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Wednesday, 3 September, 2025
होममत-विमतभारत में सड़क बनाना पैसे कमाने का काम बन गया है और दिक्कत यह है कि हम जल्दी ही इसे भूल जाते हैं

भारत में सड़क बनाना पैसे कमाने का काम बन गया है और दिक्कत यह है कि हम जल्दी ही इसे भूल जाते हैं

बारिश जब हमारी ज़िंदगी बिगाड़ देती है और शहरों को ठप कर देती है तो हम बहुत गुस्सा होते हैं, लेकिन चुनाव आते-आते हम भूल जाते हैं कि हम कितने नाराज़ थे.

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भारत में शहरी शासन (अर्बन गवर्नेंस) की नाकामी का सबसे बड़ा प्रतीक यही है कि हमारे सबसे समृद्ध शहर—जिन्हें आधुनिक भारत की झलक माना जाता है—हर मानसून में डूब जाते हैं और पानी में थम जाते हैं: अक्सर साल में एक से ज़्यादा बार.

इन दिनों हम गुरुग्राम की बाढ़ पर ध्यान दे रहे हैं, जो आसानी से भारत का सबसे खराब तरीके से संचालित शहरी क्षेत्र है, लेकिन यही समस्या लगभग हर बड़े भारतीय शहर में दिखती है.

मुझसे पूछिए. मैं 2005 में मुंबई की बारिश में बाढ़ग्रस्त सड़कों पर लगभग डूब ही गया था.

और यह एक तथाकथित पॉश इलाके में हुआ. जब बारिश शुरू हुई तो मैं दफ्तर से निकला, लेकिन पानी बढ़ता गया और सड़कें डूबने लगीं. मैंने अपनी कार छोड़ दी और पैदल चलने लगा. मैं एयरपोर्ट हाईवे से अपने होटल, बांद्रा-कुर्ला के ग्रैंड हयात तक गया. हालत यह हो गई कि पानी मेरे कानों तक पहुंच गया था और मुझे सिर पीछे झुकाकर सिर्फ नाक के ज़रिए सांस लेनी पड़ रही थी.

खुशकिस्मती से, मैं अपने होटल तक पहुंच गया, पानी की गहराई लगभग मेरी आंखों तक पहुंचने ही वाली थी. अगर मैं पंद्रह मिनट और चलता, तो शायद आज यह कॉलम लिखने के लिए ज़िंदा न होता.

उस दिन बारिश में चार सौ से ज़्यादा लोग मारे गए. कारें छोड़ दी गईं और बह गईं. घर तबाह हो गए. एयरपोर्ट झील बन गया और बंद हो गया और उड़ानों को पूरी तरह शुरू होने में कई दिन लगे. मैं भी अपने होटल के कमरे में दो दिन फंसा रहा जब तक पानी नहीं उतरा.

मुझे वह दिन आज भी साफ याद है, सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं ज़िंदा बच निकला, बल्कि इसलिए भी कि उस अनुभव और उसके बाद के हालात ने मुझे कई चीज़ें साफ तौर पर समझा दीं.

जलवायु परिवर्तन की सच्चाई

सबसे पहली बात यह है कि शहरी बाढ़ एक बड़ा बराबरी करने वाला साबित हो सकती है. हर साल अखबारों में मानसून के दौरान बाढ़ और भूस्खलन की खबरें छपती हैं. संपत्तियां तबाह हो जाती हैं. लोगों की जान चली जाती है, लेकिन चूंकि यह आमतौर पर गरीब लोगों और उनके घरों के साथ होता है, इसलिए मिडिल क्लास सिर्फ अफसोस जताता है और फिर अखबार का पन्ना पलटकर दूसरी खबर पढ़ने लगता है.

लेकिन उस दिन मुंबई में बाढ़ की भयावहता ने साफ कर दिया कि हालात बदल रहे थे. फर्क नहीं पड़ता कि आप अमीर हैं या गरीब. बारिश की तीव्रता और हमारी बुनियादी ढांचे की बदहाली ने यह दिखा दिया कि कोई भी सुरक्षित नहीं था.

दूसरी बात यह साफ हुई कि मौसम और निर्दयी होता जा रहा था. बीस साल पहले जलवायु परिवर्तन उतना चर्चित शब्द नहीं था जितना आज है, लेकिन मुंबई की उस घटना के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि मौसम का मिज़ाज बदल रहा है और सरकारों को अब बाढ़ जैसी आपदाओं के लिए तैयार होना सीखना पड़ेगा.

बेशक, कुछ नहीं हुआ: किसी सरकार ने बारिश से निपटने की कोई ठोस तैयारी नहीं की. उल्टा, वे भारी बारिश को हर साल बहाने की तरह इस्तेमाल करने लगे: “इतनी बारिश कुछ घंटों में हो जाए तो सरकार क्या कर सकती है?”

तीसरी बात यह समझ आई कि बाढ़ की असली वजहें अक्सर वो शहरी अपराध होती हैं जो नेता महीनों (या सालों) पहले कर चुके होते हैं. मुंबई में हमने पाया कि जब नया एयरपोर्ट टर्मिनल बना, तब सरकार ने निर्माण आसान करने के लिए मीठी नदी का रास्ता बदल दिया. नदी के आसपास की मैंग्रोव झाड़ियां, जो प्राकृतिक ढाल का काम करती थीं, उखाड़ दी गईं.

मीठी नदी अपने आप में बहुत बड़ी नदी नहीं है. साल भर इसके कई हिस्सों में कम ही पानी बहता है, लेकिन मानसून में यह पूरी नदी जैसी लगती है और उस दिन, जब बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी, तो नदी ने सिर्फ अपने किनारे नहीं तोड़े, बल्कि अपना पुराना रास्ता भी तलाश लिया.

इसलिए समस्या सिर्फ जलभराव की नहीं थी. असली समस्या यह थी कि लापरवाही से मोड़ी गई नदी ने शहर को डुबो दिया.

मीठी नदी सिर्फ एक उदाहरण है. लगभग हर शहर में, जहां बाढ़ आती है, वहां आपको यही मिलेगा—नेताओं ने पानी के बहाव वाले इलाकों में निर्माण की अनुमति दी, पेड़ों को काट डाला, नालों पर कब्ज़ा करने दिया और पानी की निकासी रोक दी.

राजनीतिक लालच सीधा बाढ़ का कारण बनता है.


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गलती किसकी?

चौथा कारण है—राजनीतिक उदासीनता और प्रशासनिक लापरवाही. हर शहर में नालियां होती हैं जिनका काम है पानी को बाहर निकालना. हर साल बरसात से पहले नेता हमें बताते हैं कि ‘नालों की सफाई का काम शुरू हो चुका है’, लेकिन असल में यह काम बहुत ही ढीले-ढाले और आधे-अधूरे तरीके से किया जाता है. नगर निगम के अफसर जानते हैं कि कोई उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएगा, इसलिए उन्हें परवाह ही नहीं होती. जिन इलाकों को कागज़ों में साफ दिखा दिया जाता है, वही बरसात में डूब जाते हैं. क्या आपने कभी सुना है कि किसी अफसर को पानी भरने की जिम्मेदारी पर बर्खास्त किया गया हो?

यह सिर्फ नालियों की बात नहीं है. हमारे शहरों की लगभग हर बड़ी सड़क पर बड़े-बड़े गड्ढे मिल जाएंगे. बरसात में ये गड्ढे पानी से भर जाते हैं और सड़क का इस्तेमाल करना मुश्किल हो जाता है. नतीजा यह होता है कि गाड़ियां छोटी-सी जगह से गुजरती हैं और घंटों जाम लग जाता है. गड्ढे भरना नगर निगम की जिम्मेदारी है, चाहे बरसात हो या न हो, लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि खराब सड़कों के लिए किसी अफसर पर कार्रवाई हुई हो?

फिर क्यों सिर्फ छोटे अफसरों को दोष दें, जब नए बने हाईवे कुछ ही समय में टूट जाते हैं, नए बने टनल पानी से भर जाते हैं और बड़ी-बड़ी पुलियां घटिया काम की वजह से खराब हो जाती हैं? साफ है कि देश में सड़क निर्माण एक ऐसा धंधा बन गया है, जहां ठेकेदार और नेता मिलकर जनता की जेब से मोटी कमाई करते हैं.

और आखिर में आता है सबसे अहम कारण—मतदाताओं की उदासीनता और उनकी छोटी याददाश्त.

हम बारिश से परेशान होकर गुस्से में चीखते-चिल्लाते हैं, लेकिन चुनाव तक आते-आते सब भूल जाते हैं. शायद ही कभी शहरों की ये नाकामियां, भ्रष्टाचार और नेताओं की अयोग्यता चुनावी नतीजों को प्रभावित करती हों. हम फिर जाति, धर्म या किसी बड़े राष्ट्रीय मुद्दे को वोट का आधार बना देते हैं. शासन-प्रशासन हमारे लिए मायने ही नहीं रखता.

नेता इस बात को अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए जब हम गुस्से में शोर मचाते हैं, तो वे मन ही मन हंसते हैं और अपनी गिनती करते रहते हैं.

पहले के ज़माने में नेता कम-से-कम औपचारिक माफी तो मांग लेते थे. अब तो वह भी नहीं करते. बस दो दिन स्कूल बंद करने का ऐलान कर देते हैं या हमें ‘घर से काम’ करने की सलाह दे देते हैं.

और हम भी उन्हें ऐसे ही निकल जाने देते हैं. तो सिर्फ नेताओं को मत दोष दीजिए. हमें खुद से पूछना चाहिए कि हम उनसे ज्यादा जवाबदेही क्यों नहीं मांगते.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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