफरत करना सिखाएं. और हम जैसे आज़ाद ख्याल विचारकों ने इस्लाम की गहरी तजवीज की तो हसीना ने उनका मुंह बंद करने की कोशिशें की.

उनके ही राज में स्कूली किताबों से कई हिंदू लेखकों के लेखों आदि को हटाकर उनकी जगह मुस्लिम लेखकों की रचनाएं शामिल की गईं. गद्दी पर बने रहने के लिए उन्होंने इस्लामी कट्टरपंथियों के हर एजेंडा को लागू किया. यहां तक कि कट्टरपंथियों को अपनी पार्टी में भी शामिल करने के रास्ते बनाए. मुल्लों-मौलवियों को बढ़ावा देने के लिए ‘बांग्लादेश अवामी ओलामा लीग’ नाम से अपनी पार्टी की एक शाखा भी बना दी. बदकिस्मती से यही लोग हसीना के खिलाफ हो गए. उनकी दयानतदारी से फायदा उठाने वाले ठेकेदारों, हसीना ने जो मदरसे बनाए उनके ही छात्रों और शिक्षकों ने उनका तख्ता पलटने के लिए ढाका तक एक लंबा मार्च निकाला. काउमी मदरसों से मिलने वाली डिग्रियों को मान्यता देने पर हसीना को ‘काउमी माता’ के नाम से भी जाना जाने लगा, लेकिन उनके ही ‘काउमी बच्चे’ उनके इस्तीफे की मांग करने के लिए सड़कों पर उतर आए और उनके सरकारी आवास में घुस आए.


यह भी पढ़ें: बांग्लादेश चुनाव में अवामी लीग के सामने अवामी लीग लड़ी, हसीना को अरब स्प्रिंग की चिंता करनी चाहिए


उथल-पुथल के बीच खामोशी

इस्लामी कट्टरपंथियों ने जब लालोन शाह की मूर्ति को गिरा दिया तो हसीना चुप रहीं, इस्लामी कट्टरपंथी जब हिंदू मंदिरों में घुसकर दुर्गा, काली, और सरस्वती की मूर्तियां तोड़ रहे थे तब हसीना ने उधर से मुंह फेर रखा था. इस्लामी कट्टरपंथियों ने जब कुष्टिया में बाघा जतिन की मूर्ति को तोड़ दिया तब भी उन्होंने उस पर कुछ कहने से परहेज़ किया. इस्लामी कट्टरपंथियों ने जब सुप्रीम कोर्ट के सामने लगी न्याय की देवी की मूर्ति को हटाने की मांग की तो हसीना ने उनका हुक्म मानते हुए उस मांग को पूरा किया. उन्होंने अपने अब्बा की मूर्तियां पूरे देश में लगवाईं. पिछले दो दिनों से हसीना विरोधी लोग देश भर में इन मूर्तियों के साथ तोड़फोड़ कर रहे हैं, लेकिन हसीना को चुप्पी साधे रखने के सिवाय कुछ नहीं सूझा.

हसीना विरोधी प्रदर्शनों में केवल इस्लामी कट्टरपंथी ही शामिल नहीं हैं. आंदोलन की शुरुआत मुख्यतः कॉलेजों-यूनिवर्सिटी के छात्रों और आम जनता ने की, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, लिंग या वर्ग के हों. वे अवामी लीग के नेताओं और पूरी तरह भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों से नाराज़ थे. लोग अरबों रुपये लेकर देश छोड़कर भाग रहे थे, लेकिन हसीना ने उन्हें काबू में करने के लिए कुछ नहीं किया. वे चाटुकारों से घिरी रहकर जीने का मज़ा लूट रही थीं. उन्होंने फर्ज़ी चुनाव करवाए, विपक्षी दलों का खात्मा करने की कोशिश की और देश में बोलने और लिखने के अधिकारों का गला दबाया, जिसने भी हसीना के खिलाफ आवाज़ उठाई उसे जेल में बंद करने की व्यवस्था की. यहां तक कि उनके पिता की आलोचना करने वालों को भी जेल भेजा गया. देश के लोग हसीना से डरने लगे.

अंत में छात्र नौकरियों में सरकार के आरक्षण नियमों में सुधार की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए, जिनमें से कई पुलिस की गोलीबारी में मारे गए. खतरे को भांपते हुए हसीना ने आरक्षण नियमों में सुधार तो किए, लेकिन छात्र सड़कों से हटे नहीं. वे अपने साथियों की मौत का बदला लेना चाहते थे. अब उनके साथ वे पार्टियां भी जुड़ गईं, जो अवामी लीग का विरोध करती हैं. इनमें बीएनपी, जमात-ए-इस्लामी, जातीय पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी शामिल हैं. कई इस्लामी संगठनों के अलावा हिंदू, ईसाई, बौद्ध संगठन भी रैलियों में शामिल हो गए. देश के प्रायः हर शहर की सड़कों पर राष्ट्रगान गाती, राष्ट्रीय झंडे लहराती भीड़ उमड़ आई जिनकी एक ही मांग थी — प्रधानमंत्री इस्तीफा दें.

हसीना को अंततः समझ में आ गया कि वे अपनी पुलिस, सेना या बुलेट के बूते इस भीड़ का मुकाबला नहीं कर सकती हैं. भेदभाव का विरोध करने वालों की भीड़ जिस तरह उमड़ रही थी उसने उन्हें अपनी जान बचाकर भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं छोड़ा. वे बाइज्जत इस्तीफा दे सकती थीं मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्हें छिपकर भागना पड़ा. मुझे उन पर तरस आता है. शेख मुजीबुर रहमान की मूर्ति को जिस तरह गिराया गया और धानमोंडी में उनके निजी निवास में बंगबंधु मेमोरियल म्यूजियम को जिस तरह जलाया गया वह बेहद अफसोसनाक है. ऐसी अलोकतांत्रिक सियासी हुकूमतों का ऐसा अंत कोई चौंकाने वाली बात नहीं है.


यह भी पढ़ें: ‘क्या बांग्लादेश सेक्युलर है?’ 1971 के युद्ध में हिंदू नरसंहार का ‘ज़िक्र’ न होना डॉक्युमेंट्री पर सवाल उठाता है


दूसरा पाकिस्तान नहीं

हसीना ने शुरू में ही कट्टरपंथियों के आगे घुटने न टेके होते और 1972 के धर्मनिरपेक्ष संविधान को बहाल करने का अपना चुनावी वादा पूरा किया होता तो हालात बिल्कुल अलग होते. उन्होंने कोई प्रगतिशील कदम नहीं उठाया, औरतों को बराबरी के अधिकार देने की कोशिश नहीं की; शादी, तलाक, बच्चों पर अधिकार, विरासत आदि को लेकर मजहब पर आधारित और औरतों के साथ भेदभाव करने वाले निजी कानूनों में सुधार के कदम नहीं उठाए; अधिकारों की समानता पर आधारित समान नागरिक कानून को लागू करने की कोई कोशिश नहीं की. उन्होंने संविधान में मुल्क के मजहब की जो व्यवस्था थी उसे हटाकर उसकी जगह धर्मनिरपेक्षता को दर्ज नहीं करवाया. इस्लाम को मुल्क का मजहब घोषित करने के कारण हिंदुओं और दूसरे गैर-मुस्लिमों से दोयम दर्जे के नागरिक के समान व्यवहार किया गया. हसीना की हुकूमत में ही जिहादियों ने आज़ाद ख्याल ब्लॉगरों की एक के बाद एक हत्याएं की. हसीना ने इस पर एक शब्द तक नहीं कहा. उलटे, उन्होंने ब्लॉगरों पर ही आरोप लगाए और उन्हें अपनी मौत के लिए खुद जिम्मेदार बता दिया. ज़रूरत यह थी कि मजहब को राज्य से अलग किया जाता, लेकिन अपनी लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद उन्होंने यह नहीं किया.

अब वे मुल्क को कट्टरपंथियों के हवाले करके चली गई हैं. उन्होंने इस्लामी भस्मासुर को जन्म दिया है, जिसने खुद उन्हें ही निगल लिया है यानी उनका तख्ता पलट दिया है. हसीना ने मुल्क से फरार होकर अपनी जान बचाई है, लेकिन यह भस्मासुर अब मुल्क में सभी प्रगतिशील विचारकों को कुचल डालेगा. पिछले 16 सालों में मुल्क में कट्टरवाद कई गुना मजबूत हुआ है और इसमें कमी के कोई आसार नहीं दिखते हैं. हसीना की हुकूमत में धर्मान्धों की तादाद बेहिसाब बढ़ गई है, जो बुर्कों, हिजाबों और इस्लामी पोशाकों में सजे होते हैं. उनके राज में गैर-मुस्लिमों को मजहबी दंगों से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए गए. उनके पलायन के बाद अराजक तत्वों ने उनके आवास को लगभग पूरी तरह लूट लिया, हिंदुओ के घरों पर हमले किए और संपत्तियों तथा मूर्तियों पर हमले करते हुए वे ‘अल्लाहू अकबर’ के नारे बुलंद करते रहे.

मुल्क को दूसरा पाकिस्तान न बनने दें. फौज को सत्ता में न आने दिया जाए. सत्ता राजनीतिक पार्टियों के ही हाथ में रहे. वे कमान संभालें और लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता पर आधारित हुकूमत को बहाल करें. कई लोग कहते हैं कि मुल्क पर जमात-ए-इस्लामी का राज होगा. मुमकिन है, बांग्लादेश की तकदीर में यही लिखा हो. कई दशकों से यह मुल्क इस्लामीकरण के दौर से गुज़र रहा है. देश का बहुमत जमात-ए-इस्लामी की सियासत को भले सक्रिय रूप से न कबूल करता हो मगर, लेकिन वह इस्लामी मूल्यों के साथ आगे बढ़ा है. नास्तिक, आज़ाद ख्याल, तर्कवादी और बुद्धिजीवी लोगों की तादाद बेहद कम है.

इस्लामी सोच ने हसीना की पार्टी में सेंध लगा ली है और उसके बाहर भी अपना दायरा बढ़ा लिया है. इसलिए हैरानी नहीं कि बांग्लादेश पर जमात-ए-इस्लामी का राज कायम हो जाए और वह शरीया कानून को लागू कर दे. मुझे वहां धर्मनिरपेक्षता की जल्दी बहाली की उम्मीद नहीं दिखती, लेकिन एक दिन आएगा जब लोगों का एक समूह इस्लामी ज़्यादतियों को सह नहीं पाएगा, उन ज़्यादतियों से बने उनके जख्मों से खून बहने लगेगा और उनका दर्द बर्दाश्त से बाहर हो जाएगा. वह दर्द धर्मनिरपेक्षता, समझदारी, आज़ाद सोच, हिस्सेदारी, बराबरी, और इंसानियत को जन्म देगा. वह दिन आएगा ज़रूर, भले ही इसमें कुछ देर लगे.

(तसलीमा नसरीन लेखिका और टिप्पणीकार हैं. उनका एक्स हैंडल @taslimanasreen है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘बांग्लादेशी हिंदू वो भारतीय जिन्हें हमने पीछे छोड़ दिया’ — अल्पसंख्यकों के जीवन की पड़ताल करती है ये किताब


 

share & View comments