अपने ‘युवा और होनहार नेता’ सचिन पायलट को राजस्थान के उपमुख्यमंत्री और राज्य इकाई के अध्यक्ष के पद से हटाने के 24 घंटे के भीतर ही कांग्रेस ने उनसे पार्टी में लौटने और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ जो भी ‘कोई मतभेद’ हों उन्हें सुलझाने की अपील कर दी.
फिलहाल तो सचिन पायलट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल नहीं हो रहे हैं, जो कांग्रेस नेता के साथ ही संभवत: 15 विधायक जो उनका समर्थन कर रहे हैं, को अपने पाले में लाने के लिए बेहद उत्सुक थी. लेकिन कुछ बातें हैं जो भाजपा को अवश्य ही ध्यान में रखनी चाहिए.
यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में कई ऐसे असंतुष्ट तत्व हैं जो ‘डूबते जहाज’ को छोड़ने की मंशा रखते हैं. ऐसा लगता है कि खुद कांग्रेस ही भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के संकल्प को पूरा करने में लगी है.
ऐसे में, सचिन पायलट के ऐलान को शपथ लेकर की गई दृढ़ प्रतिज्ञा जैसा नहीं माना जा सकता है. जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ेगा, कुछ चौंकाने वाली बातें सामने आ सकती है. ऐसे परिदृश्य में भाजपा के लिए आंतरिक चेतावनियों को सुनना ही ज्यादा बेहतर रहेगा.
सतर्क भाजपा
फिलहाल अभी, पार्टी के अंदर एक सीमित वर्ग से उठ रही जोरदार आवाज भाजपा आलाकमान को चेता रही है कि वह हर उस बागी को जगह न दे जो उसका दरवाजा खटखटाता है, विशेषकर उन्हें जो कड़ी मेहनत, वैचारिक प्रतिबद्धता या निस्वार्थ सेवा और बलिदान के जरिये हासिल करने के बजाये ‘विरासत’ में मिली नेतृत्वशीलता को अपना उत्तराधिकार समझते हों.
भाजपा जैसी कैडर-आधारित पार्टी के लिए बहुत बाद में और पिछले दरवाजे से आने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं के कुछ मायने नजर नहीं आते हैं. यह राजस्थान में और भी ज्यादा प्रासंगिक है, जहां भाजपा के पास अच्छी कैडर क्षमता, व्यापक जनाधार वाले और हर स्तर पर लोकप्रिय नेता हैं.
भाजपा को ध्यान में रखना चाहिए कि हर राज्य असम नहीं हो सकता, जहां कांग्रेस से आए हेमंत बिस्व सरमा ने पार्टी को 2016 में पहली बार सत्ता में लाने के लिए स्थितियों को एकदम बदलकर रख दिया था. असम एक अलग किस्म का मामला है.
आमतौर पर भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और गृह मंत्री अमित शाह की शानदार रणनीतियों के बलबूते चुनाव जीतती रही है. नवागंतुक शायद ही इस मामले में पार्टी में कोई योगदान दे पाते हैं.
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भाजपा वैसे उन चुनाव क्षेत्रों में अपनी जीत की संभावनाएं बेहतर कर सकती है, जहां बागी नेता का खासा प्रभाव है और जैसे चुनाव नजदीक आएगा. इसका दामन थामने के इच्छुक बागियों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी. लेकिन पार्टी को अभी अनपेक्षित नतीजों पर नजर रखनी चाहिए और पार्टी के अंदर उठ रही आवाजों को सुनना चाहिए.
कांग्रेस के लिए एक और संकट
कांग्रेस के लिए राजस्थान संकट काफी समय से गहरा रहा था. वास्तव में, अशोक गहलोत को 2018 में जब मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब ऐसा माना जा रहा था कि ऐसी सहमति बनी है कि एक-दो साल बाद ही सचिन पायलट, जिन्हें राज्य में कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जाता है, मुख्यमंत्री से कमान अपने हाथ में ले लेंगे. लेकिन तथ्य यह है कि गहलोत के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया गया, यह देखते हुए कि पुराने योद्धा को रणनीतिक रूप से और शासन क्षमता का गहरा अनुभव है.
उनके ‘जादू’ (गहलोत के बारे में माना जाता है कि उन्होंने अपने पिता से जादू के गुर सीखे थे) ने तो महाराष्ट्र में भी काम किया था, जहां उनके अनुसार, कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली थी. एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘यह मानकर कि पार्टी सफल नहीं हो सकती, उन्होंने (महाराष्ट्र और हरियाणा कांग्रेस) ने विधानसभा चुनाव जीतने की कोई कोशिश करनी भी बंद कर दी थी. जबकि पार्टी को अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ चुनाव लड़ना चाहिए, न कि पराजित मानसिकता के साथ.’
एक समय जब उनके केंद्र में पार्टी के लिए अहम भूमिका निभाने की उम्मीद थी, उन्हें राजस्थान भेज दिया गया और उन्हें अपने वर्चस्व के लिए संघर्ष करना पड़ा. अशोक गहलोत ने राज्य का बजट को पेश करने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘मैं मुख्यमंत्री पद का हकदार था. यह स्पष्ट था कि किसे मुख्यमंत्री बनना चाहिए और किसे नहीं. जनभावना का सम्मान करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष के नाते राहुल गांधी ने मुझे मौका दिया.’ जाहिर है इसके आगे पायलट संकट बहुत ही मामूली नजर आता है.
कांग्रेस में क्या बचा?
क्या कांग्रेस एक और विभाजन के कगार पर खड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़ा आंतरिक झगड़ा ‘हिलाकर रख देने वाले’ अंजाम तक पहुंचा सकता हो?
सीधा नतीजा यह हो सकता है कि सिंधिया की तरह, कांग्रेस की युवा पीढ़ी के कई बागी भाजपा की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं, जो हमेशा ऐसे लोगों के स्वागत में रेड कार्पेट बिछाने को तैयार रहती है. इन नेताओं में से अधिकांश में यह भावना बढ़ रही है कि ऐसी पार्टी में बने रहना निरर्थक है जिसका कम से कम हाल-फिलहाल तो कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है. एक राजनीतिक व्यक्ति जो सार्वजनिक जीवन पर अपना लंबा समय और बहुत कुछ व्यय करता है, जाहिर है इसे लेकर चिंतित जरूर होगा कि बदले में हासिल क्या है और इसलिए भाजपा में सुनहरा भविष्य तलाशेगा.
कांग्रेस में वंशवाद की राजनीति पर बोलते हुए सचिन पायलट ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में सुझाव दिया था कि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए आगे लाया जाना चाहिए. उन्हें और कुछ अन्य युवा नेताओं को ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ लॉबी का हिस्सा माना जाता रहा है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बगावत प्रकरण में राहुल गांधी एकदम पीछे रहे. प्रियंका, बीच-बचाव की भूमिका में रहीं, ने कथित तौर पर चार बार पायलट से बात की और उन्हें पार्टी न छोड़ने के लिए समझाया जबकि वह मुख्यमंत्री गहलोत की बुलाई बैठकों में भाग नहीं ले रहे थे.
राजनीतिक दल विचारधारा-आधारित रहने के बजाय तेजी से नेता-उन्मुख होते जा रहे हैं. लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत नेतृत्व की अपरिहार्यता बढ़ती जा रही है. कांग्रेस का प्रथम परिवार पार्टी के लिए उत्तरदायित्व साबित हो रहा है. भिन्न स्तर पर, अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग साथ छोड़कर एक दूसरे मंच पर दूसरे नेता की छत्रछाया में नया अवतार ले सकते हैं. गांधी परिवार जितनी जल्दी इस बात को समझकर एक प्रतिभाशाली टीम को कमान सौंपता है, कांग्रेस के लिए उतना ही अच्छा होगा.
(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)
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