स्वतंत्रता के बाद से अब तक महाराष्ट्र में लंबे समय तक मराठा नेताओं का शासन रहा है. कांग्रेस के काल में ज्यादातर मुख्यमंत्री इसी समुदाय से बने. अब राज्य में मराठा राजनीति का वजूद खतरे में नजर आ रहा है. जब महाराष्ट्र और मराठा राजनीति की बात आती है तो मराठा छत्रप शरद पवार की याद स्वाभाविक है. वे एक बार फिर से चर्चा में हैं क्योंकि उन्होंने घोषणा की है कि वे 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वे राजनीति से संन्यास ले रहे हैं.
पुणे के पास बारामती में एक किसान परिवार में 12 दिसंबर 1940 को जन्मे शरदचंद्र गोविंदराव पवार का राजनीतिक सफर कांग्रेस की छात्र इकाई से शुरू हुआ. पुणे के कॉलेज में बैचलर ऑफ कॉमर्स डिग्री लेने के दौरान 24 साल की उम्र में वह कॉलेज के अध्यक्ष बने.
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छात्र राजनीति से राजनीतिक सफर शुरू करने वाले पवार ने उसके बाद राजनीति में पीछे मुड़कर नहीं देखा. गोवा के स्वतंत्रता के आंदोलन के दौरान ही कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेता यशवंत राव चव्हाण की नजर छात्रनेता पवार पर पड़ी. पवार ने उन्हें अपना राजनीतिक गुरू बना लिया. चव्हाण के संरक्षण में वह 27 साल की उम्र में विधायक चुन लिए गए. बारामती से 1972 में दोबारा चुने जाने के बाद वह राज्य सरकार में मंत्री बने. 1978 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने इंदिरा गांधी विरोधी गुट इंडियन नैशनल कांग्रेस (सोशलिस्ट) के साथ चले गए. राज्य में कांग्रेस (इंदिरा) के खिलाफ प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बना.
पवार 38 साल की उम्र में पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री (18 जुलाई 1978 से 17 फरवरी 1980) बन गए. हालांकि 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही उनकी मुख्यमंत्री के रूप में पारी खत्म हो गई.
1984 में लोकसभा चुनाव जीतकर वह दिल्ली पहुंचे, लेकिन महज एक साल में ही उन्होंने इस्तीफा देकर महाराष्ट्र राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता का काम संभाल लिया. राजीव गांधी के काल में 1986 में पवार ने कांग्रेस (एस) का विलय कांग्रेस (आई) में करा दिया. उस दौर में राज्य में शिवसेना तेजी से उभर रही थी और कांग्रेस कल्चर को महाराष्ट्र में सशक्त बनाने को कारण बताकर वह कांग्रेस में लौटे थे. 1988 में जब राजीव गांधी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को केंद्रीय वित्त मंत्री बना दिया तो पवार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. 1990 में हुए चुनाव के बाद वह तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. अब तक 14 बार चुनाव लड़ चुके हैं.
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सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर पवार ने एक बार फिर कांग्रेस से अलग राह अपना ली. जून 1999 में उन्होंने पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की स्थापना की. ऐसा माना जाता है कि क्षेत्रीय दलों में अपनी लोकप्रियता और सबसे बेहतर संबंधों के कारण पवार प्रधानमंत्री बनने की संभावना देखने लगे थे, जिसकी वजह से उन्होंने कांग्रेस से अलग अपना वजूद बनाना शुरू किया था. हालांकि 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सत्ता में आने के बाद उन्होंने कांग्रेस से गठजोड़ कर लिया और केंद्रीय कृषि मंत्री बने और 10 साल तक इस पद पर रहे. 2012 में उन्होंने युवा पीढ़ी को अवसर देने की घोषणा करते हुए लोकसभा चुनाव न लड़ने का फैसला किया था. 2014 से वे राज्यसभा सदस्य हैं.
लोकसभा के आसन्न चुनाव में पवार को एक बार फिर नरेंद्र मोदी विरोधी खेमे के अहम नेता के रूप में देखा जा रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में वह मोदी से सीधा मोर्चा ले चुके हैं और उन्होंने मोदी को मनोरोगी और देश के लिए घातक करार दिया था.
इसके पहले 1986 में पवार ने जब अपने दल का विलय कांग्रेस में कराया था तो राज्य में तेजी से बढ़ती शिवसेना अहम चिंता थी. इस समय पवार के सामने न सिर्फ घटता जनाधार बचाने की चिंता है, बल्कि राज्य में भाजपा द्वारा हाशिये पर पहुंचा दी गई मराठा राजनीति भी अहम चिंता का विषय है. राज्य में पार्टी का आधार लगातार सिकुड़ रहा है. 2004 में उसे 9, 2009 में 8 और 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटें मिलीं. 1999 के बाद से पार्टी का मत प्रतिशत भी 21.58 प्रतिशत से गिरकर 2014 में 16.12 प्रतिशत रह गया है.
ऐसा माना जा रहा है कि पवार कांग्रेस, राजू शेट्टी की स्वाभिमानी पक्ष, समाजवादी पार्टी, हितेंद्र ठाकुर की बहुजन विकास अघाड़ी, पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को एक मंच पर लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं.
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पवार के सामने पार्टी के साथ अपनी विश्वसनीयता बचाने का भी संकट है. 2013 में मोदी को देश के लिए घातक बताने वाले पवार ने 2014 में देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को को स्थिर करने के लिए राज्य में बिना शर्त राकांपा का समर्थन दे दिया. उन्होंने नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बारामती में बुलाया, जहां मोदी ने कहा कि पवार ने उन्हें राजनीति सिखाई है. उनकी ये उठापटक उन्हें अविश्वसनीय बनाती है.
राजनीति के इस नाजुक मोड़ पर पवार बहुत अहम हो सकते हैं. इसमें 1986 की तर्ज पर पार्टी का कांग्रेस में विलय से लेकर एक महामोर्चा बनाकर राज्य में मराठा राजनीति और पार्टी को बचाए रखने का विकल्प शामिल है.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)