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Monday, 24 March, 2025
होममत-विमतबसें चलाने से मणिपुर में शांति बहाल नहीं होगी, सरकार लोगों को जोड़ने की कोशिश करे, मिटाने की नहीं

बसें चलाने से मणिपुर में शांति बहाल नहीं होगी, सरकार लोगों को जोड़ने की कोशिश करे, मिटाने की नहीं

भारत विरोधी बगावत ने मैतेई समुदाय में हिंदू शासन के दौर से पहले की सांस्कृतिक परंपराओं और आस्थाओं को पुनर्जीवित करने पर ही ज़ोर दिया और कुकी और नगा समूहों की उपेक्षा की.

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इम्फाल में राजभवन के करीने से तैयार किए गए लॉन पर जलते हुए कागज़ के टुकड़े घंटों तक गिरते रहे, सदियों के ज्ञान और साहित्य को समेटे कागज़ के इन जले हुए टुकड़ों से लॉन की घास पट गई. दो दशक पहले, अप्रैल के महीने में अपने होमलैंड से बांग्ला लिपि का नामोनिशान मिटा देने पर आमादा ‘मैतेई एरोल एयेक लोइनासिल्लोल अपुंबा लुप’ नाम के संगठन के कार्यकर्ता किरासन तेल से भरी बाल्टियों और दियासलाई लेकर आए थे और मणिपुर स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी को आग के हवाले कर दिया था. अनुमानतः 1 लाख 45 हज़ार किताबें उस लूटपाट और आगज़नी में खाक हो गईं, जिनमें कुछ अनमोल पांडुलिपियां भी थीं. इसके लिए किसी को सज़ा नहीं दी गई.

उन हमलों में जितनी जानें गईं, जिस तरह की बार्बर हिंसा हुई और 2023 से मणिपुर में जो जातीय नरसंहार चल रहा है उनके मुकाबले लाइब्रेरी को आगे के हवाले करना तो मामूली वारदात है. फिर भी, लाइब्रेरी प्रकरण के बहाने उन शक्तियों पर गौर किया जा सकता है जिन्होंने जातीय हिंसा को भड़काया. इसके साथ ही इस पर भी विचार किया जा सकता है कि इन तत्वों से कैसे निबटा जा सकता है.

इस महीने की शुरुआत में, केंद्र सरकार ने ऐसा दिखाने की कोशिश की कि वहां सब कुछ ठीक हो चुका है. उसने राज्य की जातीय संघर्ष से ग्रस्त इलाकों के बीच बस सेवाएं शुरू करने के आदेश दे दिए और हैरानी नहीं कि अमन-बसों के कारण और अधिक खूनखराबा हुआ. इस बीच जातीय गुटों के बीच संघर्ष जारी रहा क्योंकि एक-दूसरे के दुश्मन कौमपरस्त अपनी इलाकाई दबदबे को जताने पर आमादा हैं.

वास्तव में, ज़मीन ही एकमात्र सत्य है जिसे कोई महत्व दिया जा रहा है. इम्फाल के आसपास न्यू लंबूलें जैसे इलाकों, या कभी कुकी कुलीनों का घर रहे हाओकिप वेंग में पुराने महल के आसपास के घर बंद पड़े हैं. खतरा यह है कि मैतेई लड़ाके अरमबाई टेंगोल इन घरों पर कब्ज़ा कर लेंगे. इस बीच हज़ारों मैतेई बिष्णुपुर के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, कुकी-ज़ो बागियों के हमले के डर से उनकी ज़मीन और उनके घरों को खाली करा लिया गया है.

इसलिए, घर लौटने के लिए बस पकड़ने की सोचना भी बेकार और अपमानजनक है.


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विभाजित शहर

इंफाल पर मानव विज्ञानी डंकन मैकडुइ-रा की किताब ‘बॉर्डरलैंड सिटी इन न्यू इंडिया’ हमें बताती है कि 1970 के दशक में कुछ समय के लिए इंफाल को शिलंग जैसा महानगरीय किस्म का बहुसांस्कृतिक शहर कहा जा सकता था. लाल-पीले रंग वाला घनाकार सिनेमाघर शंकर टॉकीज़ कभी वह ठिकाना था जहां सभी जातियों के निवासी हिंदी फिल्में देखने आते थे, लेकिन, 2000 वाले दशक के शुरू में मैतेई बागियों ने मैतेई मायेक भाषा और लिपि के इस्तेमाल को लागू करने के अपने कार्यक्रम के तहत हिंदी फिल्मों पर रोक लगाने का फरमान जारी कर दिया था.

अभी हाल तक शंकर टॉकीज़ की इमारत का इस्तेमाल ‘स्पिरिट ऑफ फेथ चर्च’ नामक प्रचार समूह कर रहा था, जो मैतेई लोगों को ईसाई बनाने की मुहिम चला रहा था. पत्रकार मेकपीस सितल्हौ ने खबर दी है कि धर्मांतरण करने वाले इन लोगों को अरमबाई टेंगोल से धमकियां मिल रही थीं.

हिंदी फिल्मों पर रोक लगने के बाद इम्फाल का रूपमहल थिएटर भी मारा गया, जो कभी राजनीतिक नाटकों का केंद्र माना जाता था. इस थिएटर का प्रांगण अब बाज़ार में तब्दील हो गया है जहां फेरी वाले बिक्रेता म्यांमार के रास्ते तस्करी से लाए गए सस्ते चीनी कपड़े बेचते हैं.

मणिपुर के न्यू थिएटर की एक नायक और शुरू में भारतीय सत्तातंत्र के खिलाफ बगावत करने वाले यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) के साथ रहे अरांबाम सोमोरेंद्र उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने रूपमहल को विशेष दर्जा दिलाने में मदद की थी. टूट कर अलग हुए प्रतिद्वंद्वी गुट ‘कांग्ले यवोल कन्ना लुप’ के कादर ने 200 में सोमोरेंद्र की हत्या कर दी. उनके जनाज़े में जो बैनर प्रदर्शित किए गए उन पर उनकी एक कविता की यह पंक्ति छपी थी : ‘तुम्हारे खेतों पर आज तुम्हारे बेटे का खून बिखरा हुआ है’. न तो उनके हत्यारों की पहचान की गई और न किसी पर मुकदमा चला.

1990 वाले दशक में ज़्यादातर समय इम्फाल में कर्फ्यू लगा रहा, लेकिन भारत विरोधी बगावत करने वाले अरांबाम सोमोरेंद्र जैसे लोगों ने एक महानगरीय संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले कुछ स्थानों की स्थापना में मदद की, जो जातीयता से ऊपर उठ सके. काबुई खुल जैसे इलाकों में शराब की छोटी अवैध दुकानों को, जहां समाज के सभी वर्गों के लोगा आया करते थे, छोड़कर बाकी सांस्कृतिक जीवन जातीय पहचान और परंपरा की मांगों के मुताबिक संचालित होता रहा.

नई सहस्राब्दी के शुरू में इम्फाल में शीशे और इस्पात से बनी नई इमारतें बनने लगीं और वह एक शांत सूबाई शहर से आधुनिकता के प्रतीक के रूप में उभरने लगा. निष्क्रिय सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की भरपाई के लिए नए स्पेशलिस्ट अस्पताल बनने लगे. छात्रों को प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए तैयार करने वाले ट्यूशन और कोचिंग सेंटर बढ़ने लगे. इम्फाल को मोरेह के रास्ते बैंकॉक से जोड़ने के लिए नया हाइवे बनाने की सरकार की योजना ने नए आर्थिक मौकों को बढ़ने की उम्मीद जगा दी.

शहर में लागू ‘अफ्स्पा’ कानून 2004 में उठा लिए जाने के बाद उभरे नए इम्फाल में के-पॉप म्यूज़िक से प्रेरित बैंडों, कैफे और फैशन कंटेस्ट की भरमार हो गई. इस नई युवा संस्कृति ने जातीय पहचान की समस्या का समाधान करने की जगह उस पर पर्दा डाल दिया.


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इतिहास की परछाई

मणिपुर को 1894 में ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल किया गया था. इसके बाद इम्फाल के मैदानी इलाकों के मैतेई समुदाय और आसपास की पहाड़ियों में बसे लोगों के आपसी संबंधों में बदलाव आ गया. भारत के दूसरे क्षेत्रों की तरह मणिपुर के हिंदू शासक भी आदिवासी समुदायों के साथ लंबे समय से अपने गुलाम की तरह व्यवहार करते आ रहे थे. ब्रिटिश साम्राज्य ने गुलामी को तो खत्म कर दिया, लेकिन उसकी जगह बेगारी की प्रथा शुरू कर दी. पहाड़ी लोगों से मजदूर और राजस्व हासिल करने और देसी शरीरों की अपनी कभी खत्म न होने वाली मांग पूरी करने के लिए मैतेई समुदाय में से ठेकेदारों के रूप में ‘लंबुओं’ की बहाली शुरू कर दी.

दूसरे देसी शासकों की तरह मणिपुर के महाराजा ने भी 1914-18 के विश्वयुद्ध के दौरान सेवाएं देने के लिए नगाओं, लुशाई और मैतेई समुदायों से लोगों की भर्ती कारवाई. अंग्रेज़ फौजी अफसर लेस्ली शेक्सपियर ने लिखा है कि ये लोग “पहले भी सीमाओं पर चढ़ाई के दौरान सरकार के लिए इस तरह के काम करते रहे थे और उन्हें ऐसे कामों का अनुभव था”. इसके बदले उन्हें बेगारी से मुक्ति मिल जाती थी.

औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर अक्सर विद्रोह होते रहते थे. कुकी लोगों ने 1917 से 1919 के बीच अंग्रेज़ों के खिलाफ लंबा विद्रोह किया था. राजनीतिशास्त्री होमेन बोरगोहाईन ने लिखा है कि 1934 के बाद चावल पर लेवी लगाए जाने के खिलाफ महिलाओं के नेतृत्व में कई बार बगावत हुई.

देश की आज़ादी के बाद भी इन समस्याओं का समाधान नहीं किया गया. इतिहासकार प्रियदर्शी एम. गंगटे ने लिखा है कि हालांकि, मणिपुर ने 1947 में अपना संविधान बनाया और चुनाव करवाए जिसमें हर एक उम्मीदवार का अपनी मतपेटी होती थी जिस पर उसकी तस्वीर लगी थी, लेकिन उसे कथित ‘सी’ श्रेणी के राज्य का दर्जा दिया गया जिसके बारे में माना जाता था कि उसका कोई निर्वाचित नेतृत्व नहीं है.

भारत के खिलाफ बगावत करने वाले मैतेई समुदाय के करिश्माई हिजाम इराबोट सिंह जैसे नेताओं का मानना था कि एक नई, समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए मणिपुर के सभी जातीय समुदायों का एक गठबंधन बनाना ज़रूरी है. शुरू के बागी गुटों ने मैदानी इलाकों से आकर वहां बसे मारवाड़ियों और बंगालियों को भी निकाल बाहर करने की मांग की थी. तनाव बढ़ गया था. 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इम्फाल गईं तब पुलिस को व्यवस्था बनाए रखने के लिए आंदोलनकारियों पर गोली चलानी पड़ी थी.

लेकिन बागी नेतृत्व एकजुट मणिपुर के अपने सपने को साकार करने का कोई उपाय नहीं ढूंढ पाया. भारत विरोधी बगावत ने मैतेई समुदाय में हिंदू शासन के दौर से पहले की सांस्कृतिक परंपराओं और आस्थाओं को पुनर्जीवित करने पर ही ज़ोर दिया, और कुकी और नगा समूहों की उपेक्षा की.

1993 में, ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम’ ने नगा इलाकों से कुकी समुदायों को भगाने कए लिए उन पर बार्बर हमले किए. उस संघर्ष का मर्मस्पर्शी ब्योरा देते हुए सुदीप चक्रवर्ती ने लिखा है कि “महिलाओं का बलात्कार और कत्ल किया गया. एक चर्च में बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया. बच्चों को अस्थायी शिविरों में मार डाला गया. 1994 में, जड़ी-बूटी जमा कर रहीं कई महिलाओं का बलात्कार और कत्ल किया गया. 25 पुरुषों के हाथ पीछे बांधकर गोली से उड़ा दिया गया.”

कुकी बागी भी हथियारबंद हुए और इसके बाद उनके इलाके में सक्रिय जातीय मैतेई गुटों से उनकी टक्कर हुई. सरकार और नगा तथा कुकी गुटों के बीच युद्धविराम समझौते के बाद भी मुठभेड़ें जारी रहीं, कभी इलाकों पर कब्ज़े के लिए तो कभी सरकारी ठेके हासिल करने या सरकारी नौकरों से जबरन वसूली के लिए.

खूनी तरक्की

मैकडुई ने लिखा है कि आर्थिक विकास ने जातीय तनावों में और इजाफा किया. 1951 से 1961 के बीच जनसंख्या में तेज़ वृद्धि ने मैतेई समुदाय के अंदर यह डर पैदा कर दिया कि इसके कारण वह हाशिये पर धकेले जा सकते हैं. पारंपरिक रूप से वंचित जातीय समुदायों की बदलती स्थिति ने भी चिंताओं को जन्म दिया. मिशनरियों द्वारा शिक्षा के प्रसार और इलाके में विकास के भ्रष्टाचार ग्रस्त कार्यक्रमों से हासिल कमाई ने एक छोटे-से कुलीन कुकी तबके को जन्म दे दिया. आरक्षण के कारण नौकरशाही में उनके प्रवेश और व्यवसाय में उनकी सफलता ने मैतेई समुदाय के निचले तबकों में असंतोष को भड़काया.

इस असंतोष का फायदा उठाने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हिंदू राष्ट्र्वादी मिथकों को उभारना शुरू किया और मैतेई समुदाय को व्यापक भारतीय पहचान से जोड़ना शुरू किया. पूर्व मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने 2018 में घोषणा की कि कृष्ण के काल में भगवान ने अरुणाचल की राजकुमारी से विवाह करके उत्तर-पूर्व से रिश्ता जोड़ा था. कुकी इस नए हिंदुत्ववादी प्रेतवाद के हिस्से बन गए.

अब मणिपुर में अमन के लिए ऐसी राजनीति करनी पड़ेगी जो सबको साथ लेकर चले, न कि किसी को खत्म करके आगे बढ़े; उदाहरण के लिए, एक ऐसी लाइब्रेरी बनाए जिसमें सभी तरह के ग्रंथों को जगह मिले, ऐसा न हो कि किसी भी ग्रंथ को जगह न मिले. उत्तर-पूर्व में संघर्ष के नतीजों की आशंका से ग्रस्त केंद्र सरकार ने जातीय अलगाववादियों से संपर्क किया है और एक गुट का इस्तेमाल दूसरे गुट को बेअसर करने के लिए किया है, लेकिन इसका उलटा ही परिणाम मिला है, संघर्ष और बढ़ गया है. वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार बसें चलाने पर ध्यान देने की जगह इस पर विचार करे कि वास्तविक लोकतांत्रिक संवाद-संपर्क किस तरह कायम किया जा सकता है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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