भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मुखपत्र ‘कमल संदेश’ में हाल में छपे एक लेख में पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने सच्चर कमेटी रिपोर्ट (2006) को मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति का एक उदाहरण करार दिया. उनका तर्क है:
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने 2004 से 2014 के बीच चुनावी फायदे के लिए भारतीय समाज को बांटने का प्रयास किया. उसने मुसलमानों के लिए सच्चर कमेटी का गठन किया और संविधानेत्तर बदलाव लाने की कोशिश की. कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम वोट बैंक मज़बूत करने के लिए ‘भगवा आतंक’ नाम से एक मनगढ़ंत कहानी बुनी.
यह प्रतिक्रिया अप्रत्याशित बिल्कुल ही नहीं है. भाजपा हमेशा से कथित ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ की नीति की विरोधी रही है. और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा मुसलमानों के लिए विशेष रूप से एक आयोग का गठन ‘वोट बैंक की राजनीति’ के भाजपा के आरोपों के अनुकूल था.
फिर भी, यह दलील पूर्णतया सही नहीं है.
नरेंद्र मोदी सरकार का अल्पसंख्यक मंत्रालय अब भी सच्चर रिपोर्ट को अपनी योजनाओं के लिए एक अहम ‘निर्देश पुस्तिका’ के रूप में देखता है. मंत्रालय ने इसी साल संसद के दोनों सदनों में सच्चर रिपोर्ट के कार्यान्वयन से संबंधित कार्रवाई रिपोर्ट प्रस्तुत की.
अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए मनमोहन सिंह द्वारा आरंभ किए गए 15-सूत्री कार्यक्रम को अभी भी अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के पीछे छूटने के मामलों में एक बुनियादी नीति के रूप में लिया जाता है. मंत्रालय की वेबसाइट पर अल्पसंख्यक समुदायों पर इस 15 सूत्री कार्यक्रम के प्रभावों के बारे में एक रिपोर्ट (भारत सरकार द्वारा 2016 में तैयार कराई गई) भी मौजूद है.
क्या इसका मतलब ये है कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा भी मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति कर रही है? यह स्पष्ट विरोधाभास वास्तव में दो बुनियादी सवालों की ओर ध्यान खींचता है. पहला, क्या सच्चर रिपोर्ट को एक राजनीतिक प्रोजेक्ट के रूप में देखना संभव है? यदि हां, तो इस राजनीति का स्वरूप क्या है जो कि मूलत: सामाजिक न्याय, पिछड़ापन और मुसलमानों को अपर्याप्त प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों पर केंद्रित है?
सच्चर रिपोर्ट की राजनीतिक कथा
आम मान्यता यह है कि मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के अध्ययन के लिए एक सरकारी आयोग का विचार 2004 में सामने आया था, जब मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल की शपथ ली थी. वास्तव में यह गलत है.
मुसलमानों के पिछड़ेपन ने 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में ही एक राजनीतिक मुद्दे का रूप लेना शुरू कर दिया था. मंडल आयोग ने गैर हिंदू समुदायों के बीच अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की पहचान के लिए एक तरीका विकसित किया था. इससे कुछेक पिछड़ी मुस्लिम जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करने का रास्ता खुला.
मुस्लिम पसमांदा (वंचित) की राजनीति का उभार इसका एक स्वाभाविक परिणाम था. नए तरीके की इस मुस्लिम राजनीति ने मुसलमानों में जाति आधारित सामाजिक स्तरीकरण पर सवाल खड़े किए और मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग उठाई.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा गठित संविधान के कार्यचालन की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीआरडब्ल्यूसी, 2000) ने अपनी पहली रिपोर्ट में मुसलमानों के पिछड़ेपन को नीतिगत महत्व का विषय माना. इसमें दलील दी गई कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.
आयोग ने विधायिका में मुसलमानों के पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व की ज़ोरदार सिफारिश की. अपनी सिफारिश संख्या 240 में एनसीआरडब्ल्यूसी कहता है:
वर्तमान में विधायिका में अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व आबादी में उनके अनुपात की तुलना में बहुत कम हो गया है… इससे उनमें अलगाव का भाव आ सकता है. यह सिफारिश की जाती है… कि… राजनीतिक दल अल्पसंख्यक समुदायों में नेतृत्व की संभावनाएं विकसित करें… भारतीय राजनीति में बहुलता को मज़बूत बनाने में सरकार की भूमिका पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.
वास्तव में एनसीआरडब्ल्यूसी के सुझावों और सच्चर कमेटी रिपोर्ट की अनुशंसाओं में कोई अंतर नहीं है. दरअसल, सच्चर रिपोर्ट का मूल संदर्भ एनसीआरडब्ल्यूसी से ही आता है, जिसने कि हाशिये पर पड़े सभी वर्गों को लोकनीति के विमर्शों में शामिल करने का पक्ष लिया है.
दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सरकारी रिपोर्टों को राजनीतिक मुद्दों के रूप में लिया. भाजपा ने खुले मन से एनसीआरडब्ल्यूसी रिपोर्ट की सराहना की, पर उसे सच्चर रिपोर्ट को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस हुई. इसी तरह, कांग्रेस एनसीआरडब्ल्यूसी के बारे में तो संशयी बनी रही, पर उसने सच्चर रिपोर्ट को अपनी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया.
और अब, सच्चर रिपोर्ट की कहानी में हाल के वर्षों में एक नया मोड़ आया है. कांग्रेस ने इससे खुद को पूरी तरह अलग कर लिया है. मौजूदा विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के घोषणा पत्रों में सच्चर रिपोर्ट की अनुशंसाओं के बारे चुप्पी साफ दिखती है. पार्टी के नेता अब ‘मुस्लिम’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर बहुत सावधानी बरतते हैं. उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के लिए चुनाव घोषणा पत्र (जिसे वचन पत्र कहा गया है) में मुसलमानों के लिए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है और राज्य में उनके विकास संबंधी कुछ आम वायदों के लिए उन्हें ‘पिछड़ा वर्ग’ के साथ जोड़ दिया गया है.
सच्चर रिपोर्ट को अब, जैसा कि ज़ाहिर होता है, निश्चित तौर पर कांग्रेस का परिस्थितियों से संचालित प्रोजेक्ट माना जा सकता है, जिसका प्रतीकात्मक चुनावी महत्व खत्म हो चुका है. कांग्रेस अब पीड़ित मुस्लिम के विचार पर आश्रित नहीं रहना चाहती क्योंकि इसका हिंदुत्व की उसकी अपनी विचारधारा से टकराव हो सकता है.
राजनीति का स्वभाव
राजनीतिक दलों की इन बदलती स्थितियों के पीछे दो महत्वपूर्ण तथ्यों को देखा जा सकता है. पहला, सच्चर आयोग के गठन से यूपीए सरकार और कांग्रेस के उच्च वर्ग को ‘मुसलमान’ को एक वैध राजनीतिक वर्ग के रूप में पुनर्स्थापित करने और कायम रखने में मदद मिली. सच्चर रिपोर्ट का इस्तेमाल कांग्रेस ने मुसलमानों को लाभार्थियों के रूप में संगठित करने में किया (हालांकि वे अकादमिक विश्लेषण की वस्तु से आगे कुछ नहीं थे).
हिंदुत्व की ताक़तों और भाजपा के लिए सच्चर रिपोर्ट मुस्लिम तुष्टिकरण का एक उदाहरण थी, जिसका 2014 में हिंदुत्व वोट बैंक को साधने के लिए इस्तेमाल किया गया.
दूसरे, सच्चर रिपोर्ट को एक आधिकारिक दर्ज़ा प्राप्त है. यह मुसलमानों के हाशिये पर छूट जाने के बारे में एक प्रामाणिक सरकारी दस्तावेज़ है, जिसकी सामाजिक न्याय पर लोकनीति विमर्श में गहरी पैठ है. मंत्रालय स्तर पर इसका पालन करना सरकारों की मजबूरी है.
भाजपा अपने प्रशासनिक दायित्वों को अलग तरीके से निभाती है. कांग्रेस के विपरीत, यह अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का ढोल नहीं पीटती. इसकी बजाय भाजपा सच्चर रिपोर्ट को लागू रखना चाहती है – मुख्य रूप से इसलिए कि यह हमेशा पीड़ित हिंदू की राजनीति को सही ठहराने में काम आ सकती है.
आखिरकार, सच्चर रिपोर्ट सभी मुसलमानों को एक सरकारी दर्ज़ा जो देती है.
(हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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