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Sunday, 22 December, 2024
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सातवें बेड़े ने दिखाया कि क्वाड को अमेरिकी नेतृत्व के बजाए समान अधिकार वाले सदस्यों का समूह होना होगा

 नई दिल्ली को हमेशा याद रखना होगा कि क्वाड कोई सैन्य गठबंधन नहीं है.

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मालदीव के पास भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र में फ्रीडम ऑफ नेविगेशन अभियान संचालित करने के बाद अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े का 7 अप्रैल 2021 का बयान, यदि कानूनी रूप से वैध हो तो भी और पेंटागन के प्रवक्ता द्वारा बाद में उसे नरम बनाए जाने के बावजूद, अनुचित और भारत-अमेरिका संबंधों के मौजूदा संवेदनशील चरण के लिए असंगत था.

बताया जाता है कि नई दिल्ली स्थित चीन के रक्षा अताशे ने भारत के प्रति अमेरिका के इस रवैये को एक मातहत को लगी फटकार के रूप में प्रचारित करने का प्रयास किया. भारत को मिली इस रणनीतिक झिड़की के निचले स्तर पर हुई किसी गलतफहमी का नतीजा होने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है. लेकिन अगर इसे अमेरिकी रक्षा मंत्री का पूर्ण अनुमोदन प्राप्त रहा हो, तो यही माना जाएगा कि इसका मकसद ये जताना था कि वास्तव में बॉस कौन है. यह भारत-अमेरिका संबंधों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा, खासकर ऐसे समय जब एक अनिच्छुक नई दिल्ली ने आखिरकार क्वाड के संबंध में अपने संकोच को छोड़ा है. लगता है कि अमेरिका ने भारत के राजनीतिक रुख को गलत समझा है, विशेष रूप से क्वाड की प्रकृति के बारे में नई दिल्ली की सोच को.

भारत के दृष्टिकोण में, पुनरुत्थित क्वाड एक ऐसा मंच है जिसके मूल में चार साझेदार हैं, जबकि साझा हितों के आधार पर इसमें भागीदारी के लिए बाकियों को भी आमंत्रित किया जाता है. यानि दक्षिण चीन सागर में फ्रीडम ऑफ नेविगेशन से संबंधित विशिष्ट मुद्दों पर वियतनाम, फिलीपींस या अन्य प्रभावित देशों को साथ लिया जा सकता है. इस तरह के लचीलेपन को अपनाना क्वाड के लिए उपयोगी तरीका साबित हो सकता है.

ये तो निश्चित है कि क्वाड एक सैन्य गठबंधन नहीं है– यानि इसमें एक राष्ट्र पर हमले को दूसरे पर भी हमला मानने वाली बात नहीं है. इससे बहुत फर्क पड़ता है. इस संदर्भ में ये भी उल्लेखनीय है कि एक भारत के अलावा अन्य सदस्यों के परस्पर सैन्य गठबंधन हैं. लेकिन भारत ने ये स्पष्ट कर दिया है कि हिंद-प्रशांत की परिकल्पना किसी देश विशेष के खिलाफ केंद्रित समूह की नहीं है. बल्कि भारत इसे मुक्त, खुले, समावेशी और नियम-आधारित क्षेत्रीय व्यवस्था के सिद्धांतों को बढ़ावा देने के प्रयास के रूप में देखता है.

शीर्ष नेतृत्व स्तर के अपने पहले शिखर सम्मेलन के समापन पर ‘क्वाड की भावना’ शीर्षक से 12 मार्च 2021 के संयुक्त बयान में समूह ने कहा था, ‘हम मौजूदा दौर की मुख्य चुनौतियों के संबंध में अपने सहयोग को मजबूत करने का संकल्प लेते हैं’. ये चुनौतियां बड़ी संख्या में हैं लेकिन आसानी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अधिकांश चुनौतियां चीन से संबंधित हैं.

हिंद-प्रशांत आज एक प्राचीन भूराजनीतिक सच को ही चरितार्थ कर रहा है कि अर्थशास्त्र को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता. राष्ट्रों की नीतियां व्यापार केंद्रित होती हैं और समय के साथ आर्थिक प्रतिस्पर्धा के स्वरूप में बदलाव सैन्य संघर्षों का कारण बनता है.


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इंफ्रास्ट्रक्चर केंद्रित प्रतिस्पर्धा

अब तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भू-आर्थिक तनाव संभवत: अन्य एशियाई देशों के बीच प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों का परिणाम रहा है. ऐसा व्यापार अवरोधों में कमी के अनुरूप बुनियादी ढांचे का विकास नहीं हो पाने की वजह से हुआ, जो कि वैश्वीकरण की एक कसौटी है. बुनियादी ढांचे की समस्या को हल करने के प्रयास भू-राजनीतिक तनाव पैदा कर रहे हैं और इस तरह बुनियादी ढांचा भू-सामिरक प्रतिस्पर्धा का एक प्रमुख कारक बनकर उभरा है.

चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई)- जो एशिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ती है- उसके लिए वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रमुख साधन रहा है. क्वाड देशों के बीच, केवल जापान ने एक्सपैंडेड पार्टनरशिप फॉर क्लालिटी इंफ्रास्ट्रक्चर (ईपीक्यूआई) नामक अपनी मुख्य बुनियादी ढांचा योजना के माध्यम से इसका मुकाबला करने की कोशिश की है. क्वाड के लिए हिंद-प्रशांत में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर साझेदारी के पर्याप्त अवसर हैं. एक भू-आर्थिक ब्लूप्रिंट तैयार कर, जो कि समूह के भू-सामरिक हित में भी हो, पहले से जारी विभिन्न परियोजनाओं में परस्पर सहयोग किया जा सकता है. जब मामला चीनी तटों के पास भू-आर्थिक तनाव के सैन्य संघर्ष की दिशा में बढ़ने का हो, तो ऐसा करना और भी जरूरी हो जाता है.

यह लगभग तय है कि पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चीन द्वारा अपने तथाकथित ऐतिहासिक अधिकारों पर निरंतर जोर देने के कारण सैन्य झड़पों की आशंका बढ़ती जाएगी, विशेषकर पूर्वी एशिया और दक्षिण चीन सागर के समुद्री इलाकों में. लेकिन इससे पहले कि चीन कोई और आर्थिक या सैन्य कदम उठाए, वह पहले अमेरिका, उसके सहयोगियों, साझेदारों और आसियान के बीच फूट डालने और दबाव बनाने की कोशिश करना चाहेगा.


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बीजिंग का दबाव बनाने का प्रयास

मतभेद पैदा करने के प्रयास मुख्यतया क्वाड के सदस्यों पर केंद्रित होंगे. भारत और जापान आर्थिक प्रोत्साहनों तथा साइबर और प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई जैसे शक्ति प्रदर्शन, दोनों के ही प्रति संवेदनशील हैं. सैन्य कार्रवाई की बात करें, तो चीन भूटान के खिलाफ कदम उठा सकता है जिसके साथ भारत की संधि है. इसके लिए शायद पहले से ही तैयारियां चल रही हैं.

जापान तो अमेरिका के साथ रक्षा संधि में बंधा हुआ है लेकिन भारत को ऐसी कोई सहूलियत नहीं है और उसे खुद अपने हितों का बचाव करना होगा. लेकिन इसमें खुफिया और भू-स्थानिक सूचनाओं तथा राजनीतिक समर्थन के लिए क्वाड साझेदारों के सहयोग की जरूरत पड़ सकती है. ऑस्ट्रेलिया की कमजोरी मुख्य रूप से आर्थिक वजहों से है.

चीन अन्य देशों के माध्यम से भारत पर अप्रत्यक्ष दबाव भी बना सकता है. रूस पिछले कुछ समय से क्वाड के संबंध में चीन के विचारों को दोहरा रहा है. ये संभव है कि रूस का ये रवैया चीन पर उसकी बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक निर्भरता का परिणाम हो. यूक्रेन और क्रीमिया में 2014 में रूसी कार्रवाई के बाद अमेरिका के नेतृत्व में उस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने भी मॉस्को की सोच को प्रभावित किया था. हालांकि पारंपरिक रूप से रूसी प्रभाव क्षेत्र रहे मध्य एशिया में चीनी दखल, चीन-रूस संबंधों में एक संवेदनशील कारक बना रहेगा और ये भारत-रूस संबंधों में संतुलन बने रहने का एक कारण साबित हो सकता है.

हाल ही में रूसी विदेश मंत्री की भारत यात्रा के दौरान, रूस ने एक बार फिर से क्वाड में भारत की भागीदारी पर चिंता व्यक्त की. भारत ने अपनी सामरिक स्वायत्तता की दलील दी और रूस की चिंताओं को शांत करने का प्रयास किया. बुनियादी स्तर पर भारत-रूस संबंध ऐतिहासिक रूप से घनिष्ठ रहे हैं लेकिन वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर जारी सामरिक पुनर्संयोजन के मद्देनज़र दोनों पक्षों को सावधानी से चलना होगा.

चीन की ‘फूट डालने’ की रणनीति में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, तुर्की, सऊदी अरब और दक्षिण कोरिया को भी निशाना बनाया जा सकता है. इन सारे देशों का, अलग-अलग मात्रा में, चीन के साथ पर्याप्त आर्थिक जुड़ाव है. चीन और अमेरिका के साथ अपने संबंधों के विभिन्न संरचनात्मक कारकों के कारण जर्मनी, सऊदी अरब, तुर्की और दक्षिण कोरिया अपेक्षाकृत अधिक असुरक्षित हैं.

सैन्य दृष्टि से चूंकि ये सारे देश अमेरिका के संधि सहयोगी हैं, इसलिए चीन उन पर आर्थिक दबाव बनाने को तरजीह देगा. इस बीच, ताइवान एक बड़ा मामला बन सकता है और हैरानी नहीं होगी यदि चीन उसके कुछेक अपतटीय द्वीपों पर अचानक कब्जा कर अमेरिका के धैर्य को परखने की कोशिश करे.


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भारत के पड़ोस में समस्या खड़ी करना

चीन की दबाव बनाने की रणनीति मुख्य रूप से आसियान और भारत के पड़ोसियों पर केंद्रित होगी. आसियान सामूहिक रूप से चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. चीन की भौगोलिक निकटता और आर्थिक दबदबे के कारण अब तक आसियान के लगभग सभी देशों ने तटस्थता दिखाई है. मौजूदा समीकरण को बदलने का जो बाइडन प्रशासन का कोई भी प्रयास चीन को इन देशों में से कुछेक पर अपना दबदबा दिखाने के लिए प्रेरित कर सकता है. भारत के पड़ोसी देशों में नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका पर भी दबाव बनाया जा सकता है ताकि भारत उन्हें साधने में व्यस्त रहे.

हालांकि, चीन ने लद्दाख गतिरोध से सबक लिया होगा कि दबावकारी असर, विशेष रूप से परमाणु शक्तियों के बीच, प्रतिद्वंदी नेतृत्व की जोखिम लेने की क्षमता पर निर्भर करता है, खासकर यदि उसकी जमीन दांव पर लगी हो. भारत को अधीनस्थों वाला संबंध स्वीकार करने के लिए बाध्य करने के विचार से चीन को तौबा कर लेना चाहिए. लेकिन, अमेरिका को भी ध्यान रखना होगा कि क्वाड केवल समान अधिकार वाले सदस्यों के समूह के रूप में ही कामयाब हो सकता है, अमेरिकी नेतृत्व वाले संगठन के रूप में नहीं.

(लेखक तक्षशिला संस्थान बेंगलुरू में स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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