scorecardresearch
Thursday, 18 April, 2024
होममत-विमतवाजपेयी, नवाज़ और मेरे बीच एक राज़ की बात जो अब भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है

वाजपेयी, नवाज़ और मेरे बीच एक राज़ की बात जो अब भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है

नवाज़ शरीफ़ ने वाजपेयी से शांतिपूर्ण संबंध स्थापित करने की पूरी कोशिश की थी लेकिन सेना उनके आड़े आ गयी. इमरान के लिए हालात अलग नहीं होने वाले.

Text Size:

इमरान खान जिस दिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की शपथ लेने जा रहे हैं- चाहे उस दिन जनरल ज़िया-उल-हक़ की मृत्यु की तीसवीं वर्षगाँठ क्यों न हो- मेरे लिए बिलकुल सही समय है आपको वह अनसुनी कहानी सुनाने के लिए जिसमे दोनों देशों के चुने हुए नेताओं ने उत्तेजक कदम उठाए थे। इसमें शामिल दो नेताओं में से एक का गुरूवार को निधन हो गया। दूसरे रावलपिंडी की एक कुख्यात जेल में क़ैद हैं। लेखक ने भी इस घटनाक्रम में एक छोटा किरदार निभाया है। अतः इस हफ्ते के नेशनल इंट्रेस्ट को आप एक कबूलनामे के तौर पर भी देख सकते हैं।

मियाँ नवाज़ शरीफ वर्ष 1997 में दूसरी बार चुनकर आये और इसके कुछ समय बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए ने भारत में सत्ता हासिल की। भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों की बातें, पोखरण 2 के परीक्षण और चगाई में पाकिस्तान की आणविक जुगलबंदी के चलते ठन्डे बस्ते में चली गयी।

हालाँकि 1998 की आख़िरी तिमाही तक दोनों पक्षों की अधीरता स्पष्ट दिखने लगी थी। दोनों नेता समझौता चाहते थे लेकिन उनके “सिस्टम” में बहुत अधिक पारस्परिक अविश्वास था। यहां तक की दिल्ली-लाहौर बस सेवा का सुझाव नौकरशाही पचड़ों में उलझा हुआ था। तब सर्दियों की शुरुआत थी जब पाकिस्तान से मेरे नाम एक चिट्ठी आयी थी।

पोस्टमार्क्स से पता चला कि वह लिफ़ाफ़ा , जिस पर “पाकिस्तान के प्रधान मंत्री द्वारा ” लिखा था, कई हफ्तों का सफर तय कर चुका था । लिफ़ाफ़े की यात्रा सुखद नहीं रही थी, हालाँकि यह समझा जा सकता है। इसे संभवत: कई प्रतिस्पर्धी “एजेंसियों” द्वारा खोला और फिर से सील कर दिया गया था, क्योंकि वे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की चिट्ठी सामान्य डाक में देखने के आदी नहीं थे। । वह चिट्ठी सर्वथा हानिरहित थी : मैंने कई महीनों पहले एक साक्षात्कार की अनुमति मांगी थी और यह स्वीकृति पत्र देर से ही सही, लेकिन गर्मजोशी भरा था।

मैंने नवाज शरीफ को फोन किया और पूछा कि क्या मैं साक्षात्कार के लिए पाकिस्तान आ सकता हूं। कुछ हल्का फुल्का मज़ाक भी हुआ । मैंने कहा कि साक्षात्कार का क्या मतलब है यदि हमारे प्रधान मंत्री कुछ भी करने में सक्षम नहीं ? बड़ी चीजें भूल जाइये , मैंने कहा, आप लोग तो उस बस को भी चालू नहीं कर पा रहे । नवाज शरीफ ने राजनयिकों के बारे में प्रचलित सामान्य शिकायतों को दुहरा दिया । मैंने भी पंजाबी में, हल्के-फुल्के अंदाज़ में सुझाव दिया कि वे साक्षात्कार में बस की घोषणा करें और पहली बस पर हमारे प्रधानमंत्री को आने का आमंत्रण दें।

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

नवाज शरीफ यह विचार पसंद आया । लेकिन उन्होंने पूछा कि अगर वाजपेयी उनके आमंत्रण को मना कर दें तो क्या होगा ? यह वास्तव में बुरा होगा । मैंने अपने स्तर से पता लगाने की बात कही । वाजपेयी को भी यह सुझाव पसंद आया । उनकी एकमात्र शर्त यह थी कि मैं वापस जाकर उनसे मिलूं और तब तक इसे प्रकाशित न करूँ।

अपने लाहौर स्थित घर पर दिए साक्षात्कार में (उस दौरान चेन्नई में खेले जा रहे भारत पाकिस्तान टेस्ट मैच में सचिन ने पीठदर्द से जूझते हुए एक शानदार पारी खेली थी जिसकी बदौलत पाकिस्तान हारते-हारते बचा था। वे साक्षात्कार के दौरान इस मैच पर भी नज़र जमाये थे। ) नवाज़ शरीफ ने अपना वायदा निभाया। उन्होंने बस की शुरुआत करने को कहा और वाजपेयी को आमंत्रित भी किया । उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि वे वाजपेयी का ऐतिहासिक स्वागत करेंगे। वाजपेयी ने मुझे इसे एक दिन रोककर रखने को कहा। वे लखनऊ में सुबह-सुबह लैंड करनेवाले थे और चाहते थे कि यह साक्षात्कार तभी प्रकाशित हो। वे सुनुश्चित करना चाहते थे कि कोई संवाददाता उनसे नवाज़ शरीफ द्वारा भेजे गए आमंत्रण के बारे में पूछे। वे विदेश मंत्रालय द्वारा कोई भी सवाल उठाये जाने से पहले सार्वजानिक तौर पर उस आमंत्रण को स्वीकार करना चाहते थे।


यह भी पढ़े : My encounters with Vajpayee, a statesman who could smile even in a tough situation


इसके बाद जो हुआ वह इतिहास के पन्नों में भली-भांति दर्ज है। यह यात्रा जल्द ही लेकिन काफी नाटकीय तरीके से पूरी हुई। कुछ अनबन भी हुई थी, उदाहरण के तौर पर पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने वाजपेयी के स्वागत में सलाम ठोकने से मना कर दिया। वाजपेयी ने मीनार-ए-पाकिस्तान से यह कहा कि एक स्थिर और समृद्ध पाकिस्तान, भारत के हित में है। ऐसा लग रहा था मानो इतिहास बनाया जा रहा हो। उस क्षण का एक हिस्सा होना मेरे लिए अविश्वसनीय था। आज शायद कोई कह दे कि वह साक्षात्कार ‘फिक्स्ड’ था । अगर ऐसा है भी तो उससे फायदा ही हुआ। यह एक ज़बरदस्त न्यूज़ब्रेक था।

हानी यहीं खत्म नहीं होती है। एक तरफ ये दोनों प्रधानमंत्री शांति सम्मेलन में मशगूल थे वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना मीलों दूर कारगिल में घुसपैठ में लगी थी और अपनी स्थिति लगातार मजबूत कर रही थी। मई के मध्य तक लड़ाई शुरू हो चुकी थी। 26 मई को भारत ने वायुसेना को जवाबी कार्रवाई पर लगा दिया। अगले ही दिन दो मिग विमान शोल्डर फ़ायर्ड मिसाइल्स की चपेट में आ गए। एक दूसरा भारी भरकम कैनबरा विमान जोकि तस्वीरें ले रहा था, अपने इंजन पर मिसाइल लगने के बावजूद किसी तरह वापस बेस पर ले जाया गया। कोई इन हालात के लिए तैयार नहीं था।

सुबह के 6:30 बजे मुंबई में मेरे होटल के कमरे का फ़ोन बजा और कॉलर ने कहा कि प्रधान मंत्री मुझसे बात करना चाहते थे। वे चिंतित थे। “ये क्या कर रहा है मित्र आपका?”, उन्होंने पूछा। उन्होंने कहा कि सभी आश्चर्यचकित थे कि अदने मुजाहिदीनों के पास मिसाइलें कैसे हो सकती हैं, और यह सब तब, जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख चीन में थे। आखिर माजरा क्या है जनाब, क्या आप अपने दोस्त से पूछ सकते हैं? मैंने इस्लामाबाद के उनके नंबर पर संदेश छोड़ा।

कॉल देर रात आया था । नवाज शरीफ वाजपेयी की ही तरह परेशान थे। उन्होंने कहा, “आप उन्हें बता सकते हैं कि मैं उन्हें धोखा नहीं दूंगा। मुझे कल बताया गया था कि एलओसी पर कुछ सामान्य मुठभेड़ें हुई थीं और आज उन्होंने ‘वायु उल्लंघन’ की सूचना दी।” मैं भी आश्चर्यचकित हूं, उन्होंने कहा और साथ ही वाजपेयी से बात करने की इच्छा जताई।


यह भी पढ़े : Pakistan’s future boils down to PM Imran Khan’s India policy


वाजपेयी और ब्रजेश मिश्रा ने मेरे नई दिल्ली लौटने पर मुझे बुलाया। उन्होंने कहा कि “हमारे लोगों” ने जनरल मुशर्रफ और उनके डिप्टी के बीच के कुछ फोन वार्तालापों को सुना था जिससे यह पुष्टि होती थी कि कारगिल पूरी तरह से एक सैन्य अभियान था। इसलिए, क्या मैं फिर से एक साक्षात्कार के बहाने इस्लामाबाद जाउंगा और नवाज शरीफ को टेपों के बारे में बताऊंगा? इस समय तक मैं हालात समझ चुका था। मैं नहीं कर सकता, और मुझे करना भी नहीं चाहिए, ऐसा मैंने विनम्रतापूर्वक उनसे कहा। पहला साक्षात्कार एक वास्तविक स्कूप था और बस का चलना एक संपार्श्विक या कोलैटरल लाभ । लेकिन यह पत्रकारिता से बहुत दूर जा रहा था। उन्होंने मेरी बात समझी। उन्होंने ऐसा करने के लिए एक और पूर्व संपादक को कहा। आर.के. मिश्रा, जो उस वक़्त ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के साथ थे, ने इस्लामाबाद की कई यात्राएं कीं। उन्होंने नवाज शरीफ तक वे इंटरसेप्ट किये हुए टेप भी साक्ष्य के रूप में पहुँचा दिए। मेरी कहानी, या कह लें कि मेरा गैर-पत्रकारिता का साहसिक अभियान खत्म हो चला था।

वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने कारगिल में विजय प्राप्त की। उन्होंने इस विश्वासघात को अपने फायदे में बदल दिया जिसके फलस्वरूप उनके कद में भी वृद्धि हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के माध्यम से शांति के लिए मुकदमा चलाने के लिए मजबूर होने वाले नवाज शरीफ इतने भाग्यशाली नहीं थे। इसकी बदौलत उनके सेना के साथ संबंध तो टूटे ही, उन्हें तख्तापलट , जेल और लंबे देशनिकाले का सामना भी करना पड़ा। इसके साथ ही किसी भी निर्वाचित पाकिस्तानी नेता द्वारा देश एवं विदेश नीति(सामरिक ,खासकर भारत से संबंधित) को अपने हाथों में लेने का सबसे सशक्त प्रयास भी खत्म हो गया। मुझे नहीं लगता कि ऐसा मौका फिरसे आएगा। मुझे नहीं लगता कि इमरान खान पाकिस्तान में सेना और आई एस आई के इस गठजोड़ को चुनौती दे पाने की हिम्मत जुटा पाएंगे।

यहां पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के लिए सीखने को बहुत कुछ है। सबसे पहले तो भारत से शांति सम्बंध स्थापित करना जोखिम का काम , कम से कम सेना को बताए बिना ऐसा करना आत्महत्या होगी। दूसरे, इसी सेना की बदौलत पाकिस्तान का कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। और तीसरी बात यह कि हर निर्वाचित प्रधानमंत्री को या तो देशनिकाला दिया गया है , हत्या कर दी गयी है या फिर जेल में डाल दिया गया है। बेनज़ीर भुट्टो के मामले में ये तीनों बातें सच हैं।


यह भी पढ़े : Kargil: What kind of a democracy are we that we are shy of facing the truth about our wars?


इमरान ने अपने जीवन में जोखिम उठाये हैं- चाहे वह क्रिकेट हो, उनके संबंध हों, शादी हो या राजनीति। लेकिन उनके देश में शक्ति का समीकरण अब भी जस का तस है। और कुछ नहीं तो पिछले दस वर्षों में जो भी जनतांत्रिक बदलाव हुए थे वह भी अब नज़र नहीं आ रहे। अगर वे शांति की बात करते हैं तो वह सेना के समर्थन के साथ होगा, ना कि उसके विपरीत जाकर।

और अब चाहे कुछ भी नया हो, मैं इस पचड़े से बाहर रहना चाहूंगा। यह लुभावना तो है पर साथ ही उलझनभरा भी। मैंने अभी यह बताने का फैसला किया इसके पीछे चार कारण हैं : वाजपेयी की मृत्यु, नवाज़ शरीफ़ का जेल में होना, इमरान की ताजपोशी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस बात को हुए बीस साल गुज़र चुके हैं।

Read in English : Outing a personal secret as a lesson for Imran: Featuring Vajpayee, Nawaz & a bit of me

share & View comments