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Sunday, 22 December, 2024
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2020 में रूटीन रैलियों और मार्च पर भरोसा ना करें, मोदी के भारत में विरोध के नए तरीकों की जरूरत

शासक वर्ग देश को बांटने के खुले खेल में लगा है. अब लोगों को ये जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे वे देश को जोड़ने और जोड़े रखने के अभियान में जुटें.

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नववर्ष के संकल्प निहायत निजी होते हैं. उन्हें अमूमन होना भी ऐसा ही चाहिए. लेकिन, इतिहास के इस मोड़ जब हमारा देश इस हद तक विरुप हो चला है कि उसे पहचान पाना मुश्किल हो रहा है. हम अपने निजी से अपने सार्वजनिक को अलगा नहीं सकते. एक ऐसे वक्त में जब सरकार का प्रमुख प्रदर्शनकारियों की पहचान उनके पहिरावे से कर रहा हो, जब पुलिस ने एक समुदाय के खिलाफ जैसे अपने तरफ से मोर्चा ही खोल रखा हो, जब बच्चों को प्रताड़ना दी जा रही हो, जब अध्यात्म- जगत के ‘गुरु’ महाराज सीधे-सीधे झूठ परोसने लगे हों और जब विश्वविद्यालयों के परिसर रह-रहकर नौजवानों के आक्रोश भरे नारे से गूंज रहे हों, तो ऐसे वक्त में हम नववर्ष को ऐसा कोई संकल्प तय नहीं कर सकते, जो हमारे लिए निहायत निजी हो. नारीवादियों के बीच मशहूर नारा कि ‘जो निजी है, वो राजनीतिक है’ आज के वक्त में हम सबके लिए कहीं ज्यादा मौजूं हो उठा है.

हम लोग अपने ‘गणतंत्र’ को बचाने की चल रही लड़ाई के बीचो-बीच खड़े हैं. सीएए-एनआरसी-एनपीआर यानि नागरिकता संशोधन अधिनियम, नेशनल सिटिजन रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर चल रहा विरोध-प्रदर्शन किसी भेदभाव भरे कानून या एक नफरत भरी सरकारी कार्रवाई के खिलाफ चल रहा कोई ताकतवर विरोध-प्रदर्शन भर नहीं.

असम में लोग धर्मों का आपसी भेद भुलाते हुए एक-दूसरे के साथ सड़कों पर बने हुए हैं. उनके दिल में ये जज्बा मचल रहा है कि अपनी पहचान बचानी है, एक समझौते की पवित्रता की रक्षा करनी है और शेष भारत से असम का एक गरिमापूर्ण रिश्ता बहाल रखना है. मुस्लिम समुदाय के लोगों ने समान नागरिकता की मांग करते हुए, दोयम दर्जे की नागरिकता लादने की कवायद के प्रति अपने रोष का इजहार करते हुए और इस चिन्ता के साथ कि ये कवायद कहीं मताधिकार-वापसी का अभियान ना बन जाय, देश के तमाम हिस्सों में एक अप्रत्याशित जन-आंदोलन में हिस्सेदारी की है.

देश के नौजवान, धर्म और क्षेत्र के आपसी भेद को भुलाकर, एक-दूसरे का हाथ थामे अपने विश्वविद्यालयी परिसरों के अन्दर और बाहर इस दावे को एक नारे में तब्दील करते हुए बाहर निकल रहे हैं कि जो लोग इस देश के विभाजित अतीत को एक औजार बनाकर बरत रहे हैं. उनके हाथों इस देश के वर्तमान और भविष्य को बंधक नहीं बनाया जा सकता. हमलोग अपने देश के इतिहास के इस मोड़ पर भारत की आत्मा को बचाने के एक आंदोलन को उभार लेता देख रहे हैं.


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सरकार की सामान्य चालें, लोगों की असामान्य प्रतिक्रिया

प्रतिक्रिया अप्रत्याशित और अभूतपूर्व है और ये प्रतिक्रिया उन हलकों से उभर रही है जहां से अमूमन उभरा नहीं करती. इसे देखते हुए सत्तापक्ष ने एक आजमाये हुए नुस्खे का सहारा लिया है, भरपूर कोशिश हो रही है कि कहानी को किसी फिरकनी की तरह घुमा दिया जाय, कुछ ऐसा घुमाव दिया जाय कि सफेद झूठ एक हद तक जायज जान पड़ने लगे, नफरत के ऊपर ऐसी चाशनी चढ़ायी जाय कि वो नुकसाददेह ना जान पड़े, दुष्प्रचार की पूरी मशीनरी लगाकर लोगों का जेहन बदल दिया जाय और मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करते हुए विरोध-प्रदर्शनों के स्वभाव को ढंकते हुए लोगों के दिलो-दिमाग में वो बात डाली जाय जो सरकार बताना-जताना चाहती है. इंदिरा गांधी ने भी इमर्जेंसी के दौर में ऐसी ही चालबाजी का सहारा लिया था.

समाचारों को अपने हक में करने के अलावा सत्तापक्ष क्रूर दमन और उत्पीड़न का भी सहारा ले रहा है. बीजेपी शासित ज्यादातर राज्यों में इन मुद्दों (सीएए-एनआरसी-एनपीआर) पर होने वाले किसी भी शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक मिजाज वाले प्रदर्शन या जमावड़े पर कारगर रोक लगा दी गई है और, जब कभी विरोध-प्रदर्शनों की इजाजत मिल रही है तो विधि-व्यवस्था को बहाल रखने की जिम्मेदार एजेंसियों की नजर उपद्रवियों को ढूंढ़ निकालने पर लगी रह रही है. अत्यधिक बल-प्रयोग इन विरोध-प्रदर्शनों से निबटने का आम तरीका बन चला है. तुलना करें कि हरियाणा में जब जाट-आंदोलन और महाराष्ट्र में जब मराठा आंदोलन हुआ तो पुलिस ने क्या रवैया अपनाया था. इसके बरक्स अगर उत्तर प्रदेश को देखें तो जान पड़ेगा कि वहां भय का राज कायम है. यूपी के कई शहरों में पुलिस ने जो रवैया अख्तियार कर रखा है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि वहां पुलिस ने एक तरह से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जंग छेड़ रखी है.

भारत नाम के विचार को गढ़ने वाला बुनियाद सिद्धांत है: लोकतंत्र, विविधता एवं विकास और इतिहास के इस मोड़ पर इन तीनों ही बुनियादी सिद्धांतों के सामने चुनौती आन खड़ी है. अर्थव्यवस्था के आगे गंभीर चुनौती है, उसके पाये संभवतया डगमगाने लगे हैं. अर्थव्यवस्था की सुस्ती अब मंदी का रुप लेती जान पड़ रही है, बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ती जा रही है और खेतिहर संकट बदस्तूर कायम है. लेकिन समाधान की बात तो जाने दें, सरकार की तरफ से ऐसा कोई इशारा भी नहीं जो जान पड़े कि वो इस संकट का कम से कम संज्ञान ले रही है और, यही वजह है जो देश को बड़े भावनात्मक और ताकतवर मुद्दों जैसे अनुच्छेद 370, अयोध्या, सीएए, समान नागरिक संहिता तथा धर्म परिवर्तन-निरोधी कानून के जरिए भटकाने की कोशिश की जा रही है. देश को लंबे समय तक इन कदमों की भारी चुकानी होगी. हां, सत्तापक्ष ने इन कदमों के जरिए बेशक थोड़ी देर के लिए लोकप्रियता हासिल कर ली है. सत्तापक्ष ने देश को वास्तविक मसले से भटकाने के लिए जो मुद्दे उछाले हैं. उनको साकार करने के दिशा में सबसे बड़ी बाधा है. लोकतांत्रिक अधिकारों और सांस्थानिक ढांचे की मौजूदगी. इसी कारण, लोकतांत्रिक संस्थाओं, रीति-नीति और प्रक्रियाओं की सरेआम धज्जी उड़ायी जा रही है और राजकीय दमन का सहारा लिया जा रहा है.


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भारत को जोड़ने का आंदोलन

इस लड़ाई का नतीजा क्या होगा, यह सोच पाना अभी के वक्त में मुश्किल है. साल 2019 में जो जन-आंदोलन उभार लेता दिखा, हो सकता है वो हमारे गणतंत्र का मुहाफिज साबित हो. लेकिन, दूसरी तरफ ये भी नजर आ रहा है कि सत्तापक्ष विरोध-प्रदर्शनों से बड़ी उम्मीद लगाये बैठा है, उसे लग रहा है कि इसके सहारे देश को हिन्दू-मुस्लिम की लकीर पर आगे और गोलबंद किया जा सकता है. सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अगले कुछ हफ्तों में चीजें क्या शक्ल अख्तियार करती हैं. लेकिन एक बात स्पष्ट है. शासक वर्ग देश को बांटने के खुले खेल में लगा है. अब लोगों को ये जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे वे देश को जोड़ने और जोड़े रखने के अभियान में जुटें.

नये साल का मेरा संकल्प है : ‘वो तोड़ेंगे, हम जोड़ेंगे.’

सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन को राष्ट्रीय एकता के एक अखिल भारतीय आंदोलन में बदलना चाहिए- इसे भारत-जनान्दोलन का रुप लेना चाहिए. देश को बांटने पर आमदा चालबाजियों का विरोध करना निहायत जरुरी है. लेकिन विरोध और संघर्ष के साथ हमारे एक धर्म रचना का भी बनता है. विरोध के साथ ही साथ सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक और रचनात्मक काम होने चाहिए. दुष्प्रचार किया जा रहा है कि विरोध-प्रदर्शन नहीं हो रहा है बल्कि एक भीड़ है जो हिंसा पर उतारु हो उठी है. ऐसी दुष्प्रचार की काट के लिए अहिंसा का गांधीवादी मंत्र अपनाना होगा. इन विरोधों का राजनीतिक दुरुपयोग ना हो जाय- ये आशंका बरकरार है. इस आशंका से बचने के लिए आंदोलन को अपना निस्वार्थ चरित्र बरकरार रखना होगा. देश की एकता और अखंडता को पहुंची चोट और घाव को भरने के इस आंदोलन का प्रतीक सिर्फ तिरंगा और देश का संविधान बने!

जनवरी के महीने में राष्ट्रीय एकता के इस संदेश को सुनाने के कई मौके हैं : 3 जनवरी का दिन महिलाएं और बहुजन संगठन सावित्री बाई फुले जयंती के रुप में मनाते हैं; 12 जनवरी को विवेकानंद की जयंती राष्ट्रीय युवा दिवस के रुप में मनायी जाती है ; 17 जनवरी को रोहित वेमुला की पुण्यतिथि है तो 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती. फिर, गांधी की शहादत का दिन 30 जनवरी है. यह आंदोलन राष्ट्रीय एकता की कई रचनात्मक अभिव्यक्तियां देख चुका. बड़े पैमाने की रैली और मार्च किसी ज्वार की तरह होते हैं, इन्हें बहुत देर तक थामा नहीं जा सकता है. इसलिए, रैली और मार्च सरीखे परंपरागत तरीके को अपनाने की जगह अब विरोध-प्रदर्शन के नये तरीके ढूंढ़ने होंगे.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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