scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतसंसद से लेकर मध्यम वर्ग तक: ये हैं भारत की 8 नाकामियां जो कोरोनावायरस काल में सामने आ चुकी हैं

संसद से लेकर मध्यम वर्ग तक: ये हैं भारत की 8 नाकामियां जो कोरोनावायरस काल में सामने आ चुकी हैं

बेहतर देश और समाज बनाना मुश्किल तो नहीं है. लेकिन इसके लिए प्रयासों की जरूरत है. ये अपने आप नहीं हो जाएगा. कोरोना संकट ने हमारे सामने ये मौका उपस्थित कर दिया है.

Text Size:

कोई भी संकट, चाहे वह युद्ध हो या महामारी, अपने साथ अनंत तकलीफें लेकर आता है. लाखों और कई बार करोड़ों लोगों की जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है, जान और जहान दोनों का नुकसान होता है. लेकिन कई बार तबाही के ये मंजर किसी राष्ट्र के लिए नवनिर्माण का मौका भी लेकर आते हैं.

जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खुद को विकास के नए पायदान पर खड़ा कर लिया. उसी युद्ध में तबाह हुआ जर्मनी एक बार फिर से बुलंदी पर है. चीन ने भी 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति में हुई हिंसा के बाद तेजी से बदलाव किया. भूकंप और सुनामी के बाद शहरों के नए और आधुनिक तरीके से बसने के कई वाकए हैं.

कोरोनावायरस महामारी मानव इतिहास की बड़ी त्रासदी है. इसने दुनिया की कई व्यवस्थाओं को उलट-पुलट कर रख दिया है. खासकर भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो इसने लोगों के जीवन में कोहराम मचा रखा है. इसका सबसे बुरा असर खासकर उन लाखों प्रवासी मजदूरों पर पड़ा है जिनका शहरों में काम छूट गया है और जो गांव में वापस लौट आए हैं या कहीं रास्ते में हैं. देश के ज्यादातर लोग इससे किसी न किसी तरह से प्रभावित हैं.


यह भी पढ़ें : कोरोना संकट के दौरान नीतीश कुमार की बेफिक्री का राज क्या है


इस आलेख में उन बातों की चर्चा की जाएगी, जिसके बारे में आज राष्ट्र बेहतर तरीके से इस वजह से समझ पा रहा है, क्योंकि कोराना संकट ने इन समस्याओं को बेहतर तरीके से उजागर कर दिया है. हालांकि ये समस्याएं पहले भी थीं, लेकिन इनकी उग्रता इस समय बढ़कर नजर आ रही है. इन समस्याओं से उबरने के क्रम में एक नए शक्तिशाली, स्वस्थ और समर्थ भारत का निर्माण मुमकिन है.

संसद

संसद ने अपनी भूमिका नहीं निभाई: कोविड-19 से पैदा हुआ संकट अभूतपूर्व है और ऐसी स्थिति में नीति निर्माण के अभूतपूर्व कार्य होने चाहिए. अंतरराष्ट्रीय संसदीय यूनियन यानी आईपीयू ने दुनिया भर की उन संसदीय गतिविधियों का जिक्र किया है, जो कोरोनाकाल में संचालित हो रही हैं. इस लिस्ट में 100 से ज्यादा देशों का जिक्र है, लेकिन इस सूची में भारत जगह नहीं बना पाया है. इसकी वजह ये है कि लॉकडाउन से ठीक पहले भारतीय संसद के दोनों सदनों को समय से पूर्व स्थगित कर दिया गया और तब के कोई संसदीय कार्य नहीं हो रहा है. यहां तक कि संसदीय समितियों का इस दौरान होने वाला कामकाज भी स्थगित है. कई देशों में संसद सोशल या कहें तो फिजिकल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करते हुए भी कार्यवाही कर रही है.

कनाडा में संसद का वर्चुअल सत्र हुआ. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन क्वारेंटाइन से बाहर आने के बाद संसद पहुंचे और सवालों का जवाब उन्होंने दिया. कई देशों की संसद में सदस्यों की संख्या घटा दी गई है. भारत में संसद से सीखते हुए राज्यों में विधानसभाएं भी स्थगित हैं. जिस समय नीति निर्धारण में सबसे गंभीर काम होने की जरूरत है तब नीतियां बनाने वाले भारत की सबसे बड़ी संस्था और राज्यों में भी विधायिकाएं स्थगित हैं. कई सांसदों ने संसद का सीमित सत्र ही सही, पर संसद की कार्यवाही चलाने का अनुरोध किया है.

लेकिन, अभी तक सरकार की ओर से कोई पहल नहीं हुई है. सरकार ये कह सकती है कि मानसून सत्र शुरू होने में तो समय है. लेकिन इस बीच संसदीय समिति की बैठकों को न बुलाना और संसद का कोई विशेष सत्र न करना इस शीर्ष संस्था के महत्व को कम करके दिखाता है. अगर हमें भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राजकाज को लोकतांत्रिक तरीके से संचालित करना है तो संसद की सर्वोच्चता फिर से कायम करनी चाहिए.

कार्यपालिका

कार्यपालिका यानी सरकार काफी शक्तिशाही हो गई है और कार्य निष्पादन के लिए नौकरशाही पर निर्भर है: सबसे बड़ी समस्या ये हुई है कि नौकरशाही ने इस दौर में अपनी ऐतिहासिक भूमिका नहीं निभाई. कार्यपालिका के दो हिस्से होते हैं. प्रधानमंत्री, कैबिनेट या राज्यों में मुख्यमंत्री और मंत्री कार्यपालिका के निर्वाचित हिस्से हैं. जबकि नौकरशाही कार्यपालिका का चयनित यानी सिलेक्टेड हिस्सा है. कोरोना संकट के दौरान कार्यपालिका के निर्वाचित हिस्से यानी प्रधानमंत्री और मंत्री बेहद शक्तिशाली हो गए और संसद के प्रभावी न होने की स्थिति में सारे नीतिगत फैसले वे ही ले रहे हैं. चूंकि कार्यपालिका में कोई विपक्ष नहीं होता है, इसलिए इस समय ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स समेत फैसला लेने वाले लोगों पर किसी तरह का कोई अंकुश नहीं है और न ही उन्हें किसी तरह के आलोचनात्मक सुझाव मिल रहे हैं.

इन फैसलों को लागू करने का दायित्व नौकरशाही पर है, जो सामान्य स्थितियों में काम चला ले जाती है, लेकिन उनकी ट्रेनिंग असामान्य स्थितियों के हिसाब से नहीं होती. उनकी बनावट सवाल पूछने की नहीं, फैसलों को लागू करने की होती है. इसलिए कोरोना काल की जरूरतों के हिसाब से अफसर रचनात्मक नहीं हो पाए और न ही उन्होंने अपनी ओर से कोई पहल की. इसलिए किसी नौकरशाह ने सरकार को समय रहते ये नहीं बताया कि अचानक लॉकडाउन से करोड़ों जिंदगियां प्रभावित होंगी और लाखों लोग सड़कों पर आ सकते हैं. इस तरह पीएम, सीएम और डीएम का पूरा तंत्र अलग -अलग कारणों से कोरोना का उस तरह मुकाबला नहीं कर पाया, जो अपेक्षित था. नीतियां बनाने के मामले में कार्यपालिका के ऊपर संसद का वर्चस्व स्थापित करना राष्ट्र का प्राथमिक कार्यभार होना चाहिए.

न्यायपालिका

अदालतों ने कोई समाधान नहीं दिया: भारतीय लोकतंत्र के हिसाब से कानून बनाने का काम विधायिका का है और अदालत का जिम्मा कानून की व्याख्या करने और कानून के हिसाब से फैसले देने का है. इस लिहाज से नीति और कानून बनाने और उसे लागू करने में अदालतों की खास भूमिका नहीं होती. हालांकि, संसद की तुलना में कोर्ट का काम इस मामले में बेहतर रहा कि उसने काम करना बंद नहीं किया. लेकिन लॉकडाउन पीड़ित लोगों को कोर्ट से कोई राहत नहीं मिली.

कोर्ट ने माना कि ये कार्यपालिका का क्षेत्र है. लेकिन इस तरह हुआ ये कि कार्यपालिका पर न तो संसद का अंकुश रहा और न ही अदालत का. यहां तक कि मीडिया का बड़ा हिस्सा भी अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने से बचता रहा और ज्यादातर समय सरकार का गुणगान करने, विपक्ष से सवाल पूछने और माहौल में सांप्रदायिक रंग घोलने में जुटा रहा.

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा

हमें मानव विकास की परवाह कम है: कोरोना संकट ने दिखाया कि भारत के बड़े शहरों के कुछ अस्पतालों को छोड़ दिया जाए तो जिला और ब्लॉक स्तर पर अस्पतालों और चिकित्सा केंद्रों का हाल कितना बुरा है. दरअसल भारत ने आजादी के बाद से ही सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर बहुत कम सरकारी निवेश किया है. स्वास्थ्य क्षेत्र पर प्राइवेट सेक्टर का दबदबा है, लेकिन जब कोविड-19 संकट आया तो प्राइवेट सेक्टर और निजी प्रैक्टिस करने वाले ज्यादातर डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए और कोविड मरीजों का लगभग सारा बोझ उन सरकारी अस्पतालों और डॉक्टरों ने उठाया, जिन्हें अक्षम और लापरवाह कहा जाता है.

अच्छा होगा कि सरकार इस अनुभव से सबक ले और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर निवेश बढ़ाए. यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस यूरोप में पूंजीवाद का जन्म हुआ और जहां वह आज भी बेहद मजबूत है, वहां सरकारी क्षेत्र का स्वास्थ्य सुविधाओं में बोलबाला है. भारत में भी केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सरकारी अस्पताल अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में हैं वहीं, खासकर उत्तर भारत में तो अस्पतालों का हाल बेहद बुरा है. बाकी भारत को स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में केरल की बराबरी करने के प्रोजेक्ट पर काम करना चाहिए. अगला चरण यूरोपीय स्वास्थ्य प्रणाली की बराबरी करना होना चाहिए.

समता

हम सिर्फ कागज पर समतामूलक देश हैं: भारतीय संविधान का एक पूरा अंश समानता के अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों को समर्पित है, इसलिए अलावा भी सिविल राइट्स एक्ट तथा कई और कानून है, जो समानता के अधिकार को स्थापित करते हैं. लेकिन करोना संकट ने दिखाया कि भारतीय समाज गरीबों और अमीरों में बुरी तरह बंटा हुआ है. संपदा और विशेषाधिकारों पर देश की एक छोटी आबादी का बहुत ज्यादा नियंत्रण है. बाकी लोगों के हिस्से में गुरबत और तकलीफें हैं.

लॉकडाउन लगाया तो सब पर गया, लेकिन इसकी सबसे ज्यादा मार शहरी गरीबों और प्रवासी मजदूरों पर पड़ी जो नौकरी या काम न करने की स्थिति में खुद और परिवार का जीवन एक महीने तक चला पाने में भी समर्थ नहीं थे. कोविड-19 महामारी ने ये भी बताया कि भारतीय समाज अत्यंत निष्ठुर और ह्रदयहीन है, जहां गरीबों पर आए संकट से निपटने का दारोमदार खुद उन्हें ही उठाना पड़ा. शहरी मध्यवर्ग सोशल मीडिया पर पाक कला और चित्रकला तथा अन्य कलाओं के प्रदर्शन में जुटा रहा. फ्रांसिसी दर्शनशास्त्री अर्नेस्ट रेनन कहते हैं कि राष्ट्र बनाने के लिए साझा दुख होने चाहिए यानी साथ रोने की गुंजाइश होनी चाहिए. कोरोना संकट ने दिखाया कि हमने इतने साल बाद भी साथ रोना नहीं सीखा है. इस मामले में डॉ. आंबेडकर के शब्दों में भारत एक बनाता हुआ राष्ट्र है. मैं यह नहीं जानता कि भारत जैसे आर्थिक और सामाजिक रूप से बंटे हुए देश में साथ रोना कैसे मुमकिन होगा.


यह भी पढ़ें : मोदी सरकार तय करे कि कोविड-19 के दौरान लोग काढ़ा पीएं या शराब


बराबरी का विकास

हमने देश के कुछ हिस्सों को आंतरिक उपनिवेश बना दिया है: देश के आर्थिक विकास का मामला हो या विदेशी निवेश आने का या औद्योगीकरण का, ये सब चंद राज्यों और वहां भी कुछ इलाकों में सिमट गया है. बाकी देश का काम इन इलाकों के लिए सस्ता मजदूर और प्राकृतिक संसाधन देना है. इसलिए कोरोना संकट और लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों का घर लौटना एक विशेष दिशा में हुआ. विकास की इस असमानता को दूर करना किसी भी सरकार का प्राथमिक कार्यभार होना चाहिए.

ये मामला पूरी तरह बाजार की ताकतों के हवाले नहीं छोड़ा जाना चाहिए, वरना विकास की विसंगतियां बनी रहेंगी. कोराना संकट के दौर में अब ये भी नजर आ रहा है कि इन मजदूरों के चले जाने से उद्योगों को फिर से शुरू करने में दिक्कत आ रही है.

पर्यावरण

कोरोना काल में ये भी दिखा कि हमें न तो अपने जीवन की गुणवत्ता की परवाह है और न ही पर्यावरण की. जैसे ही इंसानों ने अपनी गतिविधियां सीमित की, पेड़-पौधे और जीव जगत में रौनक आ गई. नदियां साफ हो गईं और कई शहरी इलाकों में भी पक्षी चहचहाने लगे. समुद्र तट पर वे जीव लौट आए जो मनुष्यों की भीड़ के कारण गायब हो गए थे. शहरों में हवा फिर से सांस लेने लायक हो गई. लेकिन आखिर कब तक? हम जल्द ही फिर से यह सब नष्ट करके पहले जैसी स्थिति में लौट जाएंगे.

मध्यम-वर्गीय

दूसरी चीज तो कोविड काल में उजागर हुई है वह है भारत का मध्यम वर्ग. इस वर्ग ने खुद को इंडीपेंडेंट रिपब्लिक्स (स्वतंत्र गणराज्यों ) के तौर पर खुद को शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खुद को संगठित करने का काम किया है. इसने यह आरड्ब्लयूए और गेट के अंदर बंद समुदायों के माध्यम से खुद को ऐसा नियोजित किया है. और ये बड़ी-बड़ी सोसाइटी चारदीवारी और गेट में रहने वाले गणतंत्र, अलंकारिक रूप से अभिजात्य, गरीब-विरोधी, मजदूर-विरोधी और स्वयं-सेवी हैं. ये नव समृद्ध मध्य वर्ग हैं जिनके पास 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से धन आ गए. लेकिन नई समृद्धि ने उनसे भाईचारे और समाजवादी न्याय की भावना को लूट लिया है. यह वर्ग अधिकांशतः देशभक्ति का दिखावा करता है और गरीबों के साथ अपने जुड़ाव को दिखाने में घबरा रहा है.

ये बिलकुल वैसा है जिसे रोबर्ट राइच ‘समृद्धों का अलगाव’ कहते हैं. अमीर नागरिक समाज से दूर अपने निजी बंद समुदायों में सिमट जाते है. शंकर अय्यर की एक नई किताब – द गेटेड रिपब्लिक में कहते है, ‘भारतीयों का तेजी से अलगाव हो रहा है, जैसे ही उनकी आमदनी ऐसा करने की अनुमति देती है.. वे पे एंड प्लग इकॉनोमी (बिना सरकारी लाल फीताशाही) में निवेष करने लगते है.’तो जितना कम वो सरकार पर निर्भर करते हैं, उतना ज्यादा वे राज्य की गरीबों के लिए सर्विस पहुंचाने में निवेष करते हैं.

बेहतर देश और समाज बनाना मुश्किल तो नहीं है. लेकिन इसके लिए प्रयासों की जरूरत है. ये अपने आप नहीं हो जाएगा. कोरोना संकट ने हमारे सामने ये मौका उपस्थित कर दिया है.

(लेखक  पहले इंडिया टूडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं, और इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर किताबें भी लिखी हैं. लेख उनके निजी विचार हैं)

share & View comments

2 टिप्पणी

  1. बेहद रोचक तथा सही मूल्यांकन कोरोना काल के भारत का. भारत के खोखलेपन तथा समाज के दोगलापन चरम पर हैं तथा सबके सामने नंगा हो गया भारत के सरकारों तथा नागरिकों के मध्य का भेद

  2. He mahagyani….param pita ke bad aap hi pure bramnand Mai sabse syane ho…..to kuch din apni Kalam ko or apne ghatiya dimag ko Aram do….or Jo log field Mai Kam Kar rahe hai unko Kam Karne do…..aap ko b kuch badtbik logo ki madad karna chiye…..his se aap ko sachachi ka aheasas ho …

Comments are closed.