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Thursday, 21 November, 2024
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भारत का अभिजात समाजवाद सिंधिया सरीखे नेताओं को फकीरी दिखाने पर मजबूर करता है

सिंधिया का ‘एसी-रहित’ रेंज रोवर इस बात को उजागर करता है कि एक खास तरह का पाखंडपूर्ण और आत्मघाती- सामाजिक-लोकलुभावनवाद हमारी राष्ट्रीय विचारधारा है और यही कारण है कि हिंदू विकास दर भारत की नियति है.

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ज्योतिरादित्य सिंधिया का जब भोपाल में भाजपा द्वारा उल्लासमय स्वागत किया जा रहा था तो उस आवेगपूर्ण क्षण में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि पूरे राज्य की राजनीति में वो स्वयं और शिवराज सिंह चौहान, ये दो नेता ही ऐसे रहे हैं जो अपनी कारों में एयरकंडीशनर नहीं चलाते.

इस बात पर कुछ लोगों ने चुटकी भी ली कि एक महाराजा ऐसा भी है जो रेंज रोवर से चलता है पर एसी नहीं चलाता. लेकिन ऐसी बातें महत्वहीन हैं. दरअसल सिंधिया भारतीय राजनीति के एक केंद्रीय यथार्थ का हवाला दे रहे थे- कि सर्वाधिक ताकतवर और धनी से लेकर राजपरिवार के सदस्य और टाइकून तक को किफ़ायत पसंद दिखना पड़ता है, भले ही वे चाय बेचने वाले के परिवेश से आने का दावा नहीं कर सकते हों.

आइए इस संबंध में भारतीय राजनीति के सबसे प्रसिद्ध चाय वाले का उदाहरण लेते हैं. राजनीति की उपरोक्त वास्तविकता पर ही ज़ोर देते हुए विज्ञापन जगत की मशहूर हस्ती और गीतकार प्रसून जोशी ने लंदन से टेलीविजन पर प्रसारित 2018 के उस इंटरव्यू में तारीफ़ के वो चर्चित बोल बोले थे. ‘इतनी फक़ीरी आप में कहां से आई?’ यानि, कहां से आपने ये फक़ीरों वाली सादगी/मितव्ययिता पाई है? इसका सरल और तथ्यात्मक जवाब ये होता कि मैं फक़ीरी के माहौल में पैदा हुआ था, इतना गरीब था कि मुझे रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचनी पड़ती थी. लेकिन इस तरह के जवाब से सवाल का उद्देश्य ही पिट जाता, जो इस बात पर ज़ोर देने के लिए पूछा गया था कि जिस व्यक्ति के पास इतनी ताकत हो और जो इतना अधिक लोकप्रिय हो वो भी फक़ीर जैसा जीवन अपना सकता है.

यहां तीन प्रासंगिक तथ्यों का ज़िक्र किया जाना चाहिए. सर्वप्रथम, हम शासक वर्ग से कुलीनता को कितना भी जोड़ते हों पर कोई सामंत या महाराजा अभी तक शीर्ष पद पर नहीं पहुंचा है. हालांकि देखें तो कोई फक़ीर भी वहां तक नहीं पहुंच पाया है. मोदी को भी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद ही फक़ीर का दर्जा दिया जा रहा है. और तीसरी बात, एक ही मौका ऐसा था जब हमने एक लोकप्रिय राजा (महाराजा नहीं) को शीर्ष पद के लिए चुना, लेकिन उसका भी नारा था, ‘राजा नहीं फक़ीर है, देश की तक़दीर है’. हम वीपी सिंह, मांडा के राजा की बात कर रहे हैं.

तो क्या ये कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति धनवानों या सामाजिक अभिजात वर्गों के लिए नहीं है? ये सही है कि पिछले सात दशकों में हमें सही मायनों में ऐसे सामंतों के तीन उदाहरण भी नहीं मिलते हैं जोकि कम-से-कम किसी राज्य की सत्ता के लिए चुने जाने लायक लोकप्रिय रहे हों. मुझे बस दो नाम नज़र आते हैं- पंजाब में अमरिंदर सिंह और राजस्थान में ज्योतिरात्य से (इस हफ्ते तक) मनमुटाव रखने वाली उनकी बुआ वसुंधरा राजे. सामंती कुलीन वर्ग की दृष्टि से ये बहुत ही खराब रिकॉर्ड है.

बाकियों के संदर्भ में, आपको सिलसिलेवार रूप से एक जैसी ही कहानी दिखेगी कि एक पीढ़ी धूल-मिट्टी से ऊपर उठती है और उनके वंशज शासकों के नए कुलीन वर्ग में शामिल नज़र आते हैं. नेहरू-गांधी कामगार वर्गों से बिलकुल नहीं थे. लेकिन लालबहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, बंसीलाल, शरद पवार, मुलायम सिंह और लालू यादव, करुणानिधि और अनेक अन्य नेताओं का गैर-सामंती अतीत रहा है. हालांकि उनके उत्तराधिकारी सबसे अच्छी घड़ियां और चश्मे लगाते हैं, शानदार गाड़ियों में घूमते हैं और बेहतरीन कलम खोंसकर चलते हैं. जोकि मोदी के बारे में भी सच है. हालांकि इन सबको भी खुद को मामूली हैसियत वाला दिखाने की दरकार होती है. और जब वे ऐसा दिख नहीं पाते, तो उन्हें आपसे इस तरह के रहस्य साझा करने होते हैं कि वे तो अपनी गाड़ी में एसी तक नहीं चलाते.


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यह पाखंड हमारी राजनीति के धर्मनिरपेक्ष मजबूरी है. तभी तो, राहुल गांधी को दलित के घर में खाना खाते, मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ यात्रा करते, ढाबे पर खाते और रेलयात्रा करते दिखना चाहिए. उऩके बारंबार विदेशों में लंबी छुट्टियां मनाने की बात को भूल जाएं. चुनाव अभियान के दौरान कमलनाथ को हैरोड्स के बिस्कुटों का डिब्बा सीटों के बीच छुपाकर रखना चाहिए और अधिकांश राजनीतिक कुलीनों को दो अलग-अलग जीवन शैलियों को अपनाना चाहिए- आप इन्हें दिन में राजनीति के लिए पूर्वाह्न शैली और देर शाम के सामाजिक मेलजोल के लिए अपराह्न शैली कह सकते हैं. मुझे इस दोहरी ज़िंदगी का पहला अनुभव स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के साथ 1984 के उनके चुनाव अभियान के दौरान ग्वालियर में हुआ, जहां उन्होंने बड़े दीनभाव के साथ कांग्रेस के समाजवादी संदेशों को प्रचारित किया और हमें प्रोत्साहित किया कि उन्हें सिर्फ ‘भैया’ संबोधित किया जाए. लेकिन एक गांव में अपने ठहराव के दौरान तब उनकी आंखें चमक उठीं जब उन्होंने गर्व से बताया, ‘यहीं मैंने बाघ का अपना पहला शिकार किया था’. आप इंडिया टुडे में प्रकाशित उस लेख को पढ़ सकते हैं.

मतदाता इन वास्तविकताओं को जानते हैं. लेकिन उन्हें भी बनावटी रूप देखना बहुत पसंद है. भारतीय राजनीति में ‘मेरे नेता सबसे सीधे-सादे’ की छवि बेहद प्रभावी है. इसलिए कहा जा सकता है कि अपने यहां डोनल्ड ट्रंप जैसों के चुने जाने का खतरा बिल्कुल शून्य है. क्योंकि हम अत्यधिक धनवानों को राष्ट्र की धन-संपदा, और अपने सामूहिक दुख और गरीबी सौंपने का भरोसा नहीं करते.

हमारी राजनीति हमेशा से ऐसी ही रही है. उदाहरण के लिए, हमारे सरकारी स्कूलों की सारी किताबों में जवाहरलाल नेहरू संबंधी अध्याय में उल्लेख किया जाता था कि वह इतने धनी परिवार से थे कि जिनके कपड़े धुलने के लिए स्विट्ज़रलैंड भेजे जाते थे. लेकिन असल कहानी ये नहीं थी. बल्कि ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि उन्होंने इस ऐशोआराम को छोड़कर अंग्रेजों की जेलों में रहना स्वीकार किया.

इसने एक मॉडल गढ़ दिया: भले ही आप जनसाधारण वर्ग से नहीं आते हों, और आपको राजनीतिक में कैरियर बनाना है, तो आप अपना एक अलग रूप अपना सकते थे. यही कारण है कि आज भी जो लोग नेहरू का विरोध करते हैं, विशेष रूप से हिंदू दक्षिणपंथी, वे उनकी उन्हीं पुरानी तस्वीरों को प्रचारित करते हैं जिनमें उन्हें यूरोपीय कुलीनों के साथ पार्टी करते, धूम्रपान करते, बेहतरीन ज़िंदगी जीते दिखाया गया हो.

निश्चित रूप से, उनके बाद आए लालबहादुर शास्त्री की एक असल जनसाधारण की छवि थी, जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि वह अपने परिवार के लिए सिर्फ एक पुरानी भारत निर्मित फिएट (बाद में प्रीमियर) कार और चुकाने के लिए सरकारी कर्ज छोड़ कर गए थे.

अभिजातवाद के इस आक्रामक विरोध का एक पहलू था निर्धनता को एक गुण के रूप में पेश किया जाना. और आगे चलकर इसने हमारी राष्ट्रीय विचारधारा को दूषित करने का काम किया.


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मैंने यूपीए शासन में सोनिया गांधी की एनएसी के निर्धनतावाद का उपहास किया था: निर्धनता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और इस अधिकार के लिए मुझसे जो कुछ भी संभव है मैं करूंगा. ऐसा करते हुए संभव है मुझे रोमांच का अनुभव हुआ हो. पर मेरा ही मजाक बना. लेकिन आप चाहे जिस ‘वाद’ का नाम दें, एक खास तरह का सामाजिक-लोकलुभावनवाद आज हमारी राष्ट्रीय विचारधारा है और सिर्फ इस पर ही हर कोई सहमत दिखता है, मोदी से लेकर राहुल, मार्क्सवादियों से लेकर मोहन भागवत और ममता से लेकर दिलीप घोष तक.

जो भी हो, हर कोई यही चाहता है कि कम से कम संख्या में धनवान दिखें और वे उन्हें नुकसान पहुंचाते दिखने के छलावे के इर्दगिर्द अपनी राजनीति निर्मित करना चाहते हैं, जिससे कि गरीबों को परपीड़ा का सुख मिलता है. साथ ही, कभी-कभार गरीबों को रियायती चीज़ें भी दी जाती हैं. मोदी सरकार द्वारा ‘अति-धनवानों’ के आयकर तथा पूंजीगत लाभ और लाभांश संबंधी करों में नवीनतम वृद्धि से राजस्व नाममात्र ही बढ़ा है. लेकिन जब धनवान हायतौबा मचाते हैं और शिकायत करते हैं तो गरीबों को अच्छा लगता है.

राजनीतिक आर्थिक सोच पर इस तरह सर्वसम्मति के रहते भला आप भारत से किस प्रगति की उम्मीद कर सकते हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि हमारे पास दो ही धारणाएं बच जाती हैं- सामाजिक रूप से विभाजनकारी (धर्मनिरपेक्ष-सांप्रदायिक-छद्म धर्मनिरपेक्ष) या फिर व्यक्ति केंद्रित. छह दशक हुए जब नेहरू ने सफलतापूर्व कांग्रेस से चक्रवर्ती ‘राजाजी’ राजगोपालाचारी की अगुआई वाले प्रखर और असल उदारवादियों की विदाई की थी, जिनका कि आर्थिक आज़ादी में यकीन था और जो ‘न्यूनतम सरकार/अधिकतम शासन’ के प्रथम – और एकमात्र ईमानदार समर्थक थे. उसके बाद से भारतीय राजनीति में सिर्फ एक ही आर्थिक सिद्धांत रह गया कि कौन अधिक समाजवादी दिखता है. इस खेल में आज नरेंद्र मोदी बाकियों से मीलों आगे हैं. आप चाहे जैसे भी देखें.

इसीलिए भारतीय अर्थव्यवस्था एक बार फिर से उसी मुकाम पर आ खड़ा हुआ है जिसे अर्थशास्त्री राज कृष्णा ने हिंदू विकास दर करार दिया था. क्योंकि ये दशक भी 1970 के दशक के समान ही झूठी खुशहाली का है. पर यही भारत की स्वाभाविक राजनीतिक अर्थव्यवस्था है. राव-मनमोहन सिंह और वाजपेयी के कार्यकाल में सीमित अवधि के लिए हमें जो भी बदलाव दिखा था, वो एक भटकाव मात्र था.

इस संदर्भ में मुझे प्राग का 1990 का एक अनुभव याद आता है, जहां मैं साम्यवादी पूर्वी यूरोप के बिखराव पर रिपोर्टिंग के लिए गया था. मेरे युवा टैक्सी ड्राइवर के पास चेकोस्लोवाकिया के सबसे अच्छे तकनीकी विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री थी, पर नौकरी नहीं. उसने बड़े ही भावनापूर्ण ढंग से बताया कि उसे साम्यवाद से नफ़रत क्यों है. मैंने उसे बताया कि भारत में साम्यवादियों की अच्छी चल रही है और उनके द्वारा समर्थित सरकार (वीपी सिंह की) के हाथों में सत्ता की कमान है.

उसने कहा: मैं बताता हूं. आपके यहां आपातकाल लगा था और आपकी राजनीतिक स्वतंत्रता छिन गई थी, तो आपने लड़कर उसे वापस लिया. लेकिन आप आर्थिक आज़ादी के लिए नहीं लड़ते हैं. क्योंकि आपने कभी इसका अनुभव ही नहीं किया है. हम चेकवासी राजनीतिक के साथ-साथ आर्थिक आज़ादी के लिए भी लड़े, जोकि आप नहीं करते.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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