बिहार के ‘मल्लाह पुत्र’ मुकेश सहनी, जिन्हें रविवार को राज्य के पशुपालन और मत्स्य पालन मंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया- के पास भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से पूछने के लिए कई सवाल होंगे. आखिर उनकी गलती क्या है?
उनकी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन ऐसा तो जनता दल (यूनाइटेड) ने भी किया. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी ने मणिपुर में भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए, जहां उसने पूर्व भाजपा विधायकों और नेताओं पर निशाना साधा और 60 सदस्यीय विधानसभा में छह सीटों पर जीत हासिल करने में भी सफल रही.
लोगों को लग रहा होगा कि सहनी ने यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना कर भाजपा नेताओं की नज़र में एक बड़ा पाप किया होगा. लेकिन द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसा तो नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने भी किया था, जिसके नेताओं ने वेटिकन में पोप से मुलाकात करने लेकिन भारत में ईसाइयों पर हमलों को लेकर चुप्पी साधने पर मोदी को ‘एक बड़ा झूठा’ करार दिया था.
पिछले हफ्ते, एनपीएफ मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में फिर शामिल होने वाला एकमात्र पूर्व सहयोगी बन गया. तो आखिर मुकेश सहनी का क्या कसूर है? एक समय तो वह पार्टी के लिए एकदम अपरिहार्य थे. 2020 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा को मछुआरा समुदाय के इस नेता की इतनी जरूरत थी कि पूरी उदारता के साथ उन्हें 11 विधानसभा सीटें दी गईं और एक विधान परिषद सीट की पेशकश भी की गई थी.
वीआईपी ने 11 में से चार सीटों पर जीत हासिल की, जबकि सहनी विधान परिषद सदस्य बने. 2021 में एक विधायक मुसाफिर पासवान का निधन होने पर वीआईपी के पास तीन विधायक ही रह गए जो पहले भाजपा के साथ हुआ करते थे. यूपी चुनाव के बाद वीआईपी के ये तीनों ही विधायक भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा ने पासवान के निधन के बाद बोचाहन विधानसभा उपचुनाव में वीआईपी के खिलाफ अपना प्रत्याशी भी खड़ा किया था. इसके बाद मुकेश सहनी को बाहर का रास्ता दिखाया जाना लगभग तय ही था.
मल्लाह पुत्र को अब आगे अपना राजनीतिक भविष्य अधर में ही नज़र आ रहा होगा क्योंकि विधानसभा में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और यहां तक कि विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने भी उससे दूरी बना रखी हैं. अगर उन्हें नीतीश कुमार से समर्थन मिलने की कोई उम्मीद रही भी होगी तो योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में मुख्यमंत्री के प्रधानमंत्री मोदी के आगे 45 डिग्री के कोण तक झुकने के बाद पूरी तरह खत्म हो गई होगी.
वीआईपी अब उन दो दर्जन राजनीतिक दलों की सूची में शामिल हो गया है जो 2014 से अब तक भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं.
ऐसा नहीं है कि भगवा पार्टी इस तरह सहयोगी दलों को खो देने में कोई खास परेशानी महसूस करती हो. उसने तो अन्य राज्यों में भी ऐसा ट्रैक रिकॉर्ड बना रखा है.
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मणिपुर, त्रिपुरा, बिहार आदि राज्यों की तस्वीर
मणिपुर में एन. बीरेन सिंह ने पिछले हफ्ते दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 2017 में मणिपुर में भाजपा की सरकार बनने में मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की अहम भूमिका रही थी लेकिन इस बार उसे किनारे कर दिया गया है. एनपीपी ने पिछला चुनाव अपने दम पर लड़ा था लेकिन चुनाव बाद भाजपा नीत सरकार को समर्थन की पेशकश की थी. इस बार 60 सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीतने वाली भाजपा ने संगमा की एनपीपी को कोई अहमियत नहीं दी है. आखिरकार, विधानसभा में बहुमत हासिल होने के बाद उसे इसकी जरूरत भी नहीं है. और कोनराड संगमा ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते हैं.
मेघालय में भाजपा के केवल दो विधायक हैं जिनमें से एक मंत्री है. लेकिन मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस (एमडीए) के तहत पांच दलों के गठबंधन वाली संगमा सरकार का सत्ता में टिका रहना भाजपा पर निर्भर है. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बाद असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा इन दलों को एक साथ लाए थे.
त्रिपुरा में आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता पाताल कन्या जमातिया के नेतृत्व वाले त्रिपुरा पीपुल्स फ्रंट (टीपीएफ) का एक हफ्ते पहले भाजपा में विलय हो गया है. टीपीएफ पहले त्रिप्रा मोथा के साथ नजदीकियां बढ़ा रहा था, जिसका नेतृत्व राज्य के पूर्व शाही परिवार के वंशज प्रद्योत माणिक्य देब बर्मन बहादुर करते हैं.
टीपीएफ का विलय भाजपा की तरफ से अपने गठबंधन सहयोगी इंडिजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के लिए एक तरह का संकेत भी है, जो ‘ग्रेटर त्रिप्रालैंड’ मांग को लेकर पिछले साल नवंबर में दिल्ली में त्रिप्रा मोथा की रैली में शामिल हुआ था. संकेत यह कि भाजपा को तो जमातिया के तौर पर एक आदिवासी चेहरा मिल गया है और अब आईपीएफटी को तय करना है कि सत्ताधारी दल से अलग उसका राजनीतिक भविष्य कैसा होगा.
भाजपा ने असम में दिसंबर 2020 में बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल के चुनाव के दौरान अपने सहयोगी दल बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का साथ छोड़ दिया था. इसके बाद, उसने प्रमोद बोरो के नेतृत्व वाली यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) के रूप में नया साथी चुना. यह स्थिति तब आई जब बीपीएफ ने केंद्र और विद्रोही समूहों के बीच तीसरा बोडो समझौता स्वीकार करने से इनकार कर दिया था.
नाराज़ बीपीएफ ने 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया. हालांकि, चुनाव के समय हिमंता बिस्वा सरमा ने यहां तक धमकी दे डाली कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का इस्तेमाल कर बीपीएफ प्रमुख हाग्रामा मोहिलरी को जेल भेज देंगे. बहरहाल, कुछ ही महीने पहले असम के मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि बीपीएफ को राज्य विधानसभा में भाजपा-नीत सरकार के ‘साझीदार’ के तौर पर शामिल किया गया है. विडंबना यह है कि बीपीएफ विधायक अब चुनाव में यूपीपीएल के राज्य सभा उम्मीदवार के लिए वोट कर सकते हैं.
महाराष्ट्र में आज भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) है. पार्टी प्रमुख रामदास अठावले 2016 से सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में आरपीआई (ए) को भाजपा ने कोई सीट नहीं दी थी. उसी साल विधानसभा चुनाव में पार्टी को पांच सीटें मिलीं लेकिन भाजपा के चुनाव चिह्न पर. व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो आरपीआई (ए) महाराष्ट्र की एक ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसका कोई अस्तित्व नहीं है.
बिहार में दिवंगत दलित नेता रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के अघोषित सहयोगी थे. उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि नीतीश कुमार के जदयू को पीछे छोड़कर भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में ‘बड़े भाई’ की भूमिका में आ जाए. चिराग को आज इसका पछतावा होता होगा. भाजपा को न केवल लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) टूटने का कारण बने नीतीश कुमार को साथ रखने पर बाध्य होना पड़ा, बल्कि उसने चिराग के चाचा और प्रतिद्वंद्वी गुट के नेता पशुपति कुमार पारस को मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री के तौर पर जगह भी दी. और अपनी पूरी ताकत लगा देने के बावजूद चिराग को अधर में छोड़ दिया गया. हालांकि, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी. बोचाहन विधानसभा चुनाव में चिराग ने भाजपा के समर्थन में अपना उम्मीदवार मैदान में न उतारने का फैसला किया. वह कभी न कभी इसका इनाम मिलने की उम्मीद कर रहे होंगे.
ये तमाम उदाहरण हमें क्या बताते हैं? यही ना, कि भाजपा अपने सहयोगियों के साथ शार्क-रेमोरा जैसे सहजीवी संबंधों में भरोसा करती है? शार्क एक छोटी परजीवी मछली रेमोरा को अपने शरीर से चिपके रहने और अपने शिकार का बचा-खुचा हिस्सा खाने की अनुमति देती है. इससे शार्क को जहां अपने शरीर पर चिपकी अस्वास्थ्यकर चीजों से छुटकारा मिल जाता है, वहीं रेमोरा को विशाल समुद्र में मुफ्त सवारी का आनंद मिलता रहता है.
रेमोरा तभी तक उपयोगी होती हैं जब तक परजीवी मछली के तौर पर अपनी भूमिका से संतुष्ट रहती है और किसी बड़े शिकारी के सामने आने पर उससे निपटने में शार्क की मदद करती रहती है. लेकिन सियासत के महासागर में अगर कोई रेमोरा महत्वाकांक्षी हो जाए और शार्क के लिए ही खतरा बनने की कोशिश करे तो उसे नीचे गिरना ही पड़ेगा. बिहार के ‘मल्लाह पुत्र’ के लिए यह बात समझना शायद थोड़ा मुश्किल था.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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