इस हफ्ते की शुरुआत में असम बीजेपी के आधिकारिक एक्स हैंडल ने एक एआई-जनित वीडियो पोस्ट किया जिसमें मुसलमान बहुल असम दिखाया गया और कैप्शन था: “असम बिना बीजेपी.” यह संदेश पूरे समुदाय को सामान्य रूप से खतरे के रूप में पेश करता है और लोगों को बताता है कि एक पूरे समूह का अस्तित्व ही खतरा है. यहां तकनीक का इस्तेमाल बेहतर भविष्य की कल्पना के लिए नहीं, बल्कि पुराने डर को तेज़ी से दोहराने के लिए किया जा रहा है.
जैसा कि उम्मीद थी, इस वीडियो ने विवाद खड़ा किया और राज्य कांग्रेस इकाई ने गुरुवार को पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. वहीं, असम सरकार के प्रवक्ता पिजूष हजारीका ने इसका बचाव करते हुए कहा कि यह सिर्फ “गैरकानूनी प्रवासियों के खतरे” और असम की जनसांख्यिकी पर उनके प्रभाव के बारे में है, लेकिन अगर सच में ऐसा है, तो जब लोग इसके सांप्रदायिक संकेतों की ओर इशारा करते हैं, तब इसे क्यों नहीं देखा जाता?
अगर मुद्दा गैरकानूनी प्रवास है, तो संदेश स्पष्ट और सीधे तौर पर होना चाहिए था, बिना ऐसी तस्वीरों के जो पूरे समुदाय को खतरे के रूप में दिखाएं. इसका बचाव उसी समय खत्म हो जाता है जब आप खुद वीडियो देखते हैं—यह गैरकानूनी प्रवास का संदेश नहीं लगता, बल्कि पहचान का संदेश लगता है.
असम बीजेपी के आधिकारिक हैंडल ने सिर्फ एक वीडियो पर नहीं रुका. इसके बाद और वीडियो आए, इस बार टैग “पाइजान” के साथ और कांग्रेस रैलियों में अल्पसंख्यक समुदायों की झलकियां दिखाई गईं, जैसे उनकी उपस्थिति ही खतरा हो. एक और वीडियो में एक मुसलमान खुद को हिंदू दिखा रहा है. यह पार्टी का अपना सत्यापित अकाउंट है जो खुलेआम सांप्रदायिक एजेंडा पेश कर रहा है.
Paaijaan's dream "Bor Axom" is nothing but a paradise for the Kanglus. pic.twitter.com/m1VBhnyZyi
— BJP Assam Pradesh (@BJP4Assam) September 18, 2025
और शायद यही मकसद है क्योंकि सच कहें तो: अगर केवल गैरकानूनी प्रवास की चेतावनी देना उद्देश्य होता, तो बीजेपी के पास बिना किसी द्विविधा के इसे पहुंचाने की मशीनरी और मीडिया है. असल बात तो यह है कि उन्होंने क्या पोस्ट करना चुना. यह मुद्दे को हल करने के बजाय अपने वोट बैंक को डर दिखाने का तरीका है. आखिरकार, सत्ता पर काबिज रहने का सबसे आसान तरीका क्या है—मतदाताओं को डर याद दिलाना, “हम” और “वे” के बीच रेखा खींचना और खुद को एकमात्र सुरक्षा दीवार के रूप में पेश करना. यह देने का वादा नहीं, बल्कि दुश्मन से बचाने का वादा है.
असली सवाल
असल सवाल यह है—जब असम में गैरकानूनी प्रवासियों की बात होती है, तो बीजेपी असम के अकाउंट की कल्पना तुरंत मुसलमानों पर क्यों रुक जाती है? यहां तक कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) का डेटा अलग कहानी बताता है.
राज्य की ड्राफ्ट नागरिक सूची से लगभग 16 लाख नाम बाहर किए गए, जिनमें से करीब 7 लाख मुसलमान थे, हां, लेकिन 5 लाख बंगाली हिंदू, 2 लाख असमिया हिंदू और 1.5 लाख गोरखा भी थे.
फिर भी जो संदेश निकलता है, वह एकतरफा और जानबूझकर केवल एक समुदाय तक “समस्या” को सीमित करता है. इसका मतलब क्या है? या तो वे मुद्दे की जटिलता से निपटना नहीं चाहते, या उससे भी खराब, उन्हें लगता है कि उनके वोटर इसे सुनना नहीं चाहते.
मुझे नहीं पता कि दुखद हिस्सा क्या है—कि यह आधिकारिक असम बीजेपी अकाउंट से आया, न कि किसी फ्रिंज समूह से, या कि यह एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति को दर्शाता है.
डर और विभाजन अक्सर किसी वोट बैंक को मजबूत करने का सबसे तेज़ तरीका होते हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां सांप्रदायिक पहचान राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है. इन अकाउंट्स को संभालने वाले लोग समझते हैं कि एक संभावित खतरे को दिखाना मतदाताओं पर प्रवासन या नीति की जटिलताओं की किसी भी बहस से अधिक तुरंत असर डालता है. यह सिर्फ नैतिक कमजोरी नहीं, बल्कि चुनावी राजनीति की वास्तविकताओं पर आधारित एक रणनीतिक चुनाव है.
मोदी का संदेश बनाम हकीकत
जबकि प्रधानमंत्री मोदी लगातार “सबका साथ, सबका विकास” का वादा करते हैं—एक बिना भेदभाव के समावेशी संदेश—बीजेपी की क्षेत्रीय इकाइयां अक्सर खुला सांप्रदायिक रुख अपनाती हैं, जो इस नज़रिए के बिल्कुल खिलाफ है.
क्या यह पार्टी के भीतर समन्वय की कमी है, या क्षेत्रीय नेता इसे सत्ता पाने का तेज़ रास्ता मानते हैं? किसी भी स्थिति में, ऐसा लगता है कि वोट पाने की चाह राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व रखती है.
बीजेपी के भीतर एक अनकहा टकराव भी दिखाई देता है—मोदी की समावेशी राष्ट्र निर्माण की सावधानीपूर्वक तैयार की गई छवि और कुछ क्षेत्रीय नेताओं की भाषा के बीच, जो पुराने सांप्रदायिक कार्ड खेलने में ज्यादा रुचि रखते हैं, जहां मोदी एकता, विकास और भारत के वैश्विक उत्थान की बात करते हैं, वहीं ज़मीन पर नेता अक्सर अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए डर और विभाजन का सहारा लेते हैं. यह विरोधाभास एक बड़ा सवाल उठाता है: क्या यह पार्टी के भीतर दृष्टिकोणों का संघर्ष है?
आखिर में, नेता वही खेल खेलते रहेंगे अगर उन्हें लगे कि यही उन्हें वोट दिलाता है, लेकिन जिम्मेदारी वोटरों पर भी है.
अगर नागरिक किसी समुदाय को सामान्य रूप से ‘दूसरा’ मानने की प्रवृत्ति को बार-बार पुरस्कार देते हैं या नज़रअंदाज़ करते हैं, तो यही उन्हें हमेशा मिलेगा, लेकिन अगर लोग बेहतर—सच्ची सरकार और विकास की मांग करते हैं, तो इस संदेश की अनदेखी नहीं की जा सकती. जब तक वोटर डर और विभाजन से आगे की मांग नहीं करेंगे, नेता सबसे आसान मुद्रा में व्यापार करते रहेंगे: भीड़ की पूर्वाग्रह.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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