scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतसेविंग्स, प्रोफिट और स्टॉक्स ज्यादा समय तक नहीं चढ़ सकते, उम्मीद की जानी चाहिए कि बदलाव की रफ्तार धीमी होगी

सेविंग्स, प्रोफिट और स्टॉक्स ज्यादा समय तक नहीं चढ़ सकते, उम्मीद की जानी चाहिए कि बदलाव की रफ्तार धीमी होगी

फिलहाल तो ऐसा लगता है कि हर कोई नकदी बचा कर रखना चाहता है जबकि सरकार उधार को एक सीमा में रखने की कोशिश कर रही है लेकिन यह सूरत भी बदलेगी. 

Text Size:

जब लोगों की आमदनी घटती जा रही है, कंपनियों का कारोबार सिकुड़ रहा है, तब आप यही उम्मीद कर रहे होंगे कि घरेलू बचत और कॉर्पोरेट मुनाफे में भी गिरावट आ गई होगी. आपकी यह उम्मीद गलत है. हकीकत यह है कि आम तौर पर जीडीपी के 10 प्रतिशत के बराबर रहने वाली घरेलू वित्तीय बचत ने इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में इसके दोगुने से ज्यादा का स्तर हासिल कर लिया है. यह तब है जब लोगों के रोजगार खत्म हो रहे थे और उनके वेतन में कटौती हो रही थी.

कंपनियों का मामला भी कोई भिन्न नहीं था, सिर्फ समय का फर्क था. जुलाई-सितंबर की तिमाही में 2100 से ज्यादा सूचीबद्ध कंपनियों की बिक्री में गिरावट आई लेकिन टैक्स के बाद के मुनाफे में 150 की वृद्धि हुई (इससे पिछली तिमाही में हुई गिरावट को उलटते हुए). मुनाफा अब बिक्री के 9 प्रतिशत के सम्मानजनक आंकड़े पर पहुंच गया है. अंततः, हमें यह सूचना मिली है कि सरकार ने अपने खर्चों में अप्रैल-जून की तिमाही में पिछले साल की तुलना में 13 प्रतिशत की वृद्धि की लेकिन आश्चर्य की बात है कि अगली ही तिमाही में उसने अपने कुल खर्चों में इसी दर से कमी कर दी. ऐसा लगता है कि हर कोई नकदी बचा कर रखना चाहता है, जबकि सरकार उधार को एक सीमा में रखने की कोशिश कर रही है.

इसकी वजह बेशक यही है कि भविष्य को लेकर अनिश्चितता कायम है. जब आपको पता नहीं कि आगे क्या होने वाला है, तब आप एक उपभोक्ता होने से संन्यास ले लेते हैं. और व्यवसाय गंवाने वाली कंपनियां घाटे की चिंता में अपनी बिक्री में गिरावट की तुलना में अपने खर्चों में ज्यादा कटौती कर देती हैं. इसलिए उनका मुनाफा आसमान छू रहा है. और सरकार एक के बाद एक आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हुए और अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जुटाने की चिंता में जहां भी मुमकिन हो वहां खर्चों में कटौती करने लगती है.

यह रुझान बैंक डिपॉजिटों में भी दिख रहा है, जो उधार की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है, आयातों में दिख रहा है, जो निर्यातों की तुलना में तेजी से गिर रहा है, रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार में दिख रहा है, जो तेजी से बड़ा हो रहा है और मुद्रा बाजार में बढ़ी नकदी में दिख रहा है, जिसके चलते ब्याज दरों में कमी हो रही है क्योंकि नकदी की मांग उसकी आपूर्ति से कम है.


यह भी पढ़ें: भारत की ही तरह चीन भी ‘आत्मनिर्भरता’ के रास्ते पर क्यों बढ़ रहा है


अब मुद्रास्फीति दर में गिरावट आनी चाहिए क्योंकि सामान की मांग उनकी उपलब्धता से कम है, वास्तव में उन पर कई तरह की छूट भी दी जा रही है. लेकिन नकदी की कीचड़ जिस तरह फैली है उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर मुद्रास्फीति दर ने छह साल की उच्चतम दर को छू लिया है. अधिकारियों का कहना है कि स्थानीय और कोविड के कारण लॉकडाउन ने सप्लाई में व्यवधान डाला और प्याज-आलू आदि की सप्लाई में रुकावटों आदि के कारण खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ीं.

लेकिन लॉकडाउन में कटौती के बावजूद खाद्य के सिवा दूसरी चीजों की महंगाई रिजर्व बैंक की 4 प्रतिशत की सीमा (2 प्रतिशत अंक इधर या उधर की गुंजाइश रखते हुए) से ऊपर है तब ये व्याख्याएं जमती नहीं. कारण जो भी हो, तथ्य यह है कि बेहतर बॉन्ड और डेब्ट म्यूचुअल फंड भी मुद्रास्फीति दर से, जो अक्टूबर में 7.6 प्रतिशत पर पहुंच गई थी, कम लाभ दे रहे हैं. निश्चित ही, जोखिम वाले फंड खेल में उतर आएंगे, जबकि लोग बेहतर लाभ के लिए शेयर बाज़ार की ओर रुख करेंगे और बाज़ार तो उछाल पर है. वैश्विक स्तर पर नकदी की बहार ने पूंजी प्रवाह में इस रुझानों को बुलंद किया है और स्थिति को काबू में करना मुश्किल कर दिया है.

लेकिन अनिश्चितता अब घट रही है. आगामी महीनों में खर्चों में नई शुरुआत हो सकती है और व्यवसायों में तेजी आ सकते हैं. आयात बढ़ेगा और इसके साथ व्यापार घाटा भी बढ़ेगा. कंपनियां और व्यक्ति ज्यादा उधार लेने लगेंगे और पैसे की मांग बढ़ेगी. अभी जिस वजह से ब्याज दरें नीची हैं और शेयर बाज़ार में उछाल है, वे वजहें बदलेंगी. लेकिन संपत्ति कीमत में वृद्धि तभी रुकेगी जब ब्याज दरें उचित हों. इसके बिना यह ‘अतार्किक प्रचुरता’ के ‘ग्रीनस्पान’ क्षण में तब्दील हो सकता है क्योंकि लोग जोखिम वाले दांव लगाने लगेंगे.

सवाल यह है कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को काबू में करने की अपनी ज़िम्मेदारी का पालन करने से कब तक कतराएगा और ब्याज दरों को मुद्रास्फीति दर से नीचे बनाए रखेगा और सरकार को सस्ते में उधार लेने की छूट देता रहेगा. नीति निर्देश में परिवर्तन से दरें ऊपर चढ़ेंगी और बॉन्ड वैल्यू गिरेगी. इसलिए डेब्ट फंड में निवेश करने वालों के लिए जोखिम वैसे ही बढ़ेगा, जैसे गरम हो रहे शेयर बाज़ार में निवेश करने वाले के लिए रहता है. विदेशी मुद्रा की बाढ़ बनी रहेगी तो सुधार में देरी होगी. लेकिन यह पुराना सच याद रहे कि ‘हर दिन होत न एक समाना’. हवा की दिशा बदलेगी, भले ही इसमें समय लगे.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: चीन पर मोदी ने कैसे ‘नेहरू जैसी’ आधी गलती की और सेना में निवेश को नज़रअंदाज किया


 

share & View comments