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Wednesday, 2 October, 2024
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कोरोना संकट में लगभग सौ देशों की संसद सक्रिय लेकिन भारत की संसद आखिर क्यों मौन है

संसद नीति निर्धारण करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था है. मौजूदा संकट के समय नीतियां बनाने के महत्व को समझना मुश्किल नहीं है. साथ ही संसद सरकार को जवाबदेह भी बनाती है.

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कोरोना संकट के दौर में भारत की जिस एक संस्था ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका का बिल्कुल ही निर्वाह नहीं किया है, वह है भारतीय संसद. जबकि भारत में नीति निर्धारण की सर्वोच्च संस्था होने के कारण उसे इस समय आगे बढ़कर अपना काम करना चाहिए था. भारत ने कोरोना से निपटने का जिम्मा पूरी तरह से कार्यपालिका यानी एग्जिक्यूटिव के हवाले कर दिया है, जो व्यावहारिक रूप से अफसरों के शासन में तब्दील हो चुका है. चूंकि इस समय ढेर सारी नीतियां बनाने की जरूरत है, इसलिए अगर संसद काम कर रही होती, तो शायद स्थितियां बेहतर होतीं.

कोई कह सकता है कि सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग की जरूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं था. लेकिन देखा गया है कि इसी दौरान दुनिया के लगभग सौ देशों (देखें कि किन-किन देशों की संसद ने इस दौरान क्या किया) के सांसदों ने अपने आवाम की तकलीफ़ों को लेकर अपनी-अपनी संसद में सरकारों के कामकाज का हिसाब लिया है. इतना ज़रूर है कि लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग की पाबंदियों को देखते हुए तमाम देशों ने सांसदों की सीमित मौजूदगी वाले संक्षिप्त संसद सत्रों का या वीडियो कान्फ्रेंसिंग वाली तकनीक का सहारा लेकर ‘वर्चुअल सेशन’ का आयोजन किया है. कई देशों ने संसद सत्र में सदस्यों की संख्या को सीमित रखा है, तो कुछ देशों में सिर्फ संसदीय समिति की बैठकें हो रही हैं.

इस देश की संसद मौन है

लेकिन भारत में सरकार की जवाबदेही को तय करने वाली संसद अभी तक निष्क्रिय ही बनी हुई है. यही नहीं, इसकी विभिन्न संसदीय समितियों का भी यही हाल है, जबकि इन समितियों में सीमित संख्या में ही सदस्य होते हैं. भारत में सरकार ने अभी तक संसद का विशेष कोरोना सत्र बुलाने को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखायी है. हालांकि, दो दिन पहले कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने अपने ट्वीट में कनाडा की संसद का हवाला देते हुए कहा था यदि वहां संसद का ‘वर्चुअल सेशन’ बुलाया जा सकता है तो भारत में क्यों नहीं?

इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) एक ऐसी वैश्विक संस्था है जो दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद कायम करने का एक माध्यम है. इसकी वेबसाइट पर छोटे-बड़े तमाम देशों की संसदों की ओर से कोरोना महामारी के दौरान हुई या होने वाली गतिविधियों का ब्यौरा है. लेकिन वहां दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत की संसद से जुड़ा कोई ब्यौरा नहीं है.


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भारत में बीते दो महीने से कोरोना से जूझने के लिए जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सिर्फ नौकरशाही और सरकार की नज़र है. हमारी संसद को इतनी बड़ी मानवीय आफत के दौरान पूरी तरह से निष्क्रिय बनाये रखना अफसोसजनक है. जबकि हम देख रहे हैं कि देश की बहुत बड़ी आबादी सरकारी कुप्रबंधन की ज़बरदस्त मार झेल रही है. सरकार को जो उचित और राजनीतिक रूप से उपयोगी लग रहा है, उतना ही हो पा रहा है. जहां भारी अव्यवस्था है, संवेदनहीनता है, अमानवीयता है, वहां लाचार जनता की आवाज़ उठाने वालों को सत्ता पक्ष में बैठे लोग ‘राजनीति नहीं करने’ की दुहाई देते हैं. हालांकि, खुद पूरी ताकत से राजनीति करने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

दरअसल, संसद की तीन प्रमुख भूमिकाएं है. पहला, इसकी विधायी शक्तियां. इससे इसे नये कानून बनाने का अधिकार मिलता है. दूसरा, कार्यकारी शक्तियां. इससे कार्यपालिका और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है. और तीसरा, सर्वोच्च राजनीतिक मंच. इसके ज़रिये सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की चर्चा और बहस के रूप में समीक्षा की जाती है और सरकार के पक्ष या विरोध में जनमत तैयार किया जाता है. सामान्य दिनों में तीनों भूमिकाओं में से ‘सर्वोच्च राजनीतिक मंच’ को प्राथमिकता मिलती है, क्योंकि इस भूमिका में विपक्ष सबसे ज़्यादा सक्रिय होता है. कार्यकारी शक्तियां हमेशा सरकार की मुट्ठी में रहती है तो विधायी शक्तियों का सीधा संबंध दलगत शक्ति या पक्ष-विपक्ष के संख्या बल से होता है.

संसद का रहता है सरकार पर अंकुश

संसद के निष्क्रिय रहने की वजह से सरकार निरंकुश हो जाती है. भारी बहुमत वाली सरकार तो कई बार संसद को ठेंगे पर रखकर तानाशाही भरा और अदूरदर्शी फ़ैसला भी करने लगती है. जैसे, पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्यों ने धड़ाधड़ ऐलान कर दिया कि वो श्रम कानूनों को तीन साल के लिए स्थगित कर रहे हैं. इनमें बीजेपी और कांग्रेस शासित दोनों तरह के राज्य हैं. जबकि ये विषय समवर्ती सूची में है और इन कानूनों के मामले में संसद सर्वोपरि है. संविधान ने इन्हें संसद की ओर से बनाये गये कानूनों को स्थगित करने का कोई अधिकार नहीं दिया है, लेकिन कोरोना आपदा की आड़ में इन्होंने लक्ष्मण रेखाएं पार कर लीं.

इसी तरह, प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों ने मिलकर जिस 21 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज और आर्थिक सुधार का ऐलान किया उसके लिए संसद की मंजूरी लेना बहुत ज़रूरी है. ज्यादातर देशों की सरकारें पैकेज के लिए संसद के पास गई जहां पैकेज को मंजूर किया गया. लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ. जबकि संविधान साफ कहता है कि सरकार लोकसभा की मंज़ूरी के बगैर सरकारी खज़ाने का एक रुपया भी खर्च नहीं कर सकती. बजट और वित्त विधेयक के पास होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिलती है. इसीलिए अभी कोई नहीं जानता कि 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपये असली राहत पर खर्च हुए हैं, वो 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय खर्चों के अलावा हैं अथवा इसे अन्य मदों के खर्चों में कटौती करके बनाया जाएगा.


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इसी तरह, देश भर की सड़कों पर बिखरे दारुण दृश्यों को लेकर ‘सर्वोच्च राजनीतिक मंच’ पर कोई आवाज़ सुनायी नहीं दी है. क़रीब 15 करोड़ किसान और 10 करोड़ प्रवासी मज़दूरों की तकलीफ़ों की गूँज भी संसद में नहीं सुनायी दी. जनता के प्रतिनिधियों को मौका नहीं मिला कि वो प्रधानमंत्री को स्थिति का दूसरा पक्ष भी बता सकें. सरकार से जवाब-तलब करने वाला प्रश्नकाल भी ख़ामोश है.

लॉकडाउन के बावजूद यदि न्यायपालिका, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट, यदि आंशिक रूप से सक्रिय रह सकते हैं, तो संसद को निष्क्रिय रखना लोकतंत्र के लिए बेहद चिंताजनक है. इसीलिए सरकार को पूरी तकनीक का इस्तेमाल करके और सारी सावधानियां बरतते हुए यथाशीघ्र संसद का विशेष कोरोना सत्र जरूर बुलाना चाहिए.

हालांकि, इसकी कोई संवैधानिक अनिवार्यता नहीं है, क्योंकि संसद के बजट सत्र का आकस्मिक समापन 23 मार्च को हुआ था. संविधान के मुताबिक, साल भर में संसद के तीन सत्र होने अनिवार्य हैं और किन्हीं दो सत्र के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए. अभी इस तकनीकी पक्ष के सहारे संसद सत्र को टाला जा सकता है लेकिन ऐसा करना लोकतंत्र की बुनियादी धारणाओं के खिलाफ होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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