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Thursday, 25 April, 2024
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नरोदा गाम से अतीक़ तक खिंचती रेखा ने ‘ठोक दो’ वाली संस्कृति तक पहुंचाया है

नरोदा गाम से लेकर जयपुर बमकांड और गैंगस्टरों तक के मामलों में इंसाफ से वंचित किए जाने की  वजह से ‘सिस्टम’ पर भरोसा जिस तरह घटा है उसने हमारी लोक संस्कृति में ‘सिंघम’ वाली मानसिकता को जन्म दिया है.

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दो पड़ोसी राज्यों में जनसंहार के पुराने मामलों में जो दो अदालती फैसले आए हैं उनमें आरोपियों को बरी कर दिया गया है.

पहला फैसला राजस्थान हाइकोर्ट का है. इस साल 29 मार्च को सुनाए गए अपने फैसले में उसने मई 2008 में जयपुर में हुए बम धमाकों के चार मुस्लिम आरोपियों को दी गई सख्त सज़ा से बरी कर दिया. दूसरा फैसला अभी इसी सप्ताह आया है, जिसमें गुजरात की एक निचली अदालत ने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान नरोदा गाम हत्याकांड के सभी 67 हिंदू आरोपियों को बरी कर दिया.

तर्क के लिए हम यह मान लें कि दोनों मामलों में जजों ने सही फैसला सुनाया, कि सारे आरोपी बेकसूर थे. लेकिन इससे सीधे-सीधे तीन निष्कर्ष निकलते हैं.

एक यह कि जयपुर बमकांड में मारे गए, अपंग हुए लोगों, और उनके परिजनों को 15 साल बाद; और गुजरात दंगों में मारे गए, अपंग हुए लोगों और उनके परिजनों को 21 साल बाद भी कोई इंसाफ नहीं मिला. पहले मामले में सारे भुक्तभोगी हिंदू थे और दूसरे मामले में सारे भुक्तभोगी मुसलमान थे.

दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि उन अदालतों के मुताबिक अगर सारे आरोपी (पहले मामले में सारे मुसलमान, दूसरे मामले में सारे हिंदू) बेकसूर थे तो उन्हें बेवजह इतने दशकों तक जेल में अपनी ज़िंदगी बरबाद करनी पड़ी. अगर आप उन आरोपियों की कुल संख्या को जेल में बेवजह बिताए उनके वर्षों की संख्या से गुणा करें तो पाएंगे कि जिन लोगों को अंततः बेकसूर घोषित किया गया उन्हें करीब 1000 साल तक आज़ादी से वंचित रखा गया.

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उपरोक्त दो मुद्दों का सार यह निकलता है कि इतने दशकों के बाद भी इतने सारे पीड़ित भारतीयों (बमकांडों और सांप्रदायिक दंगे में चुन-चुन कर निशाना बनाए गए भुक्तभोगियों), और इन अपराधों को  कथित तौर पर अंजाम देने वालों को ऐसा न्याय दिया गया जो उतना ही अनुचित था. और धर्म-निरपेक्ष था.

यह हमें तीसरे निष्कर्ष पर पहुंचाता है. किसी भी आपराधिक मामले में भुक्तभोगी और आरोपी के अलावा एक तीसरा और उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष है सरकारी तंत्र, जो वैचारिक और सैद्धांतिक दृष्टि से बाकी दो पक्षों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि बाकी दो तरह के भुक्तभोगी व्यक्ति हैं. लेकिन सरकारी तंत्र हम सबका, पूरे समाज का, संविधान तथा गणतंत्र की शान का प्रतिनिधित्व करता है.

गणतंत्र अपने नागरिकों से किए गए वादे को पूरा करने में खरा उतरे इसके लिए जरूरी है कि वह दोषियों को पकड़े, उन पर मुकदमा चलाए और इस बात की पूरी कोशिश करे कि उन्हें अपेक्षित सज़ा मिले. हम हमेशा याद रखें कि सुप्रीम कोर्ट ने एक कसूरवार आतंकवादी को फांसी की सज़ा को उचित ठहराते हुए कहा था कि यह भारत की जनता के सामूहिक जमीर को संतुष्ट करती है.

उपरोक्त दोनों मामलों में इस संतुष्टि से पूरी तरह वंचित किया गया है. हमारी न्याय व्यवस्था जिस तरह काम करती है उसमें अपील की प्रक्रिया चलती रहेगी, दोनों मामले में कोई नई जांच नहीं की जाएगी. अगर ऊपर की, अपीली अदालतें भी यही फैसला सुनाती हैं कि जिन्हें बरी किया गया है वे वास्तव में बेकसूर हैं, तो असली अपराधी कभी नहीं पकड़े जाएंगे. यह सरकारी तंत्र के लिए भी उतनी ही बड़ी नाइंसाफी होगी जितनी दोनों पक्षों के हिंदुओ और मुसलमानों के लिए होगी, चाहे वे भुक्तभोगी हों या कथित अपराधी. इसे आप तीसरी बार हुए अन्याय के मामले के रूप में दर्ज कर सकते हैं.


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ऐसी घोर नाइंसाफी क्यों होती है, और वह भी प्रायः? अगर आप इन मामलों में या ऐसे सभी मामलों में, जिनमें अंततः किसी को सज़ा नहीं दी गई, अदालती आदेशों का विश्लेषण करेंगे तो एक समान प्रवृत्ति पाएंगे. घटिया जांच की गई; हड़बड़ी में अटपटे, नकली सबूत जुटाए गए; सिखाए-पढ़ाए गए गवाह पेश किए गए. दशकों तक मुकदमा घिसटता रहता है तो कई गवाह गुजर चुके होते हैं, कई लोगों को अपना मन बदलने के लिए ‘तैयार’ कर लिया जाता है. और अंततः राजनीतिक पहलू है, जो रंग बदलता रहता है.

एक और पहलू है, आरोपी के रसूख और दबदबे का. उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर और उनकी आपसी ‘जंग’ पिछले दो सप्ताहों से सुर्खियों में हैं. उनमें से तीन सबसे प्रमुख गैंगस्टर, अतीक़ अहमद, मुख्तार अंसारी, और बृजेश सिंह कई राजनीतिक हत्याओं/ जनसंहारों के मुकदमे बड़े आराम से निबटा चुके हैं. हरेक मामले में या तो गवाह नहीं मिले या वे मुकर गए या मामला दर्ज करवाने वाला ही उदासीन हो गया.

अतीक़ पर नवनिर्वाचित बसपा विधायक राजू पाल (जिसने अतीक़ के भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ को चुनाव में हराया था) की 25 जनवरी 2005 को हत्या करने का आरोप था. यह हत्या बड़े नाटकीय ढंग से, एक बड़ी भीड़ के सामने की गई थी.

इसका मुकदमा 18 साल बाद भी जारी था. गवाह मुकर रहे थे, लापता हो रहे थे. और एक कुख्यात मामले में तो ये दोनों बातें हुई थीं. उमेश पाल अभियोजन पक्ष की ओर से गवाह था. जाहिर है, दबाव में वह ‘मुकर’ गया था और अपना मन उसने बदल लिया था. अतीक़ के गिरोह ने 2006 में उसका अपहरण कर लिया और 24 फरवरी को अतीक़ के बेटे असद ने कैमरे के सामने उसकी हत्या कर दी. अतीक़ को 2006 में उमेश के अपहरण के लिए सज़ा दे दी गई थी मगर हत्या का मुकदमा चल रहा था.

मुकदमा राज्य की राजनीतिक तकदीर के साथ आगे बढ़ता या घिसटता रहा. यही वजह है कि एक ‘मुठभेड़’ में असद के मारे जाने के दो दिन के अंदर ही अतीक़ और उसके भाई अशरफ को जब पुलिस सुरक्षा में होने के बावजूद मार डाला गया तो इस पर कोई शोरशराबा होने की जगह उसका व्यापक जश्न मनाया गया. न्याय करने में इस तरह की विफलताएं हमारी पुलिस और राजनीतिक नेताओं में स्वयंभू पहरुआ संस्कृति को जन्म देती है, जो फटाफट लोकप्रियता हासिल करने का जोखिम मुक्त रास्ता है. हम चाहें जितने सख्त संपादकीय लिख डालें, “ठोक दो” वाले तरीके को समाज में व्यापक स्वीकृति हासिल है.

मुख्तार अंसारी पर हत्या समेत कई अपराधों के जो आरोप लगाए गए हैं उनमें सबसे प्रमुख था गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद से विधायक कृष्णानंद राय की नाटकीय तरीके से की गई हत्या का. इलाहाबाद पश्चिम के विधायक राजू पाल की तरह उन्होंने भी बाहुबली अंसारी के भाई को चुनाव में हराने की हिम्मत  की थी. उसकी हत्या में एके-47 का जमकर इस्तेमाल किया गया था और हत्यास्थल से सात शवों से कारतूसों के 7.62 मिलीमीटर के 400 खाली खोखे बरामद किए गए, अकेले राय के शव से 21 खाली कारतूस बरामद हुए. यह भी 2005 का मामला है.

इसके 14 साल बाद दिल्ली की एक अदालत ने— जहां मुकदमे का तबादला कर दिया गया था क्योंकि यूपी में इंसाफ मिलने की संभावना नहीं थी— सारे आरोपियों को बरी कर दिया. इसकी रिपोर्ट और जज का दर्द हमारी रिपोर्टर अपूर्वा मंधानी द्वारा लिखी गई खबर में पढ़िए. जज का कहना था कि सारे गवाह मुकर गए थे, और वे चाहते थे कि काश असली गवाह की सुरक्षा की स्कीम तब लागू की जाती.

भाजपा के एक विधायक की हत्या के 14 साल बाद, 2019 में नरेंद्र मोदी की सरकार की वापसी के बाद भी अगर हत्यारों को सज़ा नहीं होती तब हमारी सामूहिक मानसिकता पर इसका क्या असर पड़ेगा? क्या “ठोक दो” की मांग उग्रता से नहीं उठाई जाएगी?

जैसा कि हमने जयपुर बमकांड और नरोदा गाम मामलों में देखा, यह हिंदू-मुसलमान वाला मसला नहीं है. न्याय से वंचित करना पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष मामला है. अंसारी कुनबे के तीस साल पुराने प्रतिद्वंद्वी बृजेश सिंह को अगस्त 2022 में जमानत पर रिहा किया गया. उसके खिलाफ 2001 में मुख्तार अंसारी पर भारी हमला करने के आरोप में 20 साल से ज्यादा समय से मुकदमा चल रहा था.

अंसारी तो बच निकला था लेकिन उसके साथ के दो लोग मारे गए. इस मामले में भी समय बीतने के साथ गवाहों, सबूतों, और अभियोजन पक्ष की दिलचस्पी घट गई. सिंह को दिल्ली पुलिस ने 2008 में भुवनेश्वर में पकड़ा और वह 14 साल जेल में रहा. वह अब लगभग आज़ाद है. उसका भतीजा विधानसभा सदस्य है तथा उसकी पत्नी विधान परिषद सदस्य है.

तीन डॉनों का केरियर तीन दशकों तक साथ-साथ आगे बढ़ा, और वे सब सांसद, विधायक बने. हरेक के मामले में यह राजनीति, शासन, और न्यायपालिका की विफलता है. हरेक मामले को फटाफट न्याय की मांग को पूरा करने के लिए जरूरी माना गया.

सबसे ताजा इन पांच मामलों को एक साथ जोड़कर देखें तो इंसाफ से वंचित करने की पूरी तस्वीर तैयार होती है— भुक्तभोगियों को, सरकारी तंत्र को, अपराधियों को, और इस तरह हम सभी भारतीयों को इंसाफ से वंचित करने की तस्वीर.

इसी वजह से ‘सिस्टम’ पर भरोसा घटा है. इसने हमारी लोक संस्कृति में ‘सिंघम’ वाली मानसिकता को जन्म दिया है. यह मानसिकता कितनी गहरी है यह आइआइटी से पढ़े तमिलनाडु के एक आइपीएस अफसर द्वारा अभी हाल में ही किए गए कथित क्रूर अत्याचारों से स्पष्ट है. इस अफसर के खिलाफ आपराधिक मामला दायर किया जा चुका है.

लेकिन इस ध्रुवीकृत माहौल में आप किस तरफ हैं, इससे ही यह तय होगा कि भरोसे की इस कमी की वजह से आप आप स्वयंभू पहरुए की भूमिका को पसंद करेंगे या आप, पता नहीं, आतंकवाद की शरण लेंगे. लगातार घटीं पांच घटनाएं सावधान करने के लिए काफी होनी चाहिए.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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