क्या सार्क को कचरे में फेंकने का समय आ गया है?
क्षेत्रीय सहयोग के लिए दक्षिण एशियाई संघ (सार्क) की शुरूआत 1985 में बांग्लादेश में काफी धूमधाम के साथ हुई थी, और उसकी मेज़बानी तत्कालीन राष्ट्रपति एचएम इरशाद ने की थी, जो शायद अपने लोगों का ध्यान उस सैन्य तानाशाही से खींचना चाहते थे, जिसे उस समय वो चला रहे थे. (एक साल के बाद धांधली से चुनाव जीतकर, वो अपने प्रयास में सफल हो गए).
उनकी किस्मत अच्छी थी कि क्षेत्र ने उनकी लोकतांत्रिक साख के अभाव की अनदेखी कर दी और ‘सम्मान, समानता और साझा फायदों की पारस्परिकता पर आधारित एक व्यवस्था के निर्माण के लिए’ सब जमा हो गए- भूटान नरेश जिगमे सिंघ वांगचुक, भारत के पीएम राजीव गांधी, श्रीलंका के राष्ट्रपति जे आर जयवर्धने, मालदीव के साथी तानाशाह मॉमून गयूम, नेपाल नरेश बीरेंद्र शाह और पाकिस्तान के मार्शल लॉ प्रशासक जनरल ज़िया उल हक़.
अब आते हैं सितंबर 2021 पर. वीकेंड पर यूएन महासभा के हाशिए पर, सार्क की एक निर्धारित वार्षिक बैठक रद्द कर दी गई, क्योंकि सदस्य देश इस पर सहमत नहीं हो सके कि अफगानिस्तान की नुमाइंदगी के लिए किसे बुलाया जाना चाहिए- पाकिस्तान कथित रूप से एक तालिबान प्रतिनिधि चाहता था, जबकि अन्य सदस्य प्रतीक के तौर पर एक कुर्सी खाली रखना चाहते थे. उनमें बहस हुई लेकिन सहमति नहीं बनी. इसलिए किसी समझौते पर पहुंचने की कोशिश की बजाय, तमाम पदाधिकारी कंधे उचकाते हुए अपने अपने होटलों में वापस चले गए.
जब ये क्षेत्र एक अलग पहचान बनाने के अपने प्रयासों के इतिहास पर मुड़कर नज़र डालेगा, तो वो इसी लमहे को देखेगा- जब सार्क बिखर गया और हर देश अपने रास्ते पर निकल गए, जिनमें बहुत से चीन की तरफ चले गए.
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सार्क की सच्चाई
निश्चित रूप से ये बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया गया दृश्य है. अधिकतर लोग तर्क देंगे कि सार्क बिल्कुल भी बिखर नहीं रहा है, ये नेपाल में सचिवालय में मौजूद है, अपने ‘यूथ अवॉर्ड’ में, अपनी फेडरेशन ऑफ अकाउंटेंट्स में, बच्चों के प्रति हिंसा खत्म करने की पहल में, तथा राजनीतिक रूप से सही कुछ अन्य प्रयासों में.
लेकिन सच्चाई ये है कि सार्क पूरी तरह खत्म हो चुका है. हमें इस सच्चाई को मान लेना चाहिए और इसका अंतिम संस्कार कर लेना चाहिए- इसकी चिता जलाएं या दफ्न करें या दोनों कर लें. एक हेलिकॉप्टर किराए पर लें और सभी देशों की नदियों पर इसकी राख बिखेर दें. इस पाखंड को खत्म कर देते हैं कि दक्षिण एशियाई देश एक दूसरे का खयाल रखते हैं. अब समय आगे बढ़ जाने का है.
पिछला सार्क सम्मेलन नेपाल में 2014 में हुआ था, जिसके बाद इसकी अध्यक्षता पाकिस्तान को सौंप दी गई. लेकिन, चूंकि चार्टर नियम कहते हैं कि शिखर सम्मेलन तभी हो सकता है, जब सभी सदस्य देश सहमत हों और पिछले कुछ वर्षों में भारत के पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय संबंध तेज़ी के साथ बिगड़े हैं- हालांकि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सभी सार्क नेताओं को अपने शपथ समारोह में आमंत्रित किया था- ये संगठन धीरे-धीरे संकुचित हो गया है. इसकी आखिरी हांफती सांसें पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क में खामोश कर दी गईं.
अलविदा सार्क.
हालांकि प्रिय पाठकों को मैं ये बताए बिना नहीं रह सकती कि क्या हो सकता था- और असल में क्या है. 2006 में, जब दिल्ली में सार्क की बैठक हुई, तो उससे एक मुक्त व्यापार क्षेत्र का विचार पैदा हुआ, राष्ट्रों में समान मुद्रा को एक नाम देने की होड़ लग गई. आज सार्क दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है- विश्व बैंक के अनुसार 5 प्रतिशत से कम, जबकि पूर्वी एशिया में ये 35 प्रतिशत और यूरोप में 60 प्रतिशत है. उप सहारा अफ्रीका भी इससे बेहतर है, जिसमें 22 प्रतिशत अंतर-क्षेत्रीय व्यापार होता है.
स्थिति इतनी खराब है कि भारतीय व्यापारियों के लिए पाकिस्तान के मुकाबले ब्राजील से व्यापार करना 20 प्रतिशत सस्ता पड़ता है. ब्रुकिंग्स की एक स्टडी में पता चला कि 2017 के आंकड़ों के अनुसार, आज सार्क के साथ भारत का व्यापार, 1.7 प्रतिशत से 3.8 प्रतिशत के बीच रहता है. स्टडी में कहा गया कि इसका कारण संरक्षणवादी नीतियां, लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, राजनीतिक इच्छा का अभाव और व्यापक रूप से विश्वास की कमी है. किसी भी दक्षिण एशियाई के लिए इसे पढ़ना, जाना-पहचाना सा लगता है.
2014 में नेपाल शिखर सम्मेलन के दौरान पाकिस्तान ने कनेक्टिविटी सुधारने के तीन प्रयासों में भागीदारी से इनकार कर दिया. उसके बाद बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और भारत ने आपस में एक यातायात समझौता करने की कोशिश की लेकिन वो नाकाम हो गई क्योंकि, मिसाल के तौर पर भूटान में वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के मानदंड, भारत की अपेक्षा बहुत ऊंचे थे.
2019 में पुलवामा आतंकी हमले ने भारत के पाकिस्तान के अंदर तक घुसकर हमला करने का रास्ता साफ कर दिया, जिसके बाद इनके रिश्ते बिल्कुल निचले स्तर पर पहुंच गए. 2021 में पाकिस्तान कथित रूप से चाहता था कि अफगानिस्तान में तालिबान शासन सार्क का हिस्सा बने लेकिन दूसरे देशों ने इस पर आपत्ति जताई.
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अन्य समूह ले रहे हैं जगह
इधर सार्क अपने बनाए गढ्ढे में ही गिरा हुआ छटपटा रहा है, उधर अन्य समूह इसकी जगह लेना चाह रहे हैं– बंगाल की खाड़ी समुदाय या बिम्सटेक, जिसे भारत ने शुरू किया है, मध्य एशिया और पाकिस्तान के बीच इलेक्ट्रिसिटी ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट कासा-1000, चीन और पाकिस्तान के बीच सीपीईसी और चीन की अगुवाई वाला बेल्ट-एंड-रोड-इनीशिएटिव या बीआरआई, जिसने भारत और भूटान को छोड़कर, सभी सार्क देशों को अपने साथ जोड़ लिया है.
जैसे-जैसे चीन सैन्य और आर्थिक रूप से ज्यादा ताकतवर हो रहा है, वैसे-वैसे अपेक्षाकृत गरीब देशों को चेक काटकर देने की उसकी क्षमता उसी के अनुरूप आसानी से बढ़ी है- जैसे, 2016 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग का बांग्लादेश को 26 अरब डॉलर देने का वादा.
असल में, ब्रुकिंग्स स्टडी में कहा गया है कि चीन ने सार्क देशों को निर्यात, 2005 में 8 अरब डॉलर से बढ़ाकर 2018 में 52 अरब डॉलर कर दिया, जो 546 प्रतिशत की वृद्धि है.
चीन सार्क के कमरे में अब सिर्फ एक हाथी नहीं है, इसने पूरे चिड़ियाघर में अपना विस्तार किया है.
जैसे ही प्रधानमंत्री मोदी महामारी के बाद अपने पहले विदेश दौरे से वापस आकर, सर के बल यहां की सियासत में लग जाते हैं, ऐसा लगता है कि नई दिल्ली अपने पड़ोस के ऊपर से कूदते हुए अमेरिका, फ्रांस, यूके और रूस जैसे अधिक शक्तिशाली देशों के साथ, क्वॉड जैसे ताकतवर समूह बनाने में ज्यादा उत्सुक है.
लेकिन अगर भारत चाहता है कि एक क्षेत्रीय खिलाड़ी के तौर पर उसे गंभीरता से लिया जाए, तो फिर उसे अपने पड़ोस को साथ लेकर चलना सीखना होगा. सार्क का दर्जा घटाने या उसे पूरी तरह खत्म कर देने की बजाय पीएम को शायद देखना चाहिए कि इस समूह के साथ क्या समस्या है और फिर एक ऐसी राष्ट्रीय रणनीति बनानी चाहिए, जिसके दायरे में राजनीति और अर्थनीति दोनों आ जाएं.
अपनी आज़ादी के 75वें वर्ष में भारत को शायद खुद पर एक एहसान करना चाहिए और मरने के करीब पहुंच चुके इस समूह में फिर से जान फूंकने के लिए कुछ नए मौलिक तरीके अपनाने चाहिए. क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करता है, तो सार्क का एक अनचाही मौत मरना लाज़िमी है.
(लेखिका दिप्रिंट में वरिष्ठ कंसल्टिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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