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Saturday, 12 April, 2025
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स्पीड से पहले सेफ्टी—यही है भारतीय रेलवे की असली ज़रूरत

पिछले कुछ वर्षों से हम भारतीय रेलवे की प्राथमिकताओं में चिंताजनक बदलाव होता देख रहे हैं, इन्फ्रास्ट्रक्चर में जरूरी बेहतरी करने की जगह तड़कभड़क वाली परियोजनाओं को तरजीह दी जा रही है.

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भारतीय रेल देश की परिवहन व्यवस्था की रीढ़ है, इसमें कोई संदेह नहीं है. हर दिन वह करोड़ों यात्रियों को अपनी मंजिल तक पहुंचाती है और विशाल मात्रा में माल की ढुलाई करती है. दुनिया के सबसे विशाल रेल नेटवर्कों में शुमार भारतीय रेल जनता को कम खर्चे में परिवहन, और व्यापार के लिए माल ढुलाई की सुविधा मुहैया करके भारत के आर्थिक विकास में अद्वितीय भूमिका निभा रही है.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हम भारतीय रेलवे की प्राथमिकताओं में बदलाव होता देख रहे हैं, इन्फ्रास्ट्रक्चर में जरूरी बेहतरी करने की जगह तड़कभड़क वाली दिखावटी परियोजनाओं को तरजीह दी जा रही है.

इस बदलाव के कारण सुरक्षा और परिचालन में कमी को लेकर बड़ी चिंताएं पैदा हुई हैं. इन बदलावों की वजह से कई हादसे हुए हैं और रेलवे सिस्टम में कमजोरियां उजागर हुई हैं.

हाल के हादसे और सुरक्षा संबंधी चिंताएं

ट्रेन हादसों की खबरें भरी रहती हैं, जो बढ़ते संकट का अंदाजा देती हैं. हादसों में वृद्धि व्यवस्था की विफलताओं— रखरखाव की उपेक्षा, पुराने इन्फ्रास्ट्रक्चर, और सुरक्षा की नयी तकनीक को अपनाने में सुस्ती— को उजागर करती हैं. ट्रेनों की बड़ी टक्करें समस्या की गंभीरता को ही रेखांकित करती हैं.

ओडिशा के बालेश्वर में जून 2023 में तीन ट्रेनों की टक्कर में 293 लोगों की जान गई और 1,000 से ज्यादा लोग घायल हुए. रेलवे सुरक्षा आयोग (सीआरएस) ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा की सिग्नल की नाकामी के कारण यह हादसा हुआ. अक्तूबर 2023 में बिहार के रघुनाथपुर में नॉर्थईस्ट एक्सप्रेस पटरी से उतरी, जिससे चार लोग मारे गए और 70 घायल हुए. यह हादसा पटरी में गड़बड़ी के कारण हुआ. उसी महीने सिग्नल फेल होने और मानवीय चूक के कारण आंध्र प्रदेश में दो ट्रेनों की टक्कर में 14 लोगों की जान गई और 50 से ज्यादा घायल हुए.

पिछले साल फरवरी में एक मालगाड़ी जम्मूकश्मीर से पंजाब की ओर ड्राइवर के बिना 70 किलोमीटर तक चली गई. ये सब परिचालन में गड़बड़ी को ही उजागर करते हैं. इसके ठीक बाद अप्रैल में मुंबई की एक लोकल ट्रेन पटरी से उतर गई, जिससे हार्बर लाइन की सेवाएं बाधित हुईं. यह भी इन्फ्रास्ट्रक्चर की नाकामी का उदाहरण है. ये हादसे भारतीय रेल में फौरन व्यवस्थागत बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं.

अहम व्यवस्थागत समस्याएं

सबसे पहली बात और सबसे पुराना मसला यह है कि महत्वपूर्ण इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा उपायों के लिए फंड लगातार कम किए गए हैं. रेलवे में सुरक्षा संबंधी काम को पैसा ‘डेप्रिसीएशन रिजर्व फंड’ (डीआरएफ), ‘रेलवे सेफटी फंड’ (आरएसएफ), और ‘राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोश’ (आरआरएसके) से मिलता है. डीआरएफ का गठन परिसंपत्तियों को बदलने के उद्देश्य से किया गया था लेकिन फंड के कम आवंटन के कारण रेलवे के पुराने पड़ते इन्फ्रास्ट्रक्चर के आधुनिकीकरण में बाधा पड़ी है. इसके साथ ही, 2017-18 में गठित आरआरएसके नाम के सुरक्षा कोश को भी फंड आवंटन में व्यवधान पड़ता रहा है. 2025-26 के लिए उसे मात्र 2,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जो रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए जरूरी फंड से काफी कम है.

ट्रेन की ऑटोमेटिक सुरक्षा की ‘कवच’ नामक व्यवस्था को लागू करने में हो रही देरी चिंता का एक और मामला है. आज तक, कुल 68,000 आरकेएम में से केवल 3,677 आरकेएम के लिए ही इसे लागू किया जा सका है. जिस सुस्त गति से इसे लागू किया जा रहा है उसके कारण पूरे रेल मार्ग पर यह व्यवस्था लागू करने में तो 50 साल से ज्यादा समय लग जाएगा. यानी रेल हादसे को पहले ही रोकने के इस अतिमहत्वपूर्ण नये सुरक्षा उपाय का पूरा लाभ लेने की क्षमता बनाने से समझौता किया जा रहा है.

इसके अलावा, मानवीय चूक और कामगारों की कमी के कारण भी स्थिति बिगड़ती जा रही है. ‘आरटीआई’ के तहत प्राप्त एक जवाब के अनुसार, जून 2023 तक भारतीय रेलवे में 2.74 लाख पद खाली पड़े थे. इनमें से 1.7 लाख पद सुरक्षा से संबंधित सिग्नलिंग और रेल पटरी के रखरखाव करने वालों के हैं. कामगारों की कमी के कारण मौजूदा कर्मचारियों को लंबे समय तक काम करना पड़ रहा है, जिससे उनमें थकान के कारण गलती करने की संभावना बढ़ती है.

फंड को दूसरे मदों में आवंटित किए जाने से भी रेलवे नेटवर्क की कार्यकुशलता में कमी आई है. 2022 में दायर कैग की एक रिपोर्ट के अनुसार, रेलवे सुरक्षा फंडों को यात्रियों के पैरों की मालिश करने वालों की नियुक्तियों, क्रॉकरी और आधुनिक गजेटों आदि की गैरज़रूरी खरीद पर खर्च किया गया.

सरकार के खोखले वादे

हालांकि सरकार आधुनिकीकरण और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विस्तार को महत्व देने के वादे करती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है. 1950 के बाद से रेल पटरियों में केवल 23 फीसदी का विस्तार हुआ है, जबकि रेलयातरियों की संख्या में 1,344 फीसदी की भारी वृद्धि हुई है. इसके अतिरिक्त, वंदे भारत या बुलेट ट्रेन जैसी तड़कभड़क वाली परियोजनाओं पर ज्यादा ज़ोर दिया गया है और उनमें निवेश भी ज्यादा किया गया है जबकि पटरियों के रखरखाव और सुरक्ष जैसे मामलों में नाममात्र निवेश किया गया है.

दूसरे मसले

भारतीय रेलवे इतनी बीमारियों से ग्रस्त है कि उसमें सुधार बेहद जरूरी हो गए हैं. सबसे प्रमुख मसला है यात्रियों की भीड़ का. जगह के हिसाब से ज्यादा यात्रियों से भरी ट्रेन पॉपकॉर्न से भरी उस बोरी के समान होती है जिसे खूब ज़ोर से हिलाया जा रहा हो. हर कोई अपने लिए आराम की जगह पाने की जुगत कर रहा होता है लेकिन वहां सांस तक लेने की जगह नहीं होती. 90 यात्रियों के जनरल डिब्बे में 180 यात्री ठुंसे होते हैं.

यह स्थिति इसलिए आई है क्योंकि सरकार ने जनरल और स्लीपर कोचों की संख्या घटा दी है. कोरोना महामारी के बाद जनसाधारण ट्रेनों को बंद कर दिया गया, जो कि कम आय वाले यात्रियों के जरूरी थीं. उदाहरण के लिए, पहले एक ट्रेन में चार जनरल कोच होते थे, अब केवल दो रह गए हैं. 2005 में स्लीपर क्लास डिब्बे 77 फीसदी होते थे, 2022 में उन्हें घटाकर 54 फीसदी कर दिया गया, जबकि एसी डिब्बों का प्रतिशत 23 से दोगुना बढ़ाकर 46 कर दिया गया. यह बदलाव यात्रियों की सुविधा के बदले मुनाफे को तरजीह देने की नीति के तहत किया गया, जिससे लाखों यात्रियों को भीड़ भरे डिब्बों में यात्रा करने की असुविधा झेलनी पड़ रही है.

ट्रेनों का अक्सर रद्द किया जाना भी एक बड़ी समस्या है. पिछले पांच वर्षों में एक लाख से ज्यादा ट्रेनें विभिन्न कारणों से रद्द की गईं. इससे न केवल लाखों यात्रियों की यात्रा कार्यक्रमों में खलल पैदा हुआ बल्कि इसने रेलवे के परिचालान और प्रबंधन में व्यवस्थागत खामी को भी उजागर किया.

ट्रेनों की लेटलतीफी समस्या भी कम चिंताजनक नहीं है. 2023 में आरटीआई के तहत प्राप्त एक सूचना बताती है कि जिस वंदे भारत एक्सप्रेस को 130 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलने की अनुमति है, वह रेल पटरियों की खराब हालत के कारण औसतन 83 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से ही चल पा रही हैं. यह विडंबना तेज गति वाली ट्रेनों और तड़कभड़क वाली परियोजनाओं पर सरकार के ज़ोर देने और रेल पटरियों तथा परिचालन जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की उपेक्षा करने के कारण पैदा हुई है.

इसके अलावा, भारतीय रेल ने 55 किमी प्रति घंटे से ज्यादा की रफ्तार वाली ट्रेन को सुपरफास्ट ट्रेन परिभाषित किया है. यह भी आंकड़ा भी संदेहास्पद है. 2022 की कैग रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसी 478 सुपरफास्ट ट्रेनों में से 123 ट्रेनें 55 किमी प्रति घंटे से कम की रफ्तार से चल रही थीं. यह नीति और वास्तविकता में फर्क को दर्शाता है. 2018 में, रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष अश्वनी लोहानी ने कहा था कि हम हर साल नई ट्रेनें तो चला रहे हैं लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर उपेक्षित पड़ा है.

यह असंतुलन ऐसे सुधारों की जरूरत को उभारता है जिनमें नयी, तेजरफ्तार ट्रेनों को शुरू करने की जगह इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया जाए.

आगे क्या करें

भारतीय रेलवे को दुरुस्त करने के लिए तड़कभड़क वाली परियोजनाओं की जगह अहम सुरक्षा और इन्फ्रास्ट्रक्चर की बेहतरी पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. ‘आरआरएसके’ और ‘डीआरएफ’ के जरिए फंड में वृद्धि की जानी चाहिए और उस पर कड़ी निगरानी रखी जाए ताकि उसका दुरुपयोग न हो. ‘कवच सिस्टम’ को तेजी से लागू किया जाए ताकि एक दशक के अंदर पूरा रेलवे नेटवर्क उसके दायरे में आ जाए. खाली पड़े लाखों पदों को भरा जाए, खासकर सुरक्षा से जुड़े अहम पदों को, ताकि मानवीय चूकों में कमी आए. बुलेट ट्रेन जैसी परियोजनाओं की जगह रेल पटरियों के रखरखाव को प्राथमिकता दी जाए. ट्रेनों में भीड़भाड़ को कम करने के लिए जनरल और स्लीपर कोचों की संख्या बढ़ाई जाए और परिचालन में कार्यकुशलता बेहतर की जाए.

भारतीय रेल को सुरक्षा को प्राथमिकता देने वाली और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर आधारित रणनीति की जरूरत है. संसाधनों के पुनरावंटन, सिस्टम के आधुनिकीकरण और कर्मचारियों की कमी को दूर करने की जरूरत है. तभी यह भारत की एक सुरक्षित, अधिक भरोसेमंद जीवनरेखा बन पाएगी.

कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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