बिहार जबकि इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस रहा है, विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने मंगनीलाल मंडल को अपना नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है. पहली बार उसने किसी अतिपिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के नेता को इस पद पर बिठाया है. ईबीसी में 113 जातियां आती हैं और उनकी कुल आबादी राज्य की कुल आबादी की 36 फीसदी है.
ईबीसी अब तक राजद के प्रति उदासीनता तो जदयू की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित करता रहा है. जदयू ने भाजपा के साथ गठबंधन किया है, जिसने दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतते ही बिहार में अपनी चुनावी मशीनरी को सक्रिय कर दिया था. अब सवाल यह उठता है कि मंडल को नियुक्त करके क्या राजद ईबीसी को रिझाने में सफल हो पाएगा?
राजद और जदयू के चुनावी उम्मीदवारों के चयन और 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीते उनके उम्मीदवारों के जातिगत विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसे समुदायों को अपने पक्ष में करने के लिए राजद को ऐसी राजनीतिक नियुक्तियों से आगे बढ़कर काफी कुछ करना पड़ेगा. उसे ईबीसी को सशक्त बनाने के लिए विशेष नीतियों पर ज़ोर देने की भी जरूरत है. वरना ईबीसी के संदेहों को दूर करना बहुत मुश्किल होगा.
2020 के चुनाव में राजद से ईबीसी का दूरी
बिहार जाति आधारित राजनीतिक मोरचाबंदी के लिए बहुचर्चित रहा है. उम्मीदवारों की जातीय पृष्ठभूमि इस बात का अहम संकेत देती है कि पार्टियां किस तरह के सामाजिक गठजोड़ बनाती हैं. यह हमें यह समझने में भी मदद करती है कि कौन-सी जाति किस पार्टी का समर्थन करती है?
आईए, हम देखें कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू ने किन-किन जातियों के उम्मीदवार खड़े किए और उनमें से किस-किस जाति के उम्मीदवार जीते. यह विश्लेषण 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू के उम्मीदवारों और विजयी प्रतिनिधियों के जातीय संयोजन का विश्लेषण उम्मीदवारों के बारे में मीडिया रिपोर्टों में आईं जानकारियों के आधार पर किया गया है.
नीचे दिया गया ग्राफ दिखाता है कि राजद के उम्मीदवारों में सबसे बड़ी संख्या (58) यादव जाति के उम्मीदवारों की थी. उनके बाद केवल तीन दूसरे समूहों के उम्मीदवारों की संख्या दहाई अंकों में थी. ये समूह थे: ईबीसी (19), अनुसूचित जातियां (19), और मुस्लिम (18). कुल मिलाकर देखा जाए तो राजद ने मुख्यतः पारंपरिक ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर ही ज़ोर दिया. इसके बाद ईबीसी को अपने खेमे लाने की कोशिश की, लेकिन उसके ईबीसी उम्मीदवार बुरी तरह मात खा गए, 19 में से केवल चार जीते थे.
इसके विपरीत, जदयू के ईबीसी उम्मीदवारों ने जोरदार प्रदर्शन किया था. उसके 17 में से 12 ईबीसी उम्मीदवार चुनाव जीत गए थे. पार्टी ने टिकट बांटने में भी किसी एक ही समूह पर सारा ध्यान नहीं केंद्रित किया था. उसने सात सामाजिक समूहों में से हरेक से कम-से-कम दस उम्मीदवारों को टिकट दिए : यादव (18), ईबीसी (17), एससी (16), कुर्मी (15), कुशवाहा (15), मुस्लिम (11), और भूमिहार (10). गौरतलब है की जदयू ने भी सबसे ज्यादा संख्या में यादव उम्मीदवार खड़े किए.
उम्मीदवारों की यह सूची संदेश देती है कि जेडीयू किसी एक सामाजिक समूह को वैध प्रतिनिधित्व देने के खिलाफ नहीं है. इस मामले में राजद का रुख साफ नहीं दिखता है, क्योंकि उसने जदयू का आधार मानी गई कुर्मी जाति से केवल एक उम्मीदवार खड़ा किया. जबकि जेडीयू ने 18 उम्मीदवार यादव जाति से दिए थे.
उपरोक्त तुलनात्मक विश्लेषण यही जाहिर करता है कि ईबीसी ने राजद से कुल मिलाकर किनारा ही किया. उसने इस समूह से बड़ी संख्या में उम्मीदवार खड़े किए इसके बावजूद उसके 19 ईबीसी उम्मीदवारों में से केवल चार जीते, जबकि जदयू से उसके 17 में से 12 जीते.
राजद की अधूरी रणनीति
कहा जाता है कि नीतीश कुमार ने महिलाओं, एमबीसी, और महादलितों में अपना आधार बना लिया है, और ये सामाजिक समूह धीरे-धीरे जदयू का मजबूत आधार बन गए. किसी राजनीतिक दल का सामाजिक आधार तोड़ने के लिए प्रतिद्वंद्वी पार्टी दो रणनीति अपनाती है: टिकट बंटवारा, और नीतिगत बदलाव.
टिकट बंटवारे की नीति के तहत पार्टियां उन जातियों तथा समुदायों से अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं, जिनका वोट लेने की कोशिस करती है. नीतिगत बदलाव भी उन जातियों और समुदायों को लाभ पहुंचाने के लिए किए जाते हैं. राजद ने पहली रणनीति को अपनाया और 2020 के चुनाव में बड़ी संख्या में ईबीसी उम्मीदवारों को खड़ा किया. वैसे यह भी कहा जा सकता है कि राजद ने 10 लाख सरकारी नौकरियों में भर्ती का वादा करके दूसरी रणनीति को भी आजमाया जिससे ईबीसी को भी फायदा मिलता. फिर भी ईबीसी ने इन वायदों पर भरोसा क्यों नहीं किया?
इस सवाल का एक जवाब तो यह हो सकता है कि ईबीसी में शिक्षा का स्तर नीचा है और उनमें इतनी योग्यता नहीं है कि वे आरक्षण की नीति का लाभ उठा सकें. उत्तर भारत के सभी राज्यों में ईबीसी ने ओबीसी के कोटे में उप-वर्ग बनाने की मांग की है. उनका कहना है कि वे राजनीतिक रूप से दबंग यादवों और कुरमियों जैसे ओबीसी समूहों का मुक़ाबला करने में सक्षम नहीं हैं. बीजेपी ने इस मांग की जांच के लिए जस्टिस रोहिणी कमिटी का गठन किया. इसके साथ ही, नरेंद्र मोदी की सरकार ने जो जनकल्याण कार्यक्रम शुरू किए उनका लाभ भी इन समूहों को मिला.
भाजपा के साथ गठबंधन से जदयू को इन दोनों रणनीतियों (टिकट बंटवारा और नीतिगत पहल) का लाभ मिला, जबकि राजद जैसे विपक्षी दल पहली रणनीति से ही चिपके रहे हैं. इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि ईबीसी राजद के प्रति उदासीन क्यों रहा है.
आगामी चुनाव में, राजद के तेजस्वी यादव आरक्षण की सीमा बढ़ाने और सरकारी नौकरियों के लिए. अधिवास नीति (डोमिसाइल पॉलिसी) लागू करने के वादे कर रहे हैं, लेकिन इनमें से किसी नीति का विशेष ज़ोर ईबीसी की शिकायतों के समाधान पर नहीं दिखता है. जब तक पार्टी इनका समाधान नहीं करती तब तक ईबीसी की उदासीनता को खत्म करना टेढ़ी खीर बनी रहेगी.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राजद ने पिछले चुनाव में अपने ‘माय’ आधार में ईबीसी को जोड़ कर अपना सामाजिक आधार फैलाने की जो कोशिश की थी वह उत्साहवर्द्धक नतीजे नहीं दे सकी. इन समुदायों को अपने पक्ष में लाने के लिए टिकट बंटवारे की रणनीति पर भरोसा करना कारगर नहीं रहा.
अतः पार्टी को अब उम्मीदवारों के चयन से आगे बढ़कर किसी नए उपाय के बारे में सोचने की जरूरत है. इन समूहों के लिए विशेष जनकल्याण कार्यक्रम एक विकल्प हो सकता है. वरना उसे 2020 की पुनरावृत्ति का ही सामना करना पड़ सकता है.