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Saturday, 2 November, 2024
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वाजपेयी और मोदी के दौर के बीच आरएसएस ने सीखे कई राजनीतिक सबक   

वाजपेयी सरकार के जमाने में आरएसएस अपनी वैचारिक दासी भाजपा पर पकड़ बनाए रखने को उतावला दिखता था, तो अब वह मोदी की राजनीतिक पूंजी का पूरा लाभ उठाने की फिराक में है.

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यह स्तंभ मैं एक पहेली से शुरू कर रहा हूं. यहां एक प्रमुख हस्ती द्वारा पिछले 11 सप्ताह में किए गए दौरों  का ब्योरा दिया गया है, आपको अनुमान लगाना है कि वह हस्ती कौन है—

गुवाहाटी (2-5 दिसंबर) : आदमगिरि पहाड़ियों में एकांत आश्रम में ठहरे और असम के मुख्यमंत्री सरबानंद सोनोवाल समेत कई लोगों से कई बैठकें की.

गुवाहाटी (2-5 दिसंबर) : कोलकाता के लिए उड़ान भरने से पहले कामख्या मंदिर गए.

कोलकाता (12-13 दिसंबर) : कई बुद्धिजीवियों समेत अंतरिक्ष विज्ञान, माइक्रोबायोलॉजी, मेडिकल आदि क्षेत्रों की सफल युवा प्रतिभाओं से मिले. अगस्त 2019 के बाद से यह पश्चिम बंगाल का उनका पांचवां दौर था.

कोझिकोड और तिरुवनंतपुरम (29-30 दिसंबर) : एक पुस्तक का विमोचन किया, केरल के राज्यपाल से मिले.

चेन्नै (13-14 जनवरी) : पोंगल पर्व मनाया, गऊ पूजा की, एक लड़की को महान कवि तिरुवल्लुवर की क्लासिक तमिल रचना ‘तिरुक्कुरल’ से एक दोहा पढ़कर सुनाया.

कोयंबटूर (17-19 फरवरी) : एक पुस्तक का विमोचन किया; पिछले अक्तूबर में भी इस शहर में तीन दिन के दौरे पर आए थे.

कुछ समझ में आया? ये सभी स्थान उन राज्यों में हैं जहां अब चुनाव होने वाले हैं. आप सोच रहे होंगे कि चुनाव का मामला है तो ये हस्ती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, या भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा में से ही कोई होगी. मेरा ख्याल है, आपने सोचा होगा कि इतने कम समय में, वह भी देश के अंदर इतनी यात्राएं करने वाली यह हस्ती कांग्रेस नेता राहुल गांधी तो नहीं ही हो सकते हैं. चलिए, मैं एक सुराग दे देता हूं. कोयंबटूर के लिए रवाना होने से पहले वे मुंबई में फिल्म अभिनेता और तृणमूल कांग्रेस के पूर्व सांसद मिथुन चक्रवर्ती से मिले.

जी हां, यहां आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत की बात हो रही है. अगर आप यह सोच रहे थे कि ये दौरे चुनाव के मद्देनजर कोई ऐसा नेता कर रहा होगा जिसकी बड़ी मांग है, तो आप गलत नहीं हैं. सरसंघचालक भागवत चुनाव वाले राज्यों का किसी राजनीतिक नेता से ज्यादा नहीं, तो कम दौरा नहीं कर रहे हैं. यहां कोई नहीं कह रहा कि आरएसएस ने राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया है. वह तो हमेशा दखल देता रहा था और दे रहा है, प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से, चाहे भागवत भले दावा करते रहे हों कि संघ का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है.

इसलिए राजनीति में संघ वाली उसी बहस को लाखवीं बार छेड़ने का कोई मतलब नहीं है. भागवत के दौरे यही जाहिर करते हैं कि संघ राजनीतिक सत्ता और वैचारिक एजेंडा को अब पहले से ज्यादा अहमियत देने लगा है.

ऐसा भी नहीं है कि आरएसएस भाजपा की चुनावी राजनीति से कभी तटस्थ रहा हो. इसके ग्रासरूट कार्यकर्ता चुनावों के दौरान भाजपा की हमेशा मदद करते रहे हैं, चाहे वे उसके कुछ नेताओं को नापसंद क्यों न करते रहे हों, जैसे राजस्थान की वसुंधरा राजे. लेकिन यह भी कोई गुप्त बात नहीं है कि मोदी की व्यक्तिपूजा आरएसएस को नागवार लगती रही है, क्योंकि उसका मानना है कि किसी एक व्यक्ति के महिमागान से अंततः विचारधारा कमजोर पड़ती है. अपने प्रचारक रहे मोदी की सरकार में महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने वीटो का खारिज किया जाना आरएसएस को रास नहीं आया है.

लेकिन भगवत ने आगामी चुनावों में जिस तरह अपना दखल दिया है वह संघ की रणनीति में सूक्ष्म परिवर्तन का संकेत देता है. अपने व्यापक वैचारिक लक्ष्य के लिए राजनीतिक सत्ता की जरूरत को वह दबे-छिपे स्वीकार करता दिख रहा है.


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वैचारिक एजेंडा का विस्तार

वर्तमान संदर्भ में, पश्चिम बंगाल और केरल आरएसएस के वैचारिक एजेंडा के अधूरेपन की कसक को निरंतर उभारते रहे हैं. हिंदुत्व के एक प्रमुख प्रवर्तक और आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर मुसलमानों और ईसाइयों के साथ कम्युनिस्टों को भी भारत के लिए और हिंदू राष्ट्र के अपने विचार के लिए ‘आंतरिक खतरा’ मानते थे.

भाजपा ने त्रिपुरा में वाम दलों का भले खात्मा कर दिया हो; उसका मिशन अभी केरल में अधूरा पड़ा है जहां वाम दलों का दबदबा अभी भी कायम है; और पश्चिम बंगाल में भी वाम दल राजनीतिक रूप से भले हाशिये पर चले गए हों लेकिन वैचारिक ताकत के रूप में अभी भी महत्व रखते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के हाथों में हंसिया और हथौड़ा तथा जबान पर मार्क्स भले न हों, वे किसी वामपंथी से कम नहीं हैं.

भाजपा अगर पश्चिम बंगाल में जीत भी जाती है तो यह कम्युनिस्टों के लिए मौत का पैगाम ही होगा, और इस जीत को संघ तथा भाजपा जनसंघ के एक संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी श्रद्धांजलि के रूप में ही प्रस्तुत करेगी.

केरल संघ के लिए सबसे बड़ी चिढ़ साबित हो सकती है, जहां वह कम्युनिस्टों से 1940 के दशक से लोहा ले रहा है. 1940 और 1950 के दशकों में केरल में गोलवलकर की सभाओं में कम्युनिस्ट लोग ‘हिंसक व्यवधान’ पैदा किया करते थे. अभी हाल में कोझिकोड में भी ऐसा ही हुआ जब भागवत एक पुस्तक का विमोचन करने गए थे. यह पुस्तक केरल में आरएसएस के संघर्ष की कहानी कहती है, जहां उसके और भाजपा के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है.

वैसे, आरएसएस की योजना में असम का बेशक एक विशेष स्थान है. संघ ने उत्तर-पूर्व में आज़ादी से पहले ही पैर जमा लिये थे. सिलचर के सांसद राजदीप रॉय ने पिछले सप्ताह एक बातचीत में बताया कि आरएसएस के प्रचारक राम सिंह किस तरह 1948 में ही असम आए थे, लेकिन राज्य में भाजपा (मूल जनसंघ) को सत्ता हासिल करने में 68 साल लग गए. रॉय के पिता जनसंघ के एक पार्षद थे और फिर दो बार विधायक भी चुने गए थे. नागरिकता (संशोधन) कानून को बनाने में रॉय का भी बड़ा हाथ है क्योंकि उन्होंने अवैध प्रवासियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई तो लड़ी ही, इस कानून की जरूरत के बारे में केंद्रीय नेताओं पर दबाव बनाने के लिए बरक घाटी के भाजपा नेताओं का प्रतिनिधिमंडल लाकर राजनीतिक संघर्ष भी किया.

तमिलनाडु में तो आरएसएस ने पहला कदम 1939 में ही रख दिया था लेकिन वहां वह जड़ नहीं जमा पाया. इसकी वजह यह है कि इस राज्य के राजनीतिक दर्शन और विमर्श पर पेरियार के स्वाभिमान आंदोलन का गहरा प्रभाव है, जिसका मूल आधार ब्राह्मणवाद विरोध था. लेकिन संघ ने कोशिश छोड़ी नहीं है. 2017 में उसने 92 साल के अपने इतिहास में पहली बार अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा राज्य के कोयंबटूर में की.


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मोदी मार्का राजनीति की राह पर

ये ब्योरे बताते हैं कि जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें आरएसएस किस तरह दबाव बना रहा है, लेकिन इस सबके अलावा एक बड़ा मकसद भी जुड़ा है. व्यक्ति केंद्रित राजनीति के प्रति तमाम परहेज के बावजूद संघ को इसके दीर्घकालिक फायदे भी धीरे-धीरे समझ में आने लगे हैं. भाजपा अगर अपनी यह छवि तोड़ना चाहती है कि वह केवल हिंदी पट्टी में सिमटी पार्टी है— हालांकि यह धारणा आज सही नहीं है क्योंकि वह दक्षिणी राज्यों को छोड़ पूरे देश में प्रमुखता हासिल कर चुकी है— तो संघ भी क्यों न उसके साथ-साथ दक्षिण में अपने विस्तार की योजना पर अमल करे? भागवत इसी कोशिश में लगे हैं.

आरएसएस को सत्ता का सूत्र समझ में आ गया है. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौर में सत्ता का उसका पहला स्वाद उसकी इस कोशिश से उजागर हुआ था कि वह अपनी वैचारिक दासी भाजपा पर पकड़ बनाए रखने को बेताब था. लेकिन आज वह अपने प्रचारक रहे मोदी की राजनीतिक पूंजी का लाभ उठाते हुए अपना विस्तार करने की कोशिश में है. आज उसे तमाम दलों से पाला बदल कर भाजपा में शामिल हो रहे ‘बाहरी तत्वों’ से कोई अहंकारी परहेज नहीं है, बशर्ते इससे सत्ता हासिल करने में मदद मिलती हो.

संघ को व्यक्ति केंद्रित राजनीति भी कबूल है, बशर्ते इससे अपने वैचारिक एजेंडा के विस्तार में मदद मिलती हो. वह अपने प्रचारकों को अपनी मनमर्जी सरकार चलाने की छूट भी देने को तैयार है, हालांकि कभी-कभी वह अपनी चलाने की कोशिश करता रहता है, जैसे भारत आर्थिक सहयोग के समझौते ‘आरसीईपी’ से बाहर निकल आया.

बैंकों या बीमा कंपनियों के निजीकरण के विरोध में संघ रस्मी आवाज़ उठाने से ज्यादा कुछ नहीं करेगा, क्योंकि उसके प्रचारकों द्वारा चलाई जा रही सरकार उसके मूल एजेंडा को आगे बढ़ा रही है, जैसे जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण. शिक्षा और संस्कृति के मामलों में यह सरकार संघ की ख़्वाहिशों और आदेशों का पालन कर ही रही है. वाजपेयी के दौर में आरएसएस के संयुक्त महासचिव मदन दस देवी संघ और भाजपा के बीच समन्वय के मुख्य सूत्रधार थे. आज इसके विपरीत दोनों के बीच ऊपर से नीचे तक स्वतः पूरा तालमेल कायम है. भारतीय शिक्षण मंडल के मुकुल कनिटकर शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल का मार्गदर्शन कर रहे हैं, वनवासी कल्याण आश्रम के अतुल जोग ने जनजाति मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा का हाथ थाम लिया है. भागवत साल में चार-पांच बार मोदी से अकेले में मुलाक़ात करते रहते हैं, बेशक मीडिया को इसकी भनक नहीं मिलती.

सो, फिलहाल स्थिति यह है कि आरएसएस के नेताओं में व्यक्ति केंद्रित राजनीति को लेकर जो भी शंका रही हो कि इससे उनका वैचारिक मिशन कमजोर पड़ेगा, तो उस शंका की जगह अब आशावाद प्रबल हो रहा है. आखिर, उसके दो प्रचारकों, वाजपेयी और मोदी में से दूसरे प्रचारक संघ की विचारधारा के कहीं बड़े दूत के रूप में उभरे हैं. इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि संघ भाजपा की लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर अपना विस्तार करने की कोशिश करे. भागवत के दौरों की जो सूची ऊपर दी गई है उसका अर्थ अब तो स्पष्ट हो ही गया होगा.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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