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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतऋषि सुनक से प्रीति पटेल तक PM पद की रेस ब्रिटिश लोकतंत्र की मजबूती दिखाती है, भारत उसके करीब भी नहीं

ऋषि सुनक से प्रीति पटेल तक PM पद की रेस ब्रिटिश लोकतंत्र की मजबूती दिखाती है, भारत उसके करीब भी नहीं

ब्रिटेन में प्रधानमंत्री पद की होड़ दर्शाती है कि अवसर की समानता हो तो राजनीति के मैदान में सभी दक्षिण एशियाई और खासकर भारतीय शिखर को छू सकते हैं लेकिन यह वास्तविकता से काफी दूर है.

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ब्रिटेन में सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी के मुस्लिम सांसदों की संख्या भारत की सत्ताधारी पार्टी भाजपा के मुस्लिम सांसदों से कहीं ज्यादा बड़ी है. कंजर्वेटिव पार्टी के मुस्लिम सांसदों में कई तो दक्षिण एशियाई मूल के हैं. यह हमारी सत्ताधारी पार्टी और ब्रिटेन की सत्ताधारी पार्टी में अंतर को और तीखा करता है.

मुझे इसका खयाल तब तक नहीं आया था जब तक बोरिस जॉनसन को प्रधानमंत्री पद से जबरन इस्तीफा नहीं लिया गया और उनका उत्तराधिकारी बनने की दौड़ शुरू नहीं हुई. दावेदारों में अश्वेतों की संख्या देखकर मैं यह आश्चर्य करने लगा कि ब्रिटेन का समाज बहुलतावादी तो नहीं हो गया, जिसमें अल्पसंख्यकों को भी सत्ता में भागीदारी दी जाती है? या, भारत ऐसा बहुलतावादी समाज है, जिसमें अल्पसंख्यकों को सत्ता से दूर रखा जाता है?

मेरा खयाल है, दोनों बातें सही हैं. जरा सोचिए, अमेरिका की कांग्रेस में भी डेमोक्रेटिक पार्टी के मुस्लिम सदस्यों की संख्या अपने यहां की भाजपा के मुस्लिम सांसदों की संख्या से ज्यादा हो सकती है (जबकि अमेरिका की आबादी में मुस्लिमों की आबादी का जो अनुपात है वह भारत की आबादी में मुस्लिमों की आबादी के अनुपात से काफी कम है). यानी, भारत का समाज इस बात की शानदार मिसाल नहीं है, जिसमें केंद्रीय सत्ता में अल्पसंख्यकों को भागीदारी दी जाती है.


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ब्रिटेन में बहुरंगी उम्मीदवार

जो भी हो, ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी में, खासकर शीर्ष नेतृत्व में विविधता आश्चर्य में डालती है. ‘दि न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने ब्रिटेन में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बारे में कुछ दिनों पहले लिखा— ‘उनमें छह ऐसे हैं जिनके हाल के पूर्वज यूरोप से बहुत दूर भारत, इराक, केन्या, मॉरीशस, नाइजीरिया, और पाकिस्तान से आए थे. श्वेतों में एक ने तो चीनी महिला से शादी की है जबकि दूसरे के पास फ्रेंच पासपोर्ट है.’

‘दि न्यूयॉर्क टाइम्स’ की इस टिप्पणी के बाद दौड़ अब संकरी होने लगी है (और यह और संकरी होगी क्योंकि आगामी सप्ताहों में कुछ और दावेदार इससे अलग हो जाएंगे) और दो प्रमुख एशियाइयों ने किनारा कर लिया है. उनमें एक हैं प्रीति पटेल, जो गुजराती हैं और होम सेक्रेटरी हैं; दूसरे हैं साजिद जाविद, जो हेल्थ सेक्रेटरी हैं और पाकिस्तानी पंजाबी मूल के हैं.

कुछ उम्मीदवार तो विश्व विख्यात हैं. हम सबने ऋषि सुनक का नाम सुना है, जो सरकारी खजाने के पूर्व चांसलर (हमारे वित्त मंत्री के बराबर) हैं. लेकिन एशियाई मूल के कई और हैं जिनका नाम भारत में नहीं सुना गया होगा. सुएल्ला ब्रेवरमैन के पिता गोवा के थे और माता तमिल थीं. वर्तमान कंजर्वेटिव सांसद रहमान चिश्ती पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में जन्मे थे.

केवल दक्षिण एशियाई मूल वाले ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं. कई ऐसे भी हैं जो अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि के हैं. पूर्व मंत्री केमी बेडेनोश नाइजीरियाई मूल के हैं. सुनक के बाद चांसलर बने नाधीम जहावी 11 साल की उम्र में सद्दाम हुसैन के इराक़ से शरणार्थी बनकर ब्रिटेन आए थे.

अब तक तो दक्षिण एशियाई मूल वाले दावेदार ही सबसे ज्यादा चर्चा में रहे हैं, और इसकी वजह भी आसानी से समझ में आती है. सुनक, प्रीति, जाविद बोरिस जॉनसन मंत्रिमंडल के सबसे अहम सदस्य माने जाते थे. पूरी संभावना यही है कि सुनक ही गद्दीनशीन होंगे. (यह तो शुरुआती दौर है, और आगे यह दौड़ तब अलग ही रंग ले सकती है जब काउंटी के कंजर्वेटिव पार्टी सदस्यों के विचारों का खयाल रखा जाएगा).

भारत और ब्रिटेन के शासक दलों में तो साफ अंतर है ही, लेकिन इस दौड़ का बहुरंगी स्वरूप क्या कहता है? दो बातें साफ नज़र आती हैं.

समझदार लोकतंत्र की पहचान

हम बाहर वाले जो सोचें (खासकर ब्रेक्सिट के बाद), तथ्य यह है कि ब्रिटेन ज्यादा समावेशी, कम नस्लवादी और अपने यहां के अल्पसंख्यकों को सत्ता में भागीदारी देने को ज्यादा राजी होता गया है. कई देशों, जिनमें दक्षिण एशियाई मूल के लोग सत्ता में भागीदारी कर रहे हैं (मसलन कनाडा), वहां उन्हें स्थानीय वोट दिलवाने की क्षमता के कारण मूल्यवान माना जाता है. ब्रिटेन में इसे बहुत महत्व नहीं दिया जाता. किसी ने सुनक को इसलिए नहीं आगे बढ़ाया कि पंजाबी मतदाता कंजर्वेटिव पार्टी को इसलिए वोट देंगे क्योंकि उनके एक सदस्य को मंत्री बनाया गया. इसी तरह, जरूरी नहीं कि प्रीति पटेल को हर जगह गुजरातियों की चहेती माना जाता हो.

राजनेताओं को जब उनकी जातीय पहचान के लिए नहीं बल्कि क्षमता के लिए महत्व दिया जाता है तब यह समझदार लोकतंत्र का परिचय देता है. भारत में नियुक्तियां अक्सर केवल योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि समुदायों को खुश करने या दिखावा करने के लिए की जाती हैं. अल्पसंख्यक को कहीं मंत्री बना दो, या उप-राष्ट्रपति बना दो.

सुनक जैसे लोगों का उत्कर्ष यह बताता है कि माहौल कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो, दक्षिण एशियाई लोग कामयाबी हासिल कर ही लेते हैं. सुनक और प्रीति के परिवार सीधे भारत से ब्रिटेन नहीं आए थे. वे पूर्वी अफ्रीका से होकर वहां आए थे. कम ही दक्षिण एशियाइयों ने अपने मन से अफ्रीका को छोड़ा. उन्हें आम तौर पर यही जताया गया कि उनका वहां स्वागत नहीं है, या उन्हें बाहर निकाल दिया गया (मसलन, 1972 में ईदी अमीन ने यूगांडा से उन्हें भगा दिया). उनमें से अधिकतर तो खाली हाथ ही ब्रिटेन आ गए.

अपने प्रचार वीडियो में सुनक बताते हैं कि किस तरह उनकी दादी ब्रिटेन आईं और पैसे बचाकर अपने परिवार को वहां लाया. आने वालों में उनकी मां थीं जो 15 साल की उम्र में आईं और पढ़ाई करके फार्मासिस्ट बनीं. उन्होंने सुनक के डॉक्टर पिता से शादी की, दोनों ने भारतीय माता-पिता की तरह बचत करके सुनक को अच्छे स्कूल में पढ़ाया.

इसी तरह, प्रीति पटेल के अभिभावक कंपाला (यूगांडा) में सुविधा स्टोर चलाते थे. ब्रिटेन आकर वे अखबार एजेंट की दुकान चलाने लगे. प्रीति सरकारी स्कूल में पढ़ीं. वे सुनक की तरह ऑक्सफोर्ड में तो नहीं पढ़ीं मगर मेहनत करके एक कामयाब नेता बन गईं. साजिद जाविद (लंदन के मेयर सादिक़ खान की तरह) एक पंजाबी बस ड्राइवर के बेटे हैं, जो 1960 के दशक में ब्रिटेन आ गए थे. वहां आने के एक दशक बाद भी उनकी मां अंग्रेजी नहीं बोल पाती थीं. फिर भी जाविद वहां के सबसे ऊंचे पदों में से एक पर विराजे.

जब हम विदेश में भारतीयों की सफलता की कहानियां सुनाते हैं तब प्रायः व्यवसायियों या तकनीक विशेषज्ञों के उदाहरण देते हैं. ब्रिटेन की कहानियां बताती हैं कि अवसर की समानता मिले तो दक्षिण एशियाई और खासकर भारतीय लोग राजनीति में भी शानदार कामयाबी हासिल कर सकते हैं.

घर के जहीनों को पहचानें

इससे हम भारतीयों के लिए सबक जाहिर है— हम समाज को ज्यादा समावेशी बनाएं. किसी को उसके धर्म या जाति या स्थान के आधार पर न आंकें. व्यक्तियों को उनकी योग्यता के आधार पर आंकें और सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराएं.

आज के भारत की एक त्रासदी यह है कि जब राजनीति की बात आती है तब हम लोगों को वैसे अवसर नहीं उपलब्ध करा पाते जिनके वे हकदार होते हैं. राजनीति में कोई मुकाम हासिल करने के लिए जरूरी है कि आप सही परिवार में जन्मे हों, या आप क्षेत्र, धर्म या जाति की पहचान वाली राजनीति करें.

ब्रिटेन का अनुभव बताता है कि हमारा लोकतंत्र इसलिए हारता है क्योंकि भारतीय राजनीति हमारे लोगों की स्वाभाविक जेहनियत को प्रोत्साहन तो क्या, मान्यता देने से भी इनकार करती है. अगर सुनक का परिवार अफ्रीका से ब्रिटेन की जगह भारत आया होता तो उन्हें यहां सबसे ऊंचा कौन-सा पद मिला होता? शायद मुख्य आर्थिक सलाहकार का. इसके विपरीत, ब्रिटेन में वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं.

विदेश में भारतीय लोग जिन क्षेत्रों में बेहतर कर रहे हैं उनमें अब हम राजनीति को भी जोड़ सकते हैं.

विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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