जब बात वर्तमान भारत के अग्रणी और प्रभावशाली लोगों के वैचारिक संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टीम के पुनर्गठन की हो, तो लोगों की जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक है. आखिरकार, केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के तीन चौथाई मंत्रियों की पृष्ठभूमि आरएसएस की जो है, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं, जो 22 साल की उम्र में संघ के प्रचारक बन गए थे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शीर्ष निर्णयकारी संस्था अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने शनिवार को बेंगलुरु में नए सरकार्यवाह की नियुक्ति की जोकि संगठन का दूसरा सर्वोच्च पदाधिकारी होता है. साथ ही, संगठन की नई राष्ट्रीय टीम की भी घोषणा की गई.
आरएसएस ने इन नियुक्तियों के माध्यम से कई संकेत दिए हैं, भविष्य के अपने रोडमैप के बारे में, और साथ ही अपने अनुषंगिक दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की भावी दिशा के बारे में भी. इन संकेतों की बात करने से पहले मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं: मैं इस 96 वर्षीय संगठन की आंतरिक कार्यप्रणाली के बारे में कोई विशेषज्ञता नहीं रखता.
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आरएसस की रहस्यात्मकता
यदि आप आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारियों से संगठन पर कई किताबें लिखने वाले लेखकों (गैर-आरएसएस) के बारे में पूछेंगे, तो वे शरारत भरी मुस्कान या कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ जवाब देंगे. आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी, जो आज संयुक्त महासचिव हैं, ने कुछ समय पहले मुझसे कहा था, ‘डीके जी, जब तक आप अंदर नहीं आएंगे, संघ को कभी भी समझ नहीं पाएंगे.’
यह प्रतिक्रिया दो घंटे की बातचीत के बाद की थी, जिसके दौरान उन्होंने और उनके एक सहयोगी ने ज़बरदस्त धैर्य का परिचय देते हुए विभिन्न मुद्दों पर संघ और उसके रुख के बारे में मेरी जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की थी. वैसे, संघ के पदाधिकारियों के साथ आप जितना अधिक बात करते हैं, ये विषय उतना ही जटिल होता जाता है.
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के शुरुआती वर्षों में, मुझे द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद ने आकर्षित किया था — शायद इसकी दुरूहता के कारण भी. हिंदुत्व और इसकी हिंदू धर्म से इतर पहचान, जैसा कि आरएसएस के पदाधिकारियों ने व्याख्या की, कोई कम मुश्किल विषय नहीं है.
आरएसएस के वैचारिक ढांचे की जटिलता के बारे में क्या कहा जा सकता है? यहां तक कि पदनाम जैसे बुनियादी तथ्य — सरसंघचालक (प्रमुख), सरकार्यवाह (महासचिव) और सह-सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) — भी शायद बहुतों के लिए शब्द व्युत्पत्ति संबंधी चुनौती साबित होते हों. और पदानुक्रम का उसके बाद का स्तर भी कुछ कम नहीं हैं: बौद्धिक प्रमुख, शारीरिक प्रमुख, सेवा प्रमुख आदि-आदि.
इसलिए जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी कहते हैं कि भारत पर एक काली छाया — आरएसएस की काली छाया — पड़ी हुई है तो ये बताना मुश्किल है कि उनके श्रोता इसका क्या अर्थ निकालते होंगे. हो सकता है, उनकी बात संघ से जुड़ी रहस्यात्मकता को और गहरा करने का ही काम करती होगी.
भाजपा के साथ अधिक घनिष्ठता
अब वापस बेंगलुरु में घोषित नई नियुक्तियों की बात करें, तो इस संबंध में अलग-अलग व्याख्याएं की गई हैं. उनमें साझा बातों में सबसे प्रमुख है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाने वाले दत्तात्रेय होसबले की आरएसएस में महासचिव या नंबर 2 के रूप में नियुक्ति को मोदी सरकार और संघ के बीच तालमेल बढ़ने की निशानी बताया जाना.
संयुक्त महासचिव मनमोहन वैद्य के केंद्र या कार्यस्थल को नई दिल्ली से भोपाल स्थानांतरित किए जाने को इस मान्यता के एक और सबूत रूप में देखा जा रहा है. वैद्य और मोदी के बीच तभी से नहीं बनी है जब वैद्य गुजरात में संघ के प्रांत प्रमुख थे और मोदी राज्य के मुख्यमंत्री. लेकिन अगर इन फैसलों से आरएसएस और भाजपा के बीच तालमेल बढ़ने के संकेत मिलते हैं, तो भाजपा नेता राम माधव के पुनर्वास को किस रूप में देखा जाएगा? कभी भाजपा के सबसे प्रभावशाली महासचिव रहे माधव कालांतर में मोदी-शाह का समर्थन गंवा बैठे और अंततः भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की टीम से बाहर कर दिए गए.
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में आरएसएस में उनकी वापसी को जल्दी ही संघ पदानुक्रम में उनकी तरक्की की भूमिका के तौर पर देखा जा रहा है. वैसे ये माना हुआ तथ्य है कि संघ और भाजपा पहले से कहीं अधिक घनिष्ठता के साथ परस्पर सहयोग कर रहे हैं.
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पहले के मुकाबले युवा संघ
आरएसएस की पुनर्गठित टीम संघ और मोदी सरकार के बीच अधिक सुचारू समन्वय के प्रयास का संकेत देती है, लेकिन शनिवार की कवायद में एक कहीं बड़ा संदेश था: आरएसएस युवा दिखने की कोशिश कर रहा है और 75 वर्ष से अधिक की उम्र वालों को कोई पद नहीं देने के अपने अलिखित नियम को लेकर गंभीर है. होसबले के पूर्ववर्ती महासचिव सुरेश भैयाजी जोशी वैसे तो खुद सेवानिवृति चाह रहे थे क्योंकि कुछ समय पहले घुटने की सर्जरी के बाद से दौरे करने को लेकर सहज नहीं थे, लेकिन उनकी जगह नई नियुक्ति का प्रमुख कारण था उनका 73 साल की उम्र को पार कर चुकना.
महासचिव का कार्यकाल तीन साल का होता है और उम्र सीमा के प्रावधान के कारण भैयाजी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकते थे. शनिवार को पदोन्नत हुए लोगों में 65 वर्षीय होसबले के अलावा ज्यादातर 60 से नीचे आयु वर्ग के हैं. संघ के पदाधिकारियों के अनुसार, आज आरएसएस की शाखाओं में भाग लेने वालों में से 89 प्रतिशत 40 वर्ष से कम उम्र के हैं, जबकि शाखा में शामिल होने वालों में 60 प्रतिशत छात्र हैं.
उम्र सीमा पर जोर दिए जाने का मतलब है कि मोहन भागवत, जो इस साल सितंबर में 71 वर्ष के हो जाएंगे, संघ के शताब्दी समारोह — आरएसएस की स्थापना सितंबर 1925 में हुई थी — के बाद सेवानिवृति का फैसला कर सकते हैं.
नरेंद्र मोदी भागवत से छह दिन छोटे हैं. अगर भाजपा 2024 में फिर से सत्ता हासिल करती है तो वह क्या करेंगे? उस समय मोदी की उम्र 74 साल से कुछ महीने कम होगी. क्या वह भैयाजी के उदाहरण का अनुसरण करेंगे और प्रधानमंत्री के रूप में पांच साल के एक और कार्यकाल से इनकार कर देंगे? क्या वह 2025 में 75 साल के होने के बाद अपना उत्तराधिकारी घोषित करेंगे? या वह बीएस येदियुरप्पा के उदाहरण पर चलेंगे जो 78 साल की उम्र में कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं?
सच्चाई ये है कि भाजपा के यूएसपी के रूप में मोदी का कोई विकल्प नहीं है. हो सकता है किउन्होंने 2014 में एलके आडवाणी और अन्य वरिष्ठ नेताओं को सरकार से बाहर रखने के लिए उम्र सीमा की कसौटी का इस्तेमाल किया हो. 2016 में, गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को इस्तीफा देना पड़ा था क्योंकि वह 75 साल की होने जा रही थीं. मोदी सरकार में नजमा हेपतुल्ला और कलराज मिश्रा जैसे कुछ मंत्री 75 साल का होने के बाद भी कुछ महीनों तक पद पर बने रहने में कामयाब रहे, लेकिन अंतत: उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
इस बारे में ये दलील दी जा सकती है कि ये सभी मामले परस्पर भिन्न थे. उन नेताओं की राजनीतिक उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी. जबकि निकट भविष्य में प्रधानमंत्री मोदी के सबसे लोकप्रिय भाजपा नेता बने रहने की संभावना है. क्या भाजपा या आरएसएस 75 साल का होने पर उन्हें जाने दे सकते हैं? इसका जवाब किसी को पता नहीं है. लेकिन इतना तो तय है कि इस बारे में फैसला खुद मोदी करेंगे.
पिछले साल वाराणसी के लोगों के साथ वीडियो संपर्क के दौरान, प्रतिभागियों में से एक ने मोदी से आग्रह किया था कि उन्हें उम्र सीमा के प्रावधान का पालन नहीं करते हुए आगे भी अपना काम जारी रखना चाहिए. यह सुनकर प्रधानमंत्री के चेहरे पर मुस्कान खिल गई थी.
ये लेखक के निजी विचार हैं.
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