शाहीन बाग की महिलाओं को अपना धरना खत्म करना चाहिए. नहीं, उन कारणों से नहीं, जिन्हें कि गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के कपिल मिश्रा गिनाते हैं. कोरोना वायरस की महामारी एक उचित कारण है. नई दिल्ली के शाहीन बाग में 91 दिनों से धरने पर बैठी महिलाओं द्वारा अपने आंदोलन के समापन का. हालांकि, यह एकमात्र कारण नहीं है. अब जबकि 12 अन्य राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के समान ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी एनपीआर के नए फॉर्मेट और देशव्यापी एनआरसी को अस्वीकार करने वाला प्रस्ताव पारित कराया है, तो प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए ये जीत के कगार पर पहुंचने का दावा करने का बढ़िया मौका है, पर शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन को हवा देते रहने वाले वामपंथी और ‘प्रगतिशील’ कार्यकर्ताओं की प्रवृति रणनीतिक बढ़त पर फोकस की नहीं रही है. उनके लिए लंबी लड़ाई की अवधारणा अपने आप में एक लक्ष्य है. ये लड़ाई कैंपस वाली राजनीति जैसी ही है- ज़ोरदार नारे, इंस्टाग्राम के अनुकूल पोस्ट, भाषण और ढेर सारा आदर्शवाद. बेशक ये सारी बातें महत्वपूर्ण हैं और किसी भी आंदोलन को इनसे ऊर्जा मिलती है, लेकिन वक्त आने पर दिशा में बदलाव के लिए व्यावहारिक आकलन किया जाना ज़रूरी है. आंदोलन अंतहीन चलते रह सकते हैं, धरने नहीं.
इसीलिए, मैं फरवरी से ही सीएए और एनआरसी विरोधी कार्यकर्ताओं से एक सवाल पूछ रही हूं. शाहीन बाग के धरने के समापन को लेकर व्यावहारिक योजना क्या है? पर मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है. लक्ष्य क्या है? नाक बचाने के लिए न्यूनतम क्या हासिल करना होगा? वैसे तो आदर्श परिस्थितियों में विरोध प्रदर्शन अनंत काल तक चल सकते हैं. लेकिन वास्तविक दुनिया में, हर चतुर प्रदर्शनकारी के पास बाहर निकलने की योजना होनी चाहिए. बेशक, शुरुआत के समय किसी भी आंदोलन को भविष्य में रोकने की रणनीति तैयार नहीं रहती है. विरोध शुरू करते समय आपका संपूर्ण क्रांति से पहले रुकने का इरादा नहीं होता है. लेकिन, आंदोलन की अवधि बीतते जाने के साथ ही रणनीतिक उद्देश्यों को लेकर विचार किया जाना चाहिए और अक्सर ऐसा किया भी जाता है.
इसलिए, इस बारे में सवाल उठाने के लिए फरवरी अच्छा अवसर था, पर प्रदर्शनकारियों को इसका भान नहीं था. उन्होंने इस बारे में सोच ही नहीं रखा था. इसकी मुख्य वजह थी इस प्रदर्शन के किसी एक संगठन की अगुआई में नहीं होना. इसमें अनेक असंतुष्ट समूहों ने अपने संसाधन साझा किए हैं. सबके बीच विरोध प्रदर्शन के समापन के मौके को लेकर सहमति नहीं थी. साथ ही, शाहीन बाग से प्रेरित होकर लखनऊ, पटना, बेंगलुरु और कोलकाता में भी धरने चल रहे थे. इसलिए बहुतों के लिए भारत भर में धरने को ‘फैलाना’ एक उद्देश्य बन गया.
शाहीन बाग की महिलाओं ने दिल्ली के सबसे विषाक्त चुनाव अभियान और हाल के वर्षों के सबसे गंभीर हिंदू-मुस्लिम दंगों से घबराए बिना अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा. उन्हें ‘जिहादी’ और देशद्रोही तक कहा गया है. अब इन महिलाओं को अपनी अब तक की उपलब्धियों- प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों और संभावित नुकसान पर गौर करते हुए धरने को विराम देना चाहिए और इसे पीछे हटने या हारने के रूप में नहीं देखना चाहिए.
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वास्तविक और प्रतीकात्मक
लोगों ने ‘शाहीन बाग की दादियों’ दिसंबर से ही लगातार धरने में शामिल बुज़ुर्ग मुस्लिम महिलाओं की तारीफ की है. लेकिन, कोरोना वायरस की महामारी से सर्वाधिक खतरा वास्तव में इसी उम्र समूह के लोगों को है. भारत में कोरोना वायरस संक्रमण का आंकड़ा पहले ही 108 को पार कर चुका है. इटली में, कोविड-19 से मरने वालों की औसत उम्र 81 वर्ष बताई गई है और चीन में, वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के अनुसार, ‘संक्रमित लोगों की मौत की औसत दर जहां 2.3 प्रतिशत ही है, पर उम्र के हिसाब से इसमें बहुत अंतर है और 80 वर्ष या ऊपर के मरीजों के मामले में मौत की दर करीब 15 प्रतिशत तक है.’
भारत में सिनेमा हॉल बंद हैं. क्रिकेट मैच स्थगित कर दिए गए हैं. शादियों के कार्यक्रमों को आगे के लिए टाला जा रहा है और बड़ी सभाओं पर रोक लगाई जा रही है. ऐसे में शाहीन बाग के टेन्ट में इतने सारे लोगों, खास कर बुज़ुर्गों की उपस्थिति जनस्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह गई है. भले ही दिसंबर-जनवरी में एनआरसी और सीएए का विरोध कर रही बुज़ुर्ग और संकल्पवान महिलाओं के ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ कहते वीडियो शेयर करना एक प्रभावी कदम रहा हो, पर अब हम मार्च के उत्तरार्द्ध में हैं. लोग अब कोरोना वायरस से हो रही मौतों के बारे में वीडियो शेयर कर रहे हैं. प्रदर्शनकारियों को धरने के समापन का इससे बढ़िया मौका नहीं मिलेगा.
मैं ये नहीं कह रही कि शाहीन बाग की महिलाओं को घर में जाकर बैठ जाना चाहिए. विरोध प्रदर्शनों से तमाम महिलाओं का सशक्तिकरण होता है- चाहे वो ग्रामीण हों, शहरी, मध्य वर्ग की या निर्धन वर्ग की. इनमें शामिल होकर हस्तक्षेप करने के सामर्थ्य और स्वायत्तता का एहसास होता है और इन्हें वो कभी नहीं छोड़ सकती हैं. शाहीन बाग और इसके जैसे अन्य प्रदर्शनों ने बहुत से भारतीयों को राजनीति की एक सौम्य और सकारात्मक छवि की कल्पना करने को प्रेरित किया है. लोग धार्मिक संगठनों और अन्य नकारात्मक तत्वों के हाथों इसका खात्मा होते नहीं देख सकते.
एक विशेष रूप से अनुत्तरदायी और दुराग्रही भाजपा सरकार के सत्ता में रहते- जो विरोध करने वालों से बात नहीं करती और साथ ही उनके लिबास को लेकर उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करती है और उनके खिलाफ हिंसक कार्रवाई का संकेत देती है- बातचीत के ज़रिए आंदोलन की समाप्ति का वास्तविक अवसर कभी नहीं आया. यह पीछे हटने वाली सरकार नहीं है.
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने अन्ना हज़ारे के कुछ ही दिनों के धरने के बाद प्रदर्शनकारियों को बातचीत का आमंत्रण दिया था. लेकिन शाहीन बाग की महिलाओं ने जब दिल्ली चुनावों के बाद अमित शाह से बातचीत के लिए उनके आवास तक मार्च किया तो उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा.
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लेकिन नारीवाद की दूसरी लहर से एक अहम सीख मिली थी. जो मिल रहा है उसे ग्रहण करें और उसे आगे बढ़ाएं.
वास्तविक और आदर्श
किसी भी विरोध प्रदर्शन के आम कार्यकर्ताओं को दो विकल्प दिए जाने चाहिए- आदर्श लक्ष्य और व्यावहारिक परिदृश्य. आयोजकों और आम कार्यकर्ताओं के बीच दूसरे विकल्प पर चर्चा होनी चाहिए. विरोध प्रदर्शनों और धरनों का समापन अक्सर पुलिस द्वारा बलप्रयोग और हिंसा से होता है- जैसा कि हांगकांग के प्रदर्शनों, वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़े के आंदोलन या दिल्ली के रामलीला मैदान में 2011 के रामदेव के प्रदर्शन के मामलों में देखा जा चुका है या, यदि होशियारी से योजना बनाई जाए, तो विरोध प्रदर्शन प्लान-बी के तहत कुछ उपलब्धियों के साथ समाप्त होते हैं. जैसे जन-लोकपाल विधेयक के वायदे के साथ समाप्त हुआ आंदोलन.
शाहीन बाग की महिलाओं के लिए ऐसी ही व्यावहारिक वास्तविकता का समय आ गया है. जदयू-भाजपा शासित बिहार समेत कई राज्य सीएए और एनसीआर का विरोध कर रहे हैं और अमित शाह कह चुके हैं (अगंभीर और अनमने ढंग से ही सही) कि एनपीआर में ‘संदिग्ध’ वाली श्रेणी नहीं रहेगी और मौजूदा परिस्थिति में इलाज रहित कोरोना वायरस का खतरा भी है.
शाहीन बाग का धरना अब निरंतर घटते प्रतिफल वाला आंदोलन बन गया है.
(व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
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