scorecardresearch
गुरूवार, 26 जून, 2025
होममत-विमतगुप्त जोड़तोड़ में लगे रूस और चीन अमेरिकी हमलों के बाद क्या करेंगे ईरान का समर्थन

गुप्त जोड़तोड़ में लगे रूस और चीन अमेरिकी हमलों के बाद क्या करेंगे ईरान का समर्थन

रूस और चीन इस स्थिति में हैं कि संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं के जरिए वैश्विक प्रयास का नेतृत्व कर सकें.

Text Size:

जब ईरान और इसराइल में युद्ध शुरू हुआ तो शुरू में तो ऐसा लगा कि इज़रायल का ‘ऑपरेशन राइजिंग सन’ ईरान पर कई स्वतंत्र हमलों पर केंद्रित था, लेकिन जब छह बम वर्षक बी 2 विमानों ने 18 घंटे उड़ान भरकर ईरान के तीन परमाणु अड्डों पर हमला किया तब स्पष्ट हो गया कि इज़रायल का वह ऑपरेशन चकमा देने की उसकी रणनीति का हिस्सा थी, जिसका उपयोग अमेरिका ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने के लिए किया.

अब सवाल यह है कि किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई का विरोध करते आ रहे रूस और चीन जैसे ताकतवर देश इन हमलों को किस तरह देखेंगे? ख़ासकर तब जब इस साल मार्च में रूस, चीन और ईरान ने संयुक्त बयान जारी किया था कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम “पूरी तरह से शांतिपूर्ण कार्यों के लिए है, परमाणु हथियारों का विकास करने के लिए नहीं है.”

रूस का रुख क्या है?

रूस के विदेश मंत्रालय ने शब्दों का खेल करते हुए अपना बयान जारी करके “ईरान के इस्लामी गणतंत्र के कई परमाणु केंद्रों” पर अमेरिकी हमलों की निंदा की है. रूस ने अपने पिछले बयान को भी दोहराया कि अमेरिकी हमला “अंतरराष्ट्रीय कानूनों, संयुक्त राष्ट्र चार्टर, और उसकी सुरक्षा परिषद के प्रासंगिक प्रस्तावों का उल्लंघन” है; इन प्रस्तावों ने “ऐसी कार्रवाइयों को हमेशा साफ तौर पर अस्वीकार्य बताया है”.

शांति की अपील करते हुए रूस ने यह भी मांग की कि “हमलों को तुरंत बंद किया जाए और शांति बहाल करने तथा हालात को कूटनीतिक रास्ते पर लाने के प्रयास तेज किए जाएं”.

इस संकट के प्रति रूस का रुख आम कूटनीतिक व्यवहार मात्र है — समाधान के लिए शांति तथा वार्ता बहाल करने के साथ कूटनीतिक चैनलों का इस्तेमाल करने की मांग करने वाला. इस बीच, रूस के बयान से कहीं यह नहीं लगता कि सीधी दखल का दावा किया जा रहा है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

रूस हालांकि, ईरान का रणनीतिक साझेदार है, लेकिन ईरान के लिए उसकी पेशकश अप्रत्यक्ष ही रही है, मसलन उसके असैनिक परमाणु कार्यक्रम या रक्षा सामग्री के निर्यातों का समर्थन करना. हालांकि, रूस खुद पड़ोसी देश से युद्ध में उलझा हुआ है, लेकिन वह अमेरिका और ईरान के बीच शांति बहाली की मध्यस्थता कर सकता है और इस मामले में सबसे प्रभावी साबित हो सकता है.

वर्तमान संकट में रूस ईरान का सबसे उपयुक्त दोस्त बना हुआ है. इस क्षेत्र में वह रणनीतिक दृष्टि से ईरान का सबसे उपयुक्त पार्टनर है. क्षेत्रीय संबंधों के मामले में रूस न केवल सबसे गहरी पैठ रखता है बल्कि दशकों से मध्य-पूर्व में सैन्य तथा कूटनीतिक कार्रवाई करता रहा है. अगर ईरान को अमेरिका और उसके मित्र देशों के खिलाफ कोई सार्थक समर्थन चाहिए तो वह केवल रूस जैसी परमाणु शक्ति से ही मिल सकता है, लेकिन यह मुमकिन नहीं लगता.

इस बीच ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अराघची जबकि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात कर वापस आ गए हैं, साफ है कि ईरान की कुछ ही गारंटियां मिलीं, जहां लगभग बातें बंद कमरें तक ही सीमित थी पर यह साफ है कि रूस ने ईरान को सत्ता परिवर्तन से बचाव शामिल सा लगा. ज्ञात है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ईरान में सत्ता परिवर्तन के विकल्प पर विचार करने की खुली चर्चा सोशल मीडिया पर कर चुके हैं फिर नकार भी चुके हैं. साथ ही सुरक्षा गारंटियों में ईरान की संप्रभुता और आत्मरक्षा के अधिकार को मान्यता की वकालत भी शामिल रही.

अमेरिका और उसके मित्र देशों की खातिर रूस ईरान से फिर वादा करवा सकता है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को नए सिरे से अंतर्राष्ट्रीय निगरानी के तहत सीमा के अंदर रखेगा, अमेरिका और मित्र देशों पर छद्म हमले नहीं करवाएगा. इस तरह ईरान को शायद ज्यादा क्षेत्रीय समर्थन हासिल हो सकेगा. शांति के लिए मध्यस्थता के अलावा रूस सैन्य-तकनीकी सहयोग की पेशकश कर सकता है, जिसमें ईरान की आधुनिक एयर डिफेंस सिस्टम को अपग्रेड करना, उपग्रह से निगरानी के डाटा की साझेदारी शामिल होगी ताकि ईरान अमेरिकी सेना की गतिविधियों पर नजर रख सके या आसन्न हमलों का पता लगा सके और अंतरिक्ष से निगरानी को समर्थन उपलब्ध किया जा सके.

लेकिन इस लड़ाई का रूस पर क्या असर पड़ेगा? उसके लिए यह एक झटके से ज्यादा, एक अवसर है. दुनियाभर में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी, तब रूस दुनिया भर को तेल का सबसे विश्वसनीय निर्यातक बन सकता है. इसके अलावा काला सागर, पूर्वी यूरोप, और आर्कटिक पर अमेरिका कम ध्यान देने लगेगा, जो कि इस क्षेत्र के लिए रूस की रणनीतिक योजना के लिए बुनियादी महत्व रखते हैं. इसने वैश्विक सत्ता समीकरण में रूस की अहमियत फिर से बहाल कर दी है, जो कि यूक्रेन युद्ध के कारण घट गई थी.


यह भी पढ़ें: ईरान की क्रूर हुकूमत को कीमत चुकानी पड़ रही है, लेकिन अमेरिकी हमले का असर दूर तक हो सकता है


चीन की प्रतिक्रिया

चीन ने भी हमले की निंदा की है और संयुक्त राष्ट्र चार्टर तथा अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन का उल्लेख किया है. यह सामान्य प्रतिक्रिया लगती है, लेकिन ईरान एकता को महत्व देता है. वैसे, चीन इस लड़ाई में दो बड़े कारणों से सीधे नहीं शामिल होगा.

पहला यह कि चीन सैन्य जोखिमों के मामले में रणनीतिक अस्पष्टता बनाए रखना चाहता है और कूटनीति, आर्थिक पहलू और दूसरे अप्रत्यक्ष साधनों के जरिए अपना प्रभाव बनाए रखना चाहता है. अमेरिका की नौसैनिक ताकत बढ़ी ही है इसलिए उससे सीधे उलझने का कोई खास लाभ नहीं है. दूसरे, चीन की प्रमुख चिंता एनर्जी के मामले में स्थिरता को लेकर है. खाड़ी की लड़ाई में सीधे शामिल होने से तेल का आयात खतरे में पड़ सकता है.

ईरान से तेल निर्यात बाधित होने पर चीन निश्चित तौर पर तो प्रभावित होगा ही, युद्ध में सीधी सैन्य भागीदारी चीन को खाड़ी के अपने दूसरे पार्टनरों से तेल आयात करने की अपनी रणनीति में बड़ा और जोखिम भरा परिवर्तन करने को मजबूर करेगी. यह जोखिम भरा और महंगा साबित होगा.

हालांकि, चीन दूसरी तरह से भी ईरान की मदद कर सकता है. चीन तनावग्रस्त क्षेत्रों को खुलकर हथियार देने से परहेज़ करता है, लेकिन वह तकनीक ट्रांसफर कर सकता है जिसमें मिसाइल गाइडेंस टेक्नोलॉजी, ड्रोन, साइबर टैक्टिक्स आदि शामिल हैं. ईरान पर अमेरिकी हमले में अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी की बड़ी भूमिका थी जिसके चलते परमाणु अड्डों पर सटीक निशाना साधा गया और हमलावर सामने भी नहीं दिखा. चीन ईरान को गुप्त रूप से सीमित अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी की पेशकश कर सकता है और रूस भी इसकी पेशकश कर सकता है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य होने के कारण रूस और चीन काफी कूटनीतिक प्रभाव रखते हैं जिसका वह संयुक्त इस्तेमाल करके ईरान की पैरोकारी कर सकते हैं और संयुक्त राष्ट्र पर सार्थक कार्रवाई करने का दबाव डाल सकते हैं.

ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को कोई रियायत न देने के अमेरिकी रुख के खिलाफ यह कूटनीतिक समर्थन कितना प्रभावी होगा, यह देखना बाकी है.

रूस और चीन इस स्थिति में हैं कि संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं के जरिए वैश्विक प्रयास का नेतृत्व कर सकें. वह युद्ध के और ज्यादा भड़कने की स्थिति में रेडियोएक्टिव संक्रमण तथा मानवीय परिणामों का अंतरराष्ट्रीय संज्ञान लिए जाने पर ज़ोर दे सकते हैं और रोकथाम की कूटनीति की जगह दंडात्मक व्यवस्था को अपनाने की मांग उठा सकते हैं.

(ऋषि गुप्ता विश्व मामलों के जानकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: संघर्ष विराम पाकिस्तान के लिए जीत का एक और मौका था, जिसे भारत ने पकड़ लिया


 

share & View comments