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बुधवार, 18 जून, 2025
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शिक्षा से बदला, झुग्गियों से सज़ा: क्या यही है नई दिल्ली की राजनीति?

तीन महीनों में शिक्षा योजनाओं को रोका गया, हज़ारों झुग्गियां तोड़ी गईं, भाजपा सरकार में जनकल्याण की जगह AAP से बदले की भावना हावी दिख रही है.

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिली अप्रत्याशित हार के बाद कई विशेषज्ञों ने उम्मीद जताई थी कि अब राजधानी में नीति-गतिरोध (policy paralysis) खत्म होगा और विकास को नई रफ्तार मिलेगी, लेकिन नई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत सरकार ने तीन महीनों में जो कदम उठाए हैं, उन्होंने पिछले 12 साल की उपलब्धियों को ही खतरे में डाल दिया है.

दिल्ली चुनावों की प्रक्रिया के बीच भारतीय जनता पार्टी ने शिक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव और ‘जहां झुग्गी, वहां मकान’ जैसे बड़े दावे किए थे. यहां तक कहा गया कि आम आदमी पार्टी ने शिक्षा और गरीबों के लिए कुछ नहीं किया, पर महज़ तीन महीने में मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की सरकार ने शिक्षा व्यवस्था को पुराने ढर्रे पर ले जाने की तैयारी कर ली.

सत्ता में आने के बाद, पहला ही बजट शिक्षा के प्रति सरकार की प्राथमिकता को उजागर कर गया — जहां शिक्षा पर खर्च पहले 25% होता था, वह अब घटकर 19% रह गया.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहे गए हैप्पीनेस और देशभक्ति करिकुलम को बंद कर दिया गया. एंटरप्रेन्योरशिप करिकुलम और बिजनेस ब्लास्टर जैसी योजनाएं, जो बच्चों में नया आत्मविश्वास भर रही थीं, उन्हें भी खत्म कर दिया गया.

स्टूडेंट्स में लर्निंग गैप को कम करने के वास्ते शुरू किए गए मिशन बुनियाद, दिल्ली बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन और हाल ही में किराड़ी और सुंदर नगरी में बने अत्याधुनिक स्कूल, जिनमें 10,500 से अधिक बच्चे पढ़ रहे थे, ठप पड़े हैं.

बोर्ड के नतीजे आने के बाद कई हफ्तों तक बच्चों से मुलाकात नहीं की गई, न ही सरकारी स्कूलों की रिपोर्ट जारी की गई. प्राइवेट स्कूलों ने फीस बढ़ा दी और एक मामले में तो फीस न जमा करने पर बच्चों को लाइब्रेरी में बंद कर दिया गया. हद तो तब हो गई जब एक स्कूल में बच्चों को फीस जमा न कराने पर लाइब्रेरी में बंद कर दिया गया.

इसी तरह ‘जहां झुग्गी, वहां मकान’का नारा भी खोखला साबित हुआ.

सिर्फ तीन महीनों में यमुना पुश्ते की झुग्गी (मार्च में सीलमपुर), मद्रासी कैंप (मई में जंगपुरा) और कालकाजी के भूमिहीन कैंप (300 घरों को उजाड़ा) जैसे इलाके साफ कर दिए गए — हज़ारों लोग बेघर हो गए.

पिछले तीन महीनों में दिल्ली में हो रही गतिविधियों का यह बहत ही छोटा सा हिस्सा है.

इन घटनाओं के बीच एक स्पष्ट पैटर्न नज़र आता है: जिन योजनाओं को आम आदमी पार्टी लाई थी और जो जनता के बीच लोकप्रिय थीं, उन्हें या तो खत्म कर दिया गया, या केवल नाम बदलकर खोखला बना दिया गया. स्वास्थ्य, परिवहन, पानी, बिजली जैसे क्षेत्रों में भी यही रुख अपनाया गया है.

सवाल यह है: क्या राजनीति सिर्फ बदले की भावना से चलाई जाएगी?

राजनीति में हार-जीत लगी रहती है. अगर दिल्ली की जनता ने इस बार भाजपा को वोट दिया है, तो कुछ सोच-समझकर ही दिया होगा. क्या भाजपा की जीत का अर्थ यह है कि वह पूर्ववर्ती सरकार द्वारा शुरू की गई हर योजना को खत्म कर दे, भले ही वह जनहित में हों? इसलिए कि आपको पिछली सरकार से कोई राजनीतिक द्वेष है? या इसलिए कि उन कार्यों से आपको कोई राजनीतिक लाभ नहीं है.

क्या इस तरह दिल्ली आगे बढ़ेगी? क्या इस तरह देश आगे बढ़ पाएगा?

अगर आम आदमी पार्टी ने भी ऐसा ही किया होता—जैसे शीला दीक्षित सरकार द्वारा बनाए गए इन्फ्रास्ट्रक्चर को आगे न बढ़ाया होता—तो क्या दिल्ली में बीते 12 साल में 70 से अधिक फ्लाईओवर बन पाते?

ये सवाल पूछे जाने चाहिए.

राजनीति का मकसद विकास होना चाहिए, अपने प्रतिद्वंद्वियों से बदला लेना नहीं. बच्चों की शिक्षा और गरीबों की ज़िंदगी से खिलवाड़ केवल राजनीतिक प्रतिशोध नहीं, एक सामाजिक अपराध है. यह जनता के विश्वास और जनादेश से धोखा है.

(लेखक आम आदमी पार्टी के एक वालंटियर हैं. पेशे से कंसल्टेंट आशुतोष रांका ने आईआईटी कानपुर और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से ग्रेजुएशन की है. यहां व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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