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Thursday, 26 December, 2024
होममत-विमतSCO हो या BRICS या RIC, चीन सबकी मेज पर हावी है और भारत के हिस्से में हैं नकली मुस्कानें    

SCO हो या BRICS या RIC, चीन सबकी मेज पर हावी है और भारत के हिस्से में हैं नकली मुस्कानें    

गुटनिरपेक्षता वाले दौर को आज शिद्दत से याद किया जा रहा है. बहुपक्षवाद फैशन में है. और हम सहारा उन संगठनों में तलाश रहे हैं जिन्हें चीन ने बनाया या जिन पर उसका वर्चस्व है

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गोवा में शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (‘एससीओ’) की विदेश मंत्री स्तरीय बैठक ने रस्मी फोटो खिंचवाने के मौके तो बनाए ही, बंद कमरों में हुई वार्ताओं ने शायद कुछ महत्वपूर्ण नतीजे भी दिए. इसने शायद ऐसे बहुपक्षीय संगठनों की बढ़ती संख्या पर हमें सोच-विचार करने को मजबूर भी किया कि आखिर इनका मकसद क्या है और भारत के लिए इनका क्या महत्व है.

जैसा कि नाम से ही जाहिर है, ‘एससीओ’ चीन की पहल से बना संगठन है, और ऊपर से चाहे जो दिखता हो, वास्तव में इसका नेतृत्व भी चीन ही कर रहा है. लगभग इसी दौर में, पिछले दो दशकों में जो दो और संगठन उभरे हैं उन पर भी नज़र डालें. एक है ‘ब्रिक्स’ (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका का फोरम) और दूसरा है ‘आरआइसी’ (रूस-भारत-चीन का फोरम).

इन सबमें तीन देश शामिल हैं— चीन, रूस, और भारत. इन तीनों संगठनों में चीन की प्रमुखता समान तत्व है. इसीलिए हमने भारत को सबसे अंत में रखा है.

हम सब जानते हैं कि सभी सरकारें शिखर बैठकों की तामझाम पसंद करती हैं. और इंदिरा गांधी की सरकार के बाद शायद मोदी सरकार ऐसी है जिसे इन सबमें काफी आनंद आता है. लेकिन इन तीन क्षेत्रीय संगठनों में, जिन पर चीन हावी है और रूस जिसका वफादार पिछलग्गू बना हुआ है, इतने उत्साह से भाग लेने के नकारात्मक पहलू पर विचार करना भी जरूरी है.

हम यह भी जानते हैं कि बहुपक्षवाद इन दिनों एक नारा बना हुआ है. लेकिन जो संगठन चीन की पहल से बने, जिन्हें चीन ही चला रहा है, और जिनमें चीन के लगभग गुलाम नहीं तो वफादार दो देशों के प्रति विरोध की भूमिका वाला भारत शामिल है उनसे किस तरह और किस स्तर के बहुपक्षवाद की उम्मीद की जा सकती है?

अगर हम “अलगथलग पड़ा भारत” कहें तो कई लोग तीखी प्रतिक्रिया कर सकते हैं. लेकिन आप चाहे इनमें से किसी भी संगठन के बारे में विचार कीजिए, चीन और रूस एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े नज़र आएंगे.

रूसी विदेश मंत्री सर्गी लाव्रोव दिल्ली में एक शक्तिशाली बौद्धिक जमावड़े (मसलन ‘ओआरएफ’ के रायसीना डायलॉग) में मेजबान और भारतीय श्रोताओं को बेशक यह याद दिलाते हुए चेतावनी जैसी दे सकते हैं कि भारत ने अगर किसी एक देश के साथ रणनीतिक संधि पर दस्तखत किया है तो वह रूस ही है. यह वे उस देश में कह रहे हैं जिसमें पिछले 25 वर्षों में लगातार तीन प्रधानमंत्रियों ने जिस देश के साथ “जरूरी” और “स्वाभाविक” रणनीतिक सहयोग का स्वागत किया है वह देश अमेरिका है, रूस नहीं.

‘एससीओ’ की यह बैठक भारत की मौजूदा दुविधा को (हाल में हुई ऐसी किसी बैठक से ज्यादा) उजागर करती है. भारत को एक ऐसे समूह को मजबूरन अपना इतना समय और इतनी ऊर्जा देनी पड़ रही है,  उसमें इतनी राजनीतिक पूंजी लगानी पड़ रही है और नकली मुस्कराहटें बिखेरनी पड़ रही हैं, जिसके साथ उसके कई हित गंभीर रूप से टकरा रहे हैं. वह रूस से दूर नहीं रह सकता, जो काफी कमजोर पड़ चुका है और जो चीन का पिछलग्गू बन चुका है. इसी शिखर बैठक में, एक ही मेज पर भारत पाकिस्तान के प्रति रूखा रुख दिखाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता. लेकिन क्या वह चीन के प्रति नाक-भौं सिकोड़ने की कोशिश कर सकता है?

बड़ी तस्वीर क्या कहती है? आज हमारा सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी कौन है? हमारे गले की सबसे बड़ी फांस कौन है? और कौन है जिसने 3000 किमी से ज्यादा लंबी हमारी सीमाओं को सक्रिय कर रखा है और हमारी सैन्य तैनातियों तथा तेवर को गड्डमड्ड कर दिया है?


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चूंकि छल-कपट कूटनीति का अहम तत्व है और इसके आधार पर किसी देश का आकलन नहीं किया जाता, इसलिए दुश्मन के साथ पींगें बढ़ाने का इसमें वही अर्थ नहीं होता जो व्यक्तियों के निजी जीवन के मामले में होता है. लेकिन बहुपक्षवाद का मकसद अगर अपने विकल्पों को व्यापक करना है, तो चीन के वर्चस्व वाली मेज पर यह मेलजोल दुर्भाग्य से इस बात का उदाहरण है कि विकल्प किस तरह सीमित हो रहे हैं.

पिछले तीन दशकों में जबकि भारत और चीन, दोनों ने भारी तरक्की की है, तीन तथाकथित बहुपक्षीय संगठन भी खड़े हो गए हैं. विस्तृत क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में फिलहाल चीन ने बाजी मार ली है. भारत की स्थिति इस तथ्य के कारण भी मजबूत नहीं हुई है कि वह ‘सार्क’ (दक्षिण एशियाई  क्षेत्रीय सहयोग संगठन) के बूते नेतृत्व संभालने में चूक गया और यह संगठन भी कुल मिलाकर निष्क्रिय हो गया. हमारे निकटवर्ती क्षेत्र में भी बहुपक्षीय संगठन अगर चीन को साथ रखते हैं तब वे किसी मकसद से काम करते नज़र आते हैं लेकिन सुपर पावर बनने की हसरत रखने वाले भारत के लिए यह खीझ पैदा करने वाली स्थिति ही है.

‘एससीओ’ के बारे में विचार करने का एक तरीका यह कल्पना करना है कि भारत जिस ‘सार्क’ संगठन का प्रमुख सदस्य था उसमें अगर इस क्षेत्र के बड़े देशों मसलन अफगानिस्तान, थाईलैंड, और मध्य एशिया के ईरान तथा रूस जैसे देशों को शामिल किया जाए तो क्या होगा? अगर ऐसा किया गया तो क्या उसमें भारत अपनी प्रमुखता बनाए रख सकेगा?

अब जरा यह देखें कि ‘एससीओ’ किस तरह अस्तित्व में आया. शुरू में, 1966 में यह ‘शंघाई फाइव’ नाम का जमावड़ा था जिसमें चीन, रूस, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, और ताजिकिस्तान शामिल थे. 26 अप्रैल 1996 को हुई इसकी शिखर बैठक में इन पांच पड़ोसी देशों के बीच ‘गहराते सैन्य विश्वास की संधि’ हुई.

इस संगठन के मूलतः रणनीतिक-सामरिक मूल को लेकर अगर कोई संदेह था तो उसे अगले साल, 24 अप्रैल 1997 को मॉस्को में हुई शिखर बैठक में, सीमा क्षेत्रों में तैनात सेनाओं को कम करने की संधि ने दूर कर दिया. बोरिस येल्तसिन और जियांग जेमिन ने ‘बहुध्रुवी विश्व’ को लेकर एक संयुक्त घोषणापत्र पर भी दस्तखत किए. 1990 के दशक के मध्य का दौर एकध्रुवी विश्व के चरम स्तर का काल भी था, जब रूस और चीन दोनों ही अमेरिकी/पश्चिमी प्रभाव से मुक्त क्षेत्र बनाने को बेकरार थे.

भारत में वह पी.वी. नरसिंहराव के कार्यकाल का उत्तरार्द्ध था, जब भारत ने पश्चिम की ओर देखना शुरू किया था. अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी तक भारत इसी दिशा में बढ़ता रहा है. लेकिन गुटनिरपेक्षता वाले दौर को आज शिद्दत से याद किया जा रहा है. यह शायद मानवाधिकारों, नागरिक स्वाधीनताओं, और अल्पसंख्यकों के मामले में मोदी सरकार के रेकॉर्ड की पश्चिमी संस्थाओं और सरकारों द्वारा की जा रही आलोचनाओं और सवालों पर स्वतः उभरी प्रतिक्रिया है. पश्चिम जिस तरह फिर से संदेह जाहिर कर रहा है उसके कारण बहुपक्षवाद फैशन में है. मजे की बात यह है कि हम सहारा उन संगठनों में तलाश रहे हैं जिन्हें चीन ने बनाया या जिन पर उसका वर्चस्व है.

‘एससीओ’, ‘ब्रिक्स’, ‘आरआइसी’ जैसे उन सभी संगठनों के साथ यही समस्या है जिनकी याद लाव्रोव ने हमें दिलाई. समस्या इसलिए और गंभीर हुई है कि इतने दशकों में भारत अपना एक क्षेत्रीय संगठन नहीं बना पाया, जो बहुपक्षवाद का एहसास पैदा कर सके, चाहे वह बहुपक्षवाद भू-राजनीतिक दृष्टि से कितना भी सीमित क्यों न  हो.

इन संगठनों, खासकर ‘एससीओ’, की जो सामरिक-रणनीतिक प्राथमिकताएं हैं वे रणनीतिक स्वायत्तता  तलाशने में भारत की मदद नहीं करतीं. बल्कि उसे सीमित ही करती हैं. आज अगर रूस और चीन आपके साथ एक मेज पर बैठे हैं तब आपको पता है कि किसके साथ दोस्ती मजबूत है और किसके साथ प्रतिद्वंद्विता है. ये दोनों मिलकर भारत के लिए ऐसे संगठनों के मामले में विकल्पों को सीमित कर देते हैं जिनसे उसके मौजूदा रणनीतिक हित जुड़े हों. उदाहरण के लिए ‘क्वाड’ का नाम लिया जा सकता है.

छह दशकों से जो शर्तिया आपका सबसे अच्छा दोस्त रहा वह आपके सबसे महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी का नया, सबसे जरूरी रणनीतिक सहयोगी बन जाए तो यह खीझ पैदा करने वाली बात ही है. यह सैन्य साजोसामान के मामले में भारत की दुखती कमजोरी को भी उजागर कर देती है.

सच कहा जाए तो इसके लिए आप नरेंद्र मोदी या एस. जयशंकर को दोषी नहीं ठहरा सकते, क्योंकि यह गड्ढा उन्होंने नहीं खोदा है. न ही उन्होंने भारत को इस गड्ढे में पहुंचाया है. लेकिन उन्हें इससे बाहर निकलने का उपाय करना है. या कम-से-कम अपेक्षाकृत शांति तथा स्थिरता के दशक की व्यवस्था करनी है. परंतु यह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के एक हिस्से की खातिर दूसरे हिस्से को क़ुरबान करके नहीं की जानी चाहिए.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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